संसार के सभी मनुष्य सुखप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। किन्तु अज्ञानान्धकार में भटककर वे दुःखसागर में डुबकी लगाने लगते हैं। कर्त्तव्य-पथ का बोध तो वेद-सूर्य के प्रकाश में ही सम्भव है। वेद-मार्ग पर चलकर संसार को विनाश से बचाया जा सकता है तथा स्वर्गीय आलोक फैलाया जा सकता है।
जब हम किसी सागर को पार करने का विचार करते हैं, तो उसके लिए एक विशाल जहाज की आवश्यकता का अनुभव करते हैं और उसके निर्माण में लग जाते हैं। उसको बनाते समय हमारी दृष्टि के सामने यात्रा में आने वाले भयंकर संकट रहते हैं, जो समुद्र के तूफान एवं झंझावातों के परिणामस्वरूप आते हैं। जिसको अच्छी प्रकार न बनाया गया हो ऐसे जहाज के द्वारा समुद्र की यात्रा करना मृत्यु को निमन्त्रण देना होता है। क्योंकि समुद्र में अनेक चट्टानें होती हैं,जिनसे टकराकर कमजोर जहाज चकनाचूर हो जाते हैं। समुद्र में भीषण मगरमच्छ और ह्वेल मछली भी होते हैं, वे भी जहाज को संकटग्रस्त कर देते हैं। फौलाद से बने हुये जहाज ही उनकी टक्कर को झेल सकते हैं। अतः जहाज का निर्माण फौलाद तथा अन्य इसी प्रकार के सामान से होना चाहिए, जो समुद्र के झंझावातों में भी यात्रियों को सुरक्षित उनके गन्तव्य स्थान पर पहुंचा सके। हमें भी संसार सागर से पार उतरने के लिये ऐसे ही साधन की आवश्यकता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में संसार सागर से पार उतरने का साधन बताया गया है-
ओ3म् सुत्रामाणां पृथिवीं द्यामनेहसम्, सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसम्, अस्रवन्तीमारुहेमा स्वस्तये॥ ऋग्वेद 10.63.10
अर्थ- (सुत्रामाणम्) रक्षा के साधनों से युक्त (पृथिवीम्) विस्तार वाली (द्याम्) प्रकाशवाली (अनेहसम्) अपराध से रहित (सुशर्माणम्) कल्याण की भावना से मुक्त, स्वर्गिक सुख देने वाली (अदितिम्) अखण्डनीय (सुप्रणीतिम्) भवसागर से पार उतारने वाली (अनागसम्) निष्पाप, निर्दोष (सुअरित्राम्) उत्तम यन्त्रों एवं साधनों से युक्त (अस्रन्तीम्) न चूनेवाली, छिद्ररहित (दैवीं नावं) दैवी नाव पर (स्वस्तये) कल्याण के लिये (आरुहेम) हम चढ़ जावें।
इस मन्त्र में बहुत ही सुन्दर ढंग से मनुष्य को उपदेश दिया गया है कि यदि तुम संसार सागर से पार उतरना चाहते हो तो दैवी नौका पर चढ़ जाओ। प्रश्न हो सकता है कि दैवी नौका कहाँ मिलेगी? उसकी खोज में कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य का यह शरीर ही वह दैवी नौका है, जो इसे भवसागर से पार उतार सकती है। किन्तु यह नौका दैवी नौका होनी चाहिए। इसमें देवों का वास होना चाहिए। यदि मनुष्य के प्रमाद से कहीं इसमें असुरों ने डेरा जमा लिया तो यह आसुरी नौका हो जायेगी और ये असुर आपको किस नरककुण्ड में पटकेंगे, यह भी पता नहीं चलेगा।
इस मन्त्र में शरीररूपी दैवी नौका के बहुत ही सुन्दर विशेषण आये हैं। यदि आपने अपनी नौका को उनके अनुरूप बना लिया, तो अवश्यमेव भवसागर को पार कर परमपिता परमात्मा के आनन्द में डुबकी लगा सकेंगे। नौका कैसी हो? मन्त्र ने सबसे पहला विशेषण बतलाया- ‘सुत्रामाणम्’। त्रैण रक्षणे पालने च। उसके रक्षा के साधन शक्तिसम्पन्न हों। नौका को समुद्र में डालने से पहले फौलादी चादर से सुदृढ़ करना आवश्यक होता है। यह शरीर भी फौलाद की तरह सुदृढ़ होना चाहिए। वेद में उपदेश है- अश्मा भवतु ते तनुः, अस्मानं तन्वं कृधि। अपने शरीर को वज्र के समान सुदृढ़ बनाओ। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही दृष्टियों से इसे सुदृढ़ एवं पुष्ट किया जाना चाहिए। जनसाधारण इसकी ओर बहुत कम ध्यान देते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि खानपान की सामग्री जो हम प्रयोग में लावें, वह इसको सुदृढ़ बनाने वाली हो। किन्तु इसके साथ हो इसको सुदृढ़ बनाने के अनिवार्य साधन व्यायाम और प्राणायाम हैं। इनके अभाव में यह नौका कभी सुदृढ़ नहीं हो सकती। तप भी इस नौका को सुत्रामाण बनाने का एक महत्वपूर्ण साधन है । बिना तप के दैवी भावनाओं का जन्म नहीं होता। इसका निर्माण देवों द्वारा किया गया है। किन्तु वे तभी तक देव रहते हैं जब तक संयम के द्वारा मन को पवित्र रखा जाता है। आलसी, दरिद्री एवं आराम से रहने की इच्छा करने वाले जो तप से दूर रहते हैं, उनकी नौका सुत्रामाण नहीं हो सकती। जितने भी महापुरुष हुये हैं, सभी ने अपने जीवन मेें कठोर तप तथा श्रम का अनुष्ठान किया था। महर्षि दयानन्द सरस्वती का शरीर नियमित व्यायाम और प्राणायाम के फलस्वरूप वज्र के समान कठोर हो गया था। विकट से विकट परिस्थितियों में भी वे मुस्कराते हुये आगे बढ़े। महान् कष्टों को हँसते हुये झलते रहे। क्यों न हो, उन्होंने तपश्चर्या से अपनी नौका को सुत्रामाण बना लिया था। मल, विक्षेप और आवरण के परमाणुओं को अपने तप से भस्मसात् कर दिया था। ब्रह्मचर्य से उनका शरीर शरीर कुन्दन बन गया था। चित्त की वृत्तियाँ, बौद्धिक विचार सभी आत्मा के शृंगार बने हुए थे।
मन्त्र में दूसरा विशेषण जो इस नौका के लिये आया है, वह ‘पृथिवी‘ है। यह नौका पृथिवी के समान होनी चाहिए। जब हम पृथिवी के गुणों पर विचार करते हैं, तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि पृथिवी अपने आंचल में अनेक प्राणियों को स्थान दिए हुए है। इस पर उगे हुए वृक्ष अपनी डाली पर लगे हुए फल दूसरों को ही दे रहे हैं। नाना वनस्पति जिनके द्वारा प्राणियों का जीवन चलता है, इसमें उगी हुई हैं। इसमें अनेक जलधारायें प्रवाहित हो रही हैं, जो प्राणियों के सन्ताप को दूर कर शीतलता प्रदान करती हैं। यह नौका पृथिवी के समान विशाल डील-डौल वाली होनी चाहिए।
तीसरा विशेषण जो इस नौका के लिये आया है वह है ‘द्याम्’ हमारा शरीर द्युलोक के समान प्रकाश से युक्त हो। द्युलोक में अनेक ज्योतियाँ हैं। सूर्य, चन्द्र तथा अनेक तारागण द्युलोक को सुन्दर वाटिका बनाये हुये हैं। हमारे शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ दीपक के समान हैं। इन्हें प्रकाशित करने की आवश्यकता है। मन चन्द्रमा के समान है। यह हमें अच्छे मार्ग पर ले जाता है। योगी जन समाधि में अनेक प्रकाशों से युक्त होकर इसे ‘द्याम्’ के समान बना लेते हैं।
मन्त्र आगे कहता है कि यह नौका ‘अनेहस’ हो। इसमें अपराध के लिए किंचित भी स्थान न हो। इसलिए पहले पुण्य-पाप के अन्त को समझने की आवश्यकता है। यदि हमने इस नौका को ‘द्याम्’ के समान ज्ञान के प्रकाश से अच्छी प्रकार आलोकित कर लिया है, तो हमारे सामने पाप-पुण्य को समझने में कोई कठिनाई नहीं आएगी। क्योंकि मनुष्य को अन्धकार में ही धोखा लगता है। प्रकाश में तो वह वस्तु के यथार्थस्वरूप को अच्छी प्रकार देख लेता है। यदि अपराध करने से इसे पृथक् न रखा गया तो इसके सभी भूषण दूषण हो जायेंगे। इसके सभी गुण दुर्गुणों में बदल जायेंगे। यदि बलवान् और ज्ञानवान् व्यक्ति ही अपराध करने लग जाएं, तो वे सारे समाज के लिए अभिशाप सिद्ध होंगे। वर्तमान युग में यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। आज बलवानों का बल निर्बलों की रक्षा में नहीं, बल्कि उत्पीड़न में लग रहा है। वैज्ञानिक अपने ज्ञान से संसार के विनाश का सामान बना रहे हैं।
आगे मन्त्र कहता है कि यह नौका ‘सुशर्माण’ हो। सुशर्माण के अर्थ हैं कल्याण की भावना से ओत-प्रोत और सभी सुविधाओं से युक्त। उत्तम कल्याण का साधन यह शरीर होना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब यह दुर्भावना से पृथक रहे। संसार के कल्याण में लगाना ही इसे सुशर्माण बनाना है। यदि संसार के सभी मनुष्य इस मार्ग पर चलें, तो विनाश की अग्नि कहीं दिखाई ही न दे। जब यह नौका प्राणिमात्र के कल्याण का साधन बन जाती है तो यह अदिति हो जाती है। अखंडित बन जाती है। मन्त्र में भी आगे यही बतलाया है कि यह अदिति होनी चाहिए। महापुरुषों के जीवन में जहाँ उनके मार्ग में फूल बिछाये जाते हैं, वहीं उन्हें विष के प्याले भी पिलाये जाते हैं। ईंट और पत्थर भी मारे जाते हैं, किन्तु वे एकरस रहते हैं। अपने घातक के लिए दुर्भावना तो दूर बल्कि उनके कल्याण की ही कामना करते हैं। आपत्ति में उनकी रक्षा करते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणघातक जगन्नाथ के प्राणों की रक्षा के लिए अपने पास से रुपये देकर उसे नेपाल भेज दिया था। महर्षि ने अपनी नौका को सच्चे अर्थों में अदिति बना लिया था।
आगे मन्त्र कहता है कि यह नौका ‘सुप्रणीति’ होनी चाहिए। सुप्रणीति के अर्थ हैं पार उतारने वाली एवं उत्तम नीति से युक्त। जितने भी ऋषि-मुनि-महापुरुष संसार में हुए हैं, वे सब ऋजु नीति पर ही चले हैं। उन्होंने कभी कुटिलनीति का अनुसरण नहीं किया। इसीलिए संसार उनको आदर के साथ याद करता है। उनकी श्रेष्ठ नीति और उच्च सिद्धांतों के प्रति नतमस्तक होता है। जिन राजे-महाराजाओं ने कुटिल नीति पर चलकर संसार को दुःख के सागर में डुबोया, उनके प्रति घृणा की भावना प्रदर्शित की जाती है। जब हम संसार के झूठे आकर्षण से मुक्त होकर परमात्मा के मार्ग पर चलते हैं, तो यह शरीर रूपी नौका सुप्रणीति बन जाती है।
मन्त्र ने आगे बताया है कि यह नौका ‘सुअरित्राम्’ होनी चाहिए। ‘सुअरित्राम्’ का अर्थ है उत्तम साधनों वाली। जिस नौका में उत्तम पतवार व बल्ली होती है, वह तूफानों में भी नहीं डगमगाती। नाविक अपने उत्तम साधनों से अपनी नौका को प्रवाह को चीरकर अपने गन्तव्य मार्ग पर ले जाता है। ठीक इसी प्रकार हमें भी ज्ञान, कर्म और उपासना की पतवार व बल्ली अपनी जीवनयात्रा में सदा रखनी चाहिए। तब हम अपने पथ से विचलित नहीं होंगे। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने प्रबल विरोधों में अपनी नौका को मार्ग से तनिक भी इधर-उधर नहीं जाने दिया,क्योंकि उनके पास योग की उत्तम पतवार सदा साथ रहती थी।
इससे आगे मन्त्र कहता है कि यह नौका ‘अनागस’ भी होनी चाहिए। अनागस का अर्थ है निर्दोष। उसमें कोई दोष नहीं होना चाहिए। मनुष्य अपराध तभी करता है जब पहले उसमें पाप की भावना उत्पन्न हो जाती है और वह दोषयुक्त हो जाता है। अपराधी अपने अपराध का दण्ड पाने पर भी अपराध करना इसलिए नहीं छोड़ता, क्योंकि उसकी पापवृत्ति उसे वैसा करने के लिए प्रेरित करती है। अतः भूल में सुधार की महती आवश्यकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह आत्मनिरीक्षण के द्वारा अपने दोषों को दूर करे। जब तक हम आत्मनिरीक्षण नहीं करेंगे, हमें अपने दोषों का पता ही नहीं चलेगा। अपने जीवन का बहीखाता प्रातः-सायं देखिए कि उसमें कुछ पुण्य भी किया गया है अथवा पाप का भण्डार ही भरा है। इस प्रकार अपनी नौका को ‘अनागस’ बनायें।
मन्त्र ने इस नौका के लिये अन्तिम विशेषण बहुत ही सुन्दर दिया है। मन्त्र कहता है कि यह नौका ‘अस्रवन्ती’ होनी चाहिए। अस्रवन्ती के अर्थ हैं न चूने वाली। जिस नौका में छिद्र हो जाता है, उसमें अवश्य जल भरेगा और वह डूब जायेगी। अतः नौका में कोई छिद्र नहीं होना चाहिए। और यदि कोई हो तो उसे बन्द रखना चाहिए। हमारी शरीररूपी नौका में कुछ छिद्र हैं, जिन्हें वेद ने द्वार बतलाया है- ‘अष्टचक्रा नवद्वारा’। इसके नौ द्वार हैं, जिनके द्वारा विकारों का जल इसमें प्रविष्ट हो जाता है और इसको डुबो देता है। जो मनुष्य इन द्वारों से विकारों के जल को नहीं आने देता, उसकी नौका उसे संसार सागर से उस पार पहुंचा देती है। इसलिए इस नौका को अस्रवन्ती बनाना होगा।
बड़े-बड़े साधक भी साधना के मार्ग से भटक जाते हैं। क्योंकि किसी द्वार से विकार शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए सावधानी की पदे-पदे आवश्यकता है। यदि हमने वेद मन्त्र के अनुसार अपनी नौका का निर्माण कर लिया, तो कोई व्यक्ति हमारे मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर सकेगा और हम अपने गन्तव्य पर पहुंचकर जीवन सफल कर सकेंगे।
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