महर्षि दयानन्द अपने देश पर कितना अभिमान करते थे और उसको कितना ऊंचा स्थान देते थे, इसकी झलक उनके इन विचारों से मिलती है- “यह आर्यावर्त देश ऐसा है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है, क्योंकि यही सुवर्ण आदि रत्न को उत्पन्न करती है। भूगोल में जितने देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है, जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।’’ (सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लास)
इस देश के वासी होते हुए भी जो लोग अपनी भाषा और संस्कृति के स्थान पर विदेशी भाषा और संस्कृति को अपनाते हैं, उनकी महर्षि इन शब्दों में भर्त्सना करते हैं- “उन लोगों में स्वादेशाभिमान बहुत न्यून है। भला जब आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न-जल अब तक खाया-पीया है और अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता व पितामह आदि को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाते हैं और इस देश की संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान प्रकाशित करना तथा इंग्लिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटित एक मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्य का स्थिर बुद्धिकारक काम क्यों कर हो सकता है।’’ स्वदेश, स्वभाषा तथा स्वधर्म से प्रेम और अपने पूर्वजों के लिए गौरव एवं अभिमान महर्षि दयानन्द में कूट-कूटकर भरा था।
कितने दुःख, व्यथा और वेदना के साथ आप लिखते हैं कि - “विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने का कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषण आदि कुलक्षण, वेद विद्या का अप्रचार आदि हमारी अधोगति के कारण हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। आपस की फूट से कौरव-पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वह रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा या आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डूबो मारेगा। उसी दुष्ट मार्ग से आर्य लोग अब तक भी दुःख बढ़ा रहे हैं। परमात्मा कृपा करे कि यह राज रोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाये। जब तक एक मत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न माने, तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।
स्वदेशी का महत्व- “देखो! अंग्रेज लोग अपने देश के बने हुए जूते को कार्यालय (ऑफिस) और कचहरी में जाने देते हैं तथा देशी जूते को नहीं। इतने से ही समझ लो कि वे अपने देश के बने जूतों की जितनी मान-प्रतिष्ठा करते हैं, उतनी अन्य देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते। देखो! कुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में यूरोपियनों को आये हो गए। आज तक वे लोग मोटे कपड़े आदि पहिनते हैं, जैसा कि स्वदेश में पहिनते थे। उन्होंने अपने देश का चाल-चलन नहीं छोड़ा। और तुममें से बहुत लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया। इसी से तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। अनुकरण करना किसी बुद्धिमानी का काम नहीं।’’
भारतीयों को उनके गत गौरव का बोध कराते हुए महर्षि ने लिखा था कि हमारा देश प्राचीन समय में विदेशी शासकों के अधीन नहीं रहा था, अपितु हमारे देश के शासकों का ही सर्वत्र सार्वभौम राज्य था और अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे। महर्षि ने इस विषयक विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किए हैं- “स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवों पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात् परस्पर के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये। क्योंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता।’’
स्मरण रहे कि महर्षि दयानन्द ने अंग्रेजों के विरोध में ये विचार उस समय व्यक्त किये थे, जब उनके शासन का सूर्य मध्याह्न तक पहुंचा हुआ था और उस समय के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को दानवी दमन से दबाकर सर्वत्र भय और आतंक की अवस्था उत्पन्न कर दी गई थी। इसीलिए महर्षि दयानन्द सरस्वती को देश में राष्ट्रीयता का भाव भरने वाला प्रथम महापुरुष माना जा सकता है। - आचार्य डॉ. संजयदेव
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