ओ3म् प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा॥ (यजुर्वेद 31.19)
शब्दार्थ- (प्रजापतिः) प्रजापालक परमात्मा (गर्भे अन्तः) गर्भ में, गर्भस्थ जीवात्मा में (चरति) विचरता है। वह (अजायमानः) स्वयं कभी उत्पन्न न होता हुआ भी (बहुधा) अनेक प्रकार से (वि जायते) विविध रूपों में प्रकट होता है (तस्य योनिम्) उसके स्वरूप को (धीराः) धीर, निश्चल योगिजन ही (परि पश्यन्ति) साक्षात् करते हैं (तस्मिन् ह) उस परमेश्वर में ही (विश्वा भुवनानि) समस्त सूर्यादि लोक (तस्थुः) स्थिर हैं।
भावार्थ-
1. ईश्वर सर्वत्र व्यापक है। अतः वह गर्भ में अथवा गर्भस्थ जीवात्मा में भी व्यापक है।
2. वह स्वयं जन्म धारण नहीं करता। जो जन्म नहीं लेता वह मरता भी नहीं। अतः ईश्वर जन्म-मरण के बन्धन से रहित है।
3. ईश्वर जन्म नहीं लेता। परन्तु वह नाना रूपों में प्रकट होता है। सूर्य में उसी का प्रकाश है। चन्द्रमा में उसी की ज्योत्स्ना है। तारों और सितारों में उसी की जगमगाहट है। ये हिमाच्छादित ऊँचे-ऊंचे पर्वत, ये कल-कल, छल-छल करके बहती हुई नदियाँ सभी उस प्रभु की ओर संकेत करती हैं।
4. उस ईश्वर का साक्षात्कार धीर और योगी लोग ही कर सकते हैं।
5. सारे लोक-लोकान्तर उसी प्रभु में स्थित हैं। उसी के आश्रय पर ठहरे हुए हैं।
इस मन्त्र में ईश्वर को अजन्मा कहा गया है। परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता। वह जन्म-मरण के बन्धन से रहित है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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