ओ3म् तेजोऽसि तेजो मयि धेहि वीर्यमसि वीर्यं महि धेहि बलमसि बलं मयि धेहि ओजोऽसि ओजो मयि धेहि मन्युरसि मन्युं मयि धेहि सहोऽसि सहो मयि धेहि॥ यजुर्वेद 19.9॥
शब्दार्थ- हे भगवन् ! आप तेजः असि = तेज स्वरूप हैं अतः मयि = मुझे/हम में तेजः = तेज को धेहि = स्थापित कीजिए। वीर्यमसि = हे प्रभो! आप वीर्यमय है मयि = मुझ में वीर्यम् = वीरता को धेहि = भरिये। हे शक्तिधाम आप बलमसि = बल के भण्डार हैं। मयि = मुझे बलम् = बल से धेहि = भरपूर कीजिए। शक्ति निधान आप ओजः असि = ओजस्वी हैं। अतः मयि = मुझे ओजः =ओज को धेहि = धारण कराइए। हे विवेक पुञ्ज! आप मन्युः असि = मनन युक्त रोषवान हैं अतः मयि = मुझमें मन्युम् = मनन रोष द्येहि = दीजिए। हे सर्वनियन्त्रक! आप सहः असि = सबको अपने नियन्त्रण में रखने वाले हैं, अतः मयि = मुझमें भी सहः = नियन्त्रण, अनुशासन- भावना धेहि = भरिए।
प्रसंग- संसार के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति सफलता ही चाहता है। सफलता का प्रथम पग, सोपान, आत्मिक बल, आत्मविश्वास, अपने ऊपर भरोसा ही है। अनेक बार अनेक प्रकार की बाधाएँ बीच-बीच में आ जाती हैं। तब व्यक्ति घबराकर डगमगाने लग जाता है। कई बार अनेक लोग तो इतने असमंजस में पड़ जाते हैं कि उन्हें उस स्थिति से निकलने का रास्ता ही नहीं सूझता। कुछ इससे तनाव में पड़ जाते हैं और कुछ तब आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसे सभी रोगों की एकमात्र औषधि आत्मविश्वास ही होता है और वह प्रभु के सहयोग से प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में मन को उभारने के लिए उसको प्रोत्साहित करना परम सम्बल बनता है। अतः आत्मिक बल को प्राप्त करने और मन को उत्प्रेरित करने की भावना देते हुए प्रस्तुत मन्त्र में प्रार्थना के सम्बल से आत्मविश्वास उभारा गया है।
व्याख्या- तेजोऽसि तेजो मयि धेहि। हे प्रभो! आप तेजः स्वरूप हो, मेरे अन्दर भी तेज धारण कीजिए। तेज का सबसे सुन्दर व प्रत्यक्ष प्रमाण सूर्य है। वह किस प्रकार से दूसरों को भी तेजस्वी बना रहा है, यह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। तभी तो सौरमण्डल में अनेक ग्रह-उपग्रह हैं, जो सूर्य के तेज से प्रभावित होकर जहाँ सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, वहाँ सूर्य की शक्ति से शक्ति भी प्राप्त कर रहे हैं। हे प्रभो ! यह तेजस्वी सूर्य भी आपके तेज से तेजस्वी है। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें ऐसी मति, शक्ति, धृति दीजिए कि हम सदा तेजस्वी बनने के ही पथ को अपनाएँ। ऐसे ही कार्य सर्वत्र करें, जिससे हम आगे से आगे भी तेजस्वी बनते चले जाएँ।
वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि। हे देव ! आप वीर्य (वीरता) स्वरूप हो, अतः हमें भी वीरता के स्रोत बनाइए। यह जो वीर्य (वीरता) की व्यवस्था है और उसके प्रभाव से विशेष कार्य होते हें, यह सारी व्यवस्था आपके संचालन में चल रही है। अतः ऐसी व्यवस्था के अनुपालन की हमें शक्ति दीजिए, जिससे हम वीर्य वाले बनकर वीरता के कार्य करने में सदा सक्षम हों।
वीर्य शरीर में खाए-पिए पदार्थों के परिपाक से रक्त-मांस-मज्जा-मेद-अस्थि जैसी धातुओं के रूप में परिणत होने पर सप्तम धातु के रूप में सामने आता है। परिपाक की सारी प्रक्रिया प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत आती है। प्राकृतिक व्यवस्था प्रभु की संचेतना से सफल होती है। अतः हे प्रभो ! आप हमें ऐसी शक्ति दीजिए, जिससे खाने-पीने में हम नियमित हों और सदा संयमित जीवन जिएँ। सदा ऐसे पदार्थ ही खाएँ-पिएँ और ऐसी अनुशासित भावनायुक्त हों, जिसके परिणामस्वरूप वीर्यवान होने में सफल हों।
बलमसि बलं मयि धेहि। हे बलों वाले ! हम भी बलवान् हों। बल देने वाले पदार्थ और उनसे बल प्राप्त करने की व्यवस्था आपके प्रबन्ध में ही चल रही हैं। अतः हम ऐसी प्रेरणा और उत्साह चाहते हैं कि बलशालियों के प्रशंसा भरे कार्यों को देखकर हम भी बलवान बनने का ही सदा प्रयास करें। कभी ऐसे असावधान न हों कि स्वयं ही अपने बल की हानि करने में लग जाएँ। क्योंकि बिना बल के कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। अतः हम सदा बल की प्राप्ति एवं वृद्धि के नियम पालन में निरत रहें।
ओजोऽसि ओजो मयि धेहि। हे परमदेव ! आप ओजः स्वरूप हैं, हमें भी ओज प्रदान कीजिए। हमारे व्यवहार में पग-पग पर अनेक पदार्थों को बर्तने पर उनका परिणाम, प्रभाव स्पष्ट रूप से सामने आता रहता है। कभी हम उनके स्थूल रूप को वर्तते हैं, तब और तरह का परिणाम व प्रभाव सामने आता है। कभी स्थूल की अपेक्षा मध्यम स्तरीय रूप को कूटकर या क्वाथ बनाकर सेवन करते हैं, तब उसका और ही तरह का स्वाद, रूप, गुण, परिणाम, लाभ सामने आता है।
हम कभी उस वस्तु के सूक्ष्म रूप को सेवन की दृष्टि से अर्क, भाव रूप में वर्तते हैं। तब और ही परिवर्तन सामने आते हैं। जैसे कि कभी सौंफ खाते हैं, कभी सौंफ को चाय रूप में लेते हैं और कभी सौंफ के अर्क या भाप का प्रयोग करते हैं। इन भौतिक पदार्थों की प्रक्रिया का परिणाम पृथक-पृथक रूप में सामने आता है। यह प्रक्रिया अपने प्रभाव की कहानी आप कहती है। ऐसे ही हे सारों के सार प्रभो! जैसे-जैसे हम आपके अभौतिक प्रभाव में आत्मिक रूप में आते हैं, तदनुरूप इसका प्रभाव हमारी आत्मा पर होता है। हे ओजस्विन! हमें ऐसा ओज दो कि हम आपके अमर ओज को लेने में सदा संलग्न रहें।
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। हमारे जीवन में बहुत सारी ऐसी बातें, कार्य होते हैं, जिनको देख-विचार करके हम अनुभव करते हैं कि यह इस-इस दृष्टि से ठीक नहीं है। इसमें तो स्पष्ट ही पक्षपात, अन्याय, शोषण है। तब हमें उसके प्रति रोष उभरता है। वह अच्छा नहीं लगता। सोचने पर हम कहते या अनुभव करते हैं कि इसको दण्ड मिलना चाहिए। यह विचारशीलता हमें यह अनुभव कराती है कि परमात्मा की रचना में दृश्यमान विषमता बिना कारण के नहीं है। सर्वज्ञ प्रभु तो पूर्ण न्यायकारी है। वह किसी से किसी प्रकार का पक्षपात या अन्याय नहीं करता।
प्रभु प्राकृतिक पदार्थों के रूप में जहाँ खुली देनें दे रहा है, वहाँ इस संसार में हम यह भी देखते हैं कि अनेक प्राणियों के शरीर में अपेक्षाकृत कोई कमी है तो किसी में कोई अभाव मिलता है। यह सब कर्मफलदाता उन-उन आत्माओं के कर्मों के आधार पर ही करता है। अतः हे प्रभो! जैसे आप अपराध करने वालों को उनके अपराध की मात्रा एवं भावना के अनुरूप ही दण्ड देते हो तथा रोष प्रकट करते हो, ऐसे ही हमें भी अपनी सामाजिक व्यवस्था चलाने के लिए इतनी योग्यता दो कि दोषी के दोष के अनुसार दण्ड देने का साहस हो। इसके साथ इस सारी भावना को सहने की शक्ति दो कि अपने दोष के अनुकूल दण्ड को सहें। तब दण्ड को देखकर आत्महीनता से गिड़गिड़ाएँ नहीं। किसी भी प्रकार से दण्ड से बचने का कोई रास्ता न अपनाएँ और न ही अहंकार में आग बबूला हों। अपितु अपने दोष अनुभव करते हुए अपने सुधार के लिए सहर्ष दण्ड को सहें, जिससे सामाजिक व्यवस्था ठीक ढंग से चले। हम आगे से अच्छी राह पर चलने का यत्न करें।
सहोऽसि सहो मयि धेहि। हे शक्तिशालिन! आप अपने संसार को सम्यक् प्रकार से चलाने के लिए हर पदार्थ को अपने नियन्त्रण में संसार को सम्यक् प्रकार से चलाने के लिए हर पदार्थ को अपने नियन्त्रण में रखते हो। किसी को भी किसी व्यवस्था से बाहर नहीं होने देते। ऐसे ही हमें भी ऐसी शक्ति, योग्यता, साहस दो कि इन व्यवस्थाओं की उपयोगिता को समझकर उनको सहें, मानें। कभी भी किसी प्रकार से नियन्त्रण, व्यवस्था से बाहर, उल्लंघन की स्थिति में न हों। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | वेद कथा - 88 | वेद कथा - 89 | अन्तिम समय में अपने कर्मोँ को याद करो । कर्म योग का रहस्य | Explanation of Vedas