जब शरीर के किसी अंग में पीड़ा होती है, तो चित्त उसी अंग विशेष पर लगा रहता है और उसका स्मरण उसको बार-बार होता रहता है। इसी प्रकार जिसका शरीर रोगी है, वह सदा शरीर की भावना में व्यग्र रहेगा, उसकी अन्तर्दृष्टि नहीं रह सकती। अन्तदृष्टि के लिये शरीर का स्वस्थ रहना अत्यन्त आवश्यक है।
यदि आपके शरीर में कोई रोग है, तो निश्चय मानिये कि इसका कारण आपमें आत्म-दृष्टि का अभाव ही है। अथवा यों कह सकते हैं कि आपकी दृष्टि बाह्य हो गई है। शारीरिक रोग उस चाबुक के घाव के समान है, जो अड़जाने के कारण घोड़े की पीठ पर पड़ा है। हमारा मन हमारी किसी इन्द्रिय के विषय में फंसा नहीं कि हम पर सवार का चाबुक पड़ने में देर नहीं लगती। निरन्तर क्रमबद्ध और तालबद्ध गति से आनन्द की ओर बढ़े चलना ही जीवन का लक्ष्य और सम्पूर्ण जीवन का नियम है। हमारी आत्मा और प्रकृति माता इसमें किसी प्रकार के व्यतिक्रम को कदापि सहन नहीं कर सकती।
इस प्रकार स्थूल शरीर के समस्त विकार एवं रोग हमारे अन्तःकरण के विकारों की अभिव्यक्ति मात्र हैं। यदि हम नहीं जानते तो हमको जान लेना चाहिये कि हमारे स्थूल शरीर के अनेक रोगों का कारण मानसिक है, जिसको आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी मान लिया है। उदाहरण के लिये मन्दाग्नि, अनिद्रा, हिस्टीरिया, सामान्य शारीरिक शैथिल्य और सन्धिवात व गठिया के लिये वे मानसिक चिन्ता, सन्देह, अविश्वास और मनःसन्ताप तथा मन की डावांडोल अनिश्चित दशा को उत्तरदायी ठहराते हैं। अभी विज्ञान ने अपना अन्तिम निर्णय नहीं दिया है, उसकी खोज निरन्तर चल रही है।
भारतीय संस्कृति तो इससे भी बहुत आगे समस्त ब्रह्माण्ड के शरीरों को तथा उसके सब प्रकार के विकारों और रोगों को समेटते हुये विश्वासपूर्वक यह घोषणा करती है कि जो विष विश्व-शरीर (ब्रह्माण्ड) में व्याप्त होकर अनेक प्रकारों और रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है, जैसे महामारियाँ, विप्लव, अकाल और युद्ध। वही विष व्यक्ति के शरीर और मन के द्वारा अनेक प्रकार के शारीरिक रोगों और मानसिक उद्वेगों के रूपों में प्रगट हो रहा है। इस प्रकार समस्त विश्व के दुःखों और क्लेशों तथा मानव के सब प्रकार के विषाद और अवसादों का केवल एक ही कारण है और उस सबका उपचार भी एक ही है। एक रोग है और एक ही औषधि है।
यदि आज का विज्ञान भारतीय संस्कृति के इस निर्णय के पूर्णतः अनुकूल नहीं है, तो कोई चिन्ता नहीं। आज नहीं तो कल उसे हमारा निर्णय मानना ही पड़ेगा। क्योंकि सत्य को किसी आधार की अपेक्षा नहीं।
यहाँ पर उस एक औषधि, उपचार तथा पथ्यापथ्य के विषय में भी सामान्यतः कुछ निर्देश कर देना अनुपयुक्त न होगा। यह औषधि अन्तर्दृष्टि या आत्मदृष्टि अथवा अपने उद्देश्य के प्रति एकाग्रता के नाम से विख्यात है। इसको हम मन का संयम वा मानसिक विजय (मन पर विजय प्राप्त करना) के नाम से भी पहचानते हैं। इसका थोड़ा सा नियमित अभ्यास भी मानव के उन छोटे-छोटे रोगों को जिनकी यहाँ चर्चा की गई है, अच्छा करने में चमत्कारी सिद्ध हुआ है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, असन्तोष, वियर्यय, आत्म-प्रवंचना, अहंकार, क्रोध, लोभ, मात्सर्य और भय आदि इन सब हिंसक शत्रुओं से एक साथ बचने का एकमात्र सरल उपाय इसके अतिरिक्त दूसरा नहीं।
जिस प्रकार हमारा आचार हमारे विचारों से प्रभावित होता है, उसी प्रकार हमारे मन पर अर्थात् हमारे विचारों पर हमारे आचार का अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिये हमें अपने आचार पर कड़ी दृष्टि रखने की प्रतिक्षण आवश्यकता है। जब तक हम परिपक्वास्था में नहीं पहुंच जाएं, तब तक आचार और विचारों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध मानना पड़ेगा। इसलिये हमारा आचार जिसमें हमारी दिनचर्या का अधिकांश भाग सम्मिलित है बड़ा नियमित, सात्विक और प्राकृतिक होना आवश्यक है, जिससे हमारे मन में तामस् तथा राजस उद्वेगों और विकारों को प्रवेश न मिलने पावे।
हमारे आचार में भोजन, वस्त्र, खेल-कूद-व्यायाम, स्नान, ध्यान, सन्ध्योपासन, स्वाध्याय, विद्यार्जन, निद्रा, सन्तानोत्पत्ति, सामाजिक व्यवहार एवं अन्य सांसारिक तथा नैसर्गिक सभी बातें और कार्य आ जाते हैं। इनमें भोजन का मुख्य और प्रधान विषय है, जिस पर विशेष विचार किया जाएगा। - डॉ. रामस्वरूप गुप्त
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