ओ3म् सुपर्णोऽसि गरुत्मान् पृष्ठे पृथिव्याः सीद।
भासान्तरिक्षमा पृणज्योतिषा दिवमुत्तभान तेजसा विश उद्दृंह॥ (यजुर्वेद 17.72)
शब्दार्थ- हे मानव! (गरुत्मान् सुपर्णः असि) तू अत्यन्त गौरवशाली, ज्ञान और कर्मरूपी सुन्दर पंखों से युक्त है। तू (पृष्ठे पृथिव्याः सीद) तू पृथिवी के ऊपर विराजमान हो (भासा) अपने प्रकाश से, तेज और कान्ति से (अन्तरिक्षम् आ पृण) अन्तरक्षि को भर दे। (ज्योतिषा) ज्ञान-ज्योति से (दिवम्) द्युलोक को (उत् स्तभान्) द्योतित कर दे, चमका दे (तेजसा) अपने तेज से (दिशः) सभी दिशाओं को (उत् दृंह) उन्नत कर दे।
भावार्थ-
1. मानव! मत समझ कि तू दीन-हीन है, तू तो महान् है, अत्यन्त गौरवशाली है। तू क्षुद्र तुच्छ नहीं है अपितु संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अतः आत्महीनता की भावनाओं को त्याग दे।
2. तू सुपर्ण है। ज्ञान और कर्मरूपी तेरे दो सुन्दर पंख हैं। इनकी सहायता से तू अन्तरिक्ष और द्युलोक को भी पाकर मोक्षधाम तक जा सकता है।
3. अपनी शक्ति और आत्म-गौरव को पहचान और पृथिवी के ऊपर विराजमान हो, पृथिवी पर शिरोमणि बन।
4. पृथिवी से ऊपर उड़ और अपने तेज से, अपने ज्ञान और कर्म-कौशल से अन्तरिक्ष को द्योतित कर दे। संसार के मानवमात्र के अन्तःकरण को ज्ञान-ज्योति से जगमगा दे।
5. तू समस्त द्युलोक को, मनुष्यमात्र के मस्तिष्क को द्योतित कर दे।
6. दशों दिशाओं को अपने तेज से भर दे। ऐसा पराक्रम कर कि संसार में कहीं भी अज्ञान, अन्याय और अभाव न रहने पाए। सारा भूण्डल ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाए। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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