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आवश्यक है राष्ट्रीय नेतृत्व की खोज

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भारत ने अपने लिए प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था को स्वीकार किया है। इसके अन्तर्गत प्रति पाँच वर्षों के पश्‍चात् राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए संसद के सदस्यों का चुनाव कर उन्हें देश के नेतृत्व का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। संसद द्वारा अपने में से कार्यपालिका हेतु मंत्रियों का चुनाव कर देश की शासन-व्यवस्था का संचालन करने का कार्यभार सौंपा जाता है। सारे देश का राज्य स्तरीय नेतृत्व और संसद के दोनों अंगों द्वारा मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव कर उन्हें न्याय-रक्षा-विधायिका-कार्यपालिका आदि के नेतृत्व का समग्र भार सौंप दिया जाता है। इस प्रकार सुसंगठित किया जाता है राष्ट्रीय नेतृत्व।

‘राष्ट्रीय नेतृत्व’ की खोज से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि उसकी पहिचान क्या है? जिस प्रकार ‘मानव’ में उसकी मानवता का भाव, तद्नुरूप उसका आचरण वंदनीय होता है, उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की अपनी राष्ट्रीयता वन्दनीय और अनुकरणीय होती है। जिस व्यक्ति में इसके दर्शन होते हैं, उसका नाम उस राष्ट्र के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाता है। भावी पीढ़ी उसे अपना आदर्श मानकर अपने राष्ट्रीय चरित्र का परीक्षण करती है। इस सिद्धांत के आधार पर राष्ट्रीय-नेतृत्व की खोज करने से पूर्व भारत के शास्त्रीय-रत्नाकर में गोते लगाकर तथा गहराई में छिपे रत्नों को ढूंढकर राष्ट्रीय चरित्र को जानने की साधना करें। भारत की भारतीयता व यहाँ के राष्ट्र की राष्ट्रीयता का जो स्वरूप रहा है, उसे जानकर व अपनाकर भारत के राष्ट्रीय नेतृत्व को संजोया, संवारा और गौरवान्वित किया जा सकता है।

गहराई में गोता लगाने वाले साधकों के हाथ में सर्वप्रथम तीन रत्न हाथ लगे। एक पर अंकित था ‘मातृभूमि’, दूसरे पर लिखा था ‘मातृसंस्कृति’ और तीसरे पर अंकित था- ‘मातृभाषा’। व्याख्याकार ने इन्हें देशभक्ति अर्थात् राष्ट्रीय चरित्र के उद्देश्य के रूप में निरूपित किया। आगे और रत्न निकलते गए, जिन पर लिखा हुआ था, त्याग-शौर्य-शक्ति-पराक्रम-सेवाभाव-उत्साह-भ्रातृभाव आदि। व्याख्यानकार ने इन्हें देशभक्त के चारित्रिक गुण निरुपित करते हुए कहा कि ये गुण उपर्युक्त उद्देश्यों को समर्पित होने चाहिएं। उपर्युक्त उद्देश्यों और गुणों का ज्ञान जब कर्म में परिवर्तित होता है तभी राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है। ज्ञान का कर्म में रूपान्तरण ही चरित्र की संज्ञा पाता है। व्याख्याकार के समक्ष जिज्ञासु तत्त्वों ने प्रश्‍न उपस्थित करते हुए पूछा- ‘क्या ऐसे चरित्र भारतीय इतिहास में अंकित हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से युग प्रभावित हुआ हो?‘ व्याख्याकार ने शास्त्रीय आधार पर राम-कृष्ण-युधिष्ठिर आदि के नाम बतलाने के बाद ऐतिहासिक पात्रों के क्रम में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम बतलाया, जिसके चरित्र के प्रभाव से तत्कालीन युग ‘स्वर्ण-युग’ का गौरव प्राप्त कर सका था, जिसकी गौरवगाथा चीनी यात्री फाह्यान के भारत-यात्रा वृत्तान्त में अंकित है। सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने मातृभूमि और मातृसंस्कृति को समर्पित कर्म साधना से भारतीयों के चरित्र को बदलने में सफलता प्राप्त की थी।

स्वतंत्र भारत के लिए जिस रामराज्य की संकल्पना प्रस्तुत की गई थी, उसके लिए उपर्युक्त वर्णित देशभक्तिपूर्ण तथा समर्पित चरित्र के नेतृत्व की ही आवश्यकता थी। ऐसे ही चरित्र के धनी थे क्रान्तिकारी यथा सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा आदि भारतमाता के सपूत तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आज़ाद हिन्द सेना के क्रान्तिवीर सैनिक। इन क्रान्तिवीरों के पश्‍चात् भारतीय नेतृत्व में उपर्युक्त उद्देश्य और गुणों के साथ समर्पित व्यक्तित्व का अभाव परिलक्षित होता है, जिसके परिणामस्वरूप मातृभूमि का विभाजन स्वीकार करना पड़ा। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की कहावत के अनुसार दिशाहीन, गुणरहित एवं कमजोर नेतृत्व के परिणामस्वरूप चारों ओर देशभक्ति शून्य चरित्र के दर्शन हो रहे हैं। नैतिक पतन और भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय चरित्र को दूषित कर रखा है। साहसहीन नेतृत्व भारत पर मंडराते खतरों को रोक पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। आज इस नेतृत्व में इतनी भी क्षमता नहीं है कि वह पकड़े गए देशद्रोहियों तक को दंडित कर सके। इस नेतृत्व से बाहरी तो क्या, अन्तरिक राष्ट्रद्रोही तक भयभीत नहीं है।

वर्तमान नेतृत्व कट्टर साम्प्रदायिक, कुटिल क्षेत्रवादियों, जातिवादियों, विभिन्न भाषाई तत्वों, गद्दारों, भ्रष्टाचारियों, मिलावटियों तथा धर्म संस्कृति के द्रोहियों आदि का स्वार्थ भरा मिलन मात्र दिखाई दे रहा है। ऐसी दशा में हम सब मिलकर मातृभूमि, मातृसंस्कृति और मातृभाषा (अपने क्षेत्र की भाषा के साथ राष्ट्रभाषा सहित) के उद्देश्यों के प्रति सम्पूर्ण शक्ति, प्रतिभा और उपलब्धियों को समर्पित करने वाले राष्ट्रीय चरित्र से सम्पन्न राष्ट्रीय नेतृत्व का निर्माण करें जिसमें साहस हो दुश्मन से टकराने का, जिस चरित्र से प्रभावित होकर सारे देशवासी सारे देश की चिन्ता करें न कि अपने सम्प्रदाय की या अपने क्षेत्र की। इस खोज का शुभारम्भ आज की आवश्यकता अर्थात् देशभक्ति है। जगदीश दुर्गेश जोशी

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