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मानवता का एकमात्र आधार वेद विज्ञान

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वर्तमान युग वैज्ञानिक युग के नाम से प्रसिद्ध है। विज्ञान की अनेक उपलब्धियाँ मानव जाति के लिए वरदान सिद्ध हुई हैं। वैज्ञानिक अनन्त के रहस्यों को खोज निकालने में पुरजोर शक्ति के साथ व्यस्त हैं। अंतरिक्ष की खोज में भारत के वैज्ञानिकों ने रूस को पीछे छोड़कर विश्‍व में अग्रगण्य स्थान प्राप्त कर लिया है। एक साथ दस अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष में भेजकर भारी उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर ली है। इसी के साथ वर्तमान विज्ञान ने प्राणिमात्र के साथ समस्त जड़-चेतन के सर्वनाश के द्वार भी खोल दिए हैं । द्वितीय महायुद्ध के समय हुआ सर्वनाश का साक्षी है जापान का नागासाखी, जहाँ के जले हुए वृक्ष और समुद्र की तड़फकर मरी हुई मछलियाँ इतिहास के काले पृष्ठों पर अंकित हैं। इस भीषण विनाश से द्रवित होकर महान् चिन्तक सर बर्टेण्ड रसेल ने अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए लिखा है- “आगामी विश्‍वयुद्ध यदि होता है तो वह शस्त्रों से लड़ा जाएगा, यह तो कहा जा सकता है। परन्तु उसके बाद का युद्ध पत्थर की गदाओें से लड़ा जाएगा।’’ यह वर्तमान वैज्ञानिक खोज और उपलब्धियों से मिलने वाले संकेत हैं। इन्हें देखकर व सुनकर मानव जाति भयभीत है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हम विनाश की ओर धकेले जा रहे हैं। किसी भी दिन कोई निर्दयी आतंकी राक्षस इन शस्त्रों का प्रयोग कर भारी नरसंहार का तांडव रच सकता है। इस कथित वरदान और भयंकर अभिशाप के बीच में हतप्रभ होकर मानव शून्य नेत्रों से शून्य आकाश को ताक रहा है।

वर्तमान विषम स्थिति को देखते हुए भारत के महान् दार्शनिक विद्वान् पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् महोदय ने चिन्ता के साथ आशा करते हुए अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा था- “घटनाओं को देखने से पता चलता है कि मानव-इतिहास का अन्त आ गया है अथवा वह नई करवट लेने वाला है। जब तक प्रकाश शेष है, परिवर्तन को लाने के लिए जुट जाएँ, अन्यथा मानवजाति इस धरती से इस तरह अन्तर्ध्यान हो जाएगी, जैसे पिछली दुनिया के हिंस्र पशु लुप्त हो गए ।’’ इस उद्गार में जो आशा प्रकट की गई है, उसका संकेत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में इस प्रकार दिखाई देता है, जिसके अनुसार चलकर परिवर्तन लाया जा सकता है। कवि कथन है-
मनुष्य-मात्र बन्धु है, यही बड़ा विवेक है। पुराण-पुरुष स्वभू पिता प्रसिद्ध एक है॥
फलानुसार अवश्य बाह्य भेद हैं। परन्तु अन्तरेक्य प्रमाणभूत वेद हैं॥
अनर्थ है कि बन्धुहीन बन्धु की व्यथा हरे। वह मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥’’
इस कथन के अनुसार मनुष्य मात्र बन्धु है। उनमें अन्तरिक एकता भी है। वेद इस सत्यता के प्रमाण हैं। ‘आत्मदृष्टि से समदर्शन’ यही विवेक है और इस विवेक के आधार हैं सृष्टि के प्रथम ग्रन्थ ‘वेद’। अब प्रश्‍न उपस्थित होता है कि इस विवेक को मनुष्य मात्र में कैसे जगाया जाए और कौन जगा सकता है? इस प्रश्‍न का उत्तर विज्ञान में निहित है। अतः वैज्ञानिक ही इसका उत्तरदायित्व वहन करने में सक्षम है। अब यह विचारणीय प्रश्‍न उपस्थिति होता है कि इस प्रयास की दिशा और योजना क्या हो सकती है ?

एक सत्य सर्वविदित है कि वैज्ञानिकों की उपलब्धियों को सभी सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों, जातियों आदि में विभाजित मानव इन उपलब्धियों का लाभ उठा रहे हैं। विज्ञान भेदभावों को समाप्त करने में सक्षम है। विज्ञान के प्रयोगात्मक सत्य इस प्रकार मानवीय एकता के आधार हैं। अन्धविश्‍वास को समाप्त कर ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से संसार को आलोकित किया जा सकता है। इस कथन से यह विश्‍वास जन्म लेता है कि वैज्ञानिक शोधकर्त्ता मानवमात्र की एकता तथा उनमें मानवीयता के संस्कार जगाने में सक्षम हैं। उन्हें इस प्रयास का उत्तरदायित्व लेना होगा। इस उत्तरदायित्व का वहन करने में ‘वेद-शास्त्र’ उनकी क्या सहायता कर सकते हैं, यह गंभीर विचार का विषय है। श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं- “मैं तुझे विज्ञान सहित ज्ञान दूंगा, जिसे जानने के पश्‍चात् कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा।’ यह ज्ञान-विज्ञान क्या है? वैदिक ऋषियों ने इस प्रश्‍न का समाधान करते हुए दो पक्ष स्पष्ट किए हैं। एक पक्ष संचर और दूसरा प्रतिसंचर है। ‘आत्मा विश्‍व कैसे बन गया’ इसका समाधान संचरविद्या है। इसमें सृष्टि, उत्पत्ति, व्यक्ति आदि का समावेश है तथा ‘विश्‍व पुनः कैसे आत्मरूप में परिणत हो जाएगा’ इस प्रश्‍न का समाधान प्रतिसंचर विद्या है। इन दोनों का सनातन सम्बन्ध है। इन्हीं दोनों को दूसरों शब्दों में दर्शन शास्त्र और यज्ञशास्त्र कहा गया है। पश्‍चिम में इन्हें फिलॉसफी और साईन्स कहा जाता है।

वर्तमान में वैज्ञानिक केवल विज्ञान के माध्यम से सांसारिक वैभव को प्राप्त कर रहे हैं तथा परम आनन्द एवं मानवता का पाठ-पढ़ाने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इस प्रकार विश्‍व मानवता से रहित विनाश की ओर जा रहा है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता है विज्ञान को ज्ञान सहित अर्थात् साइन्स को फिलासफी सहित स्वीकार कर तदनुसार शोध कार्य करने की। सही मानवता की स्थापना उसके उद्भव का आधार है।

वेद-शास्त्र संचर और प्रतिसंचर विद्या अर्थात् ज्ञान और विज्ञान दूसरे शब्दों में फिलासफी और साइन्स दोनों के समन्वित रूप को स्वीकारोक्ति देता है। इसी के परिणामस्वरूप भारत ने जगद्गुरु के पद को प्राप्त किया था। कुल मिलाकर जो तथ्य उजागर होता है वह है- ‘मानवता का एकमात्र आधार है वेद-विज्ञान।’ इसे अपनाकर ही मानवता, आर्यत्व, देवत्व की स्थापना के साथ विश्‍वशान्ति, प्रगति और मानवीय सद्भावना उत्पन्न की जा सकती है। वैज्ञानिक ऋषियों की उपलब्धियों के साक्षी बनने का प्रयास करें। - जगदीश दुर्गेश जोशी

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