कुछ लोग इस संसार में आते हैं केवल अपने लिए तथा जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को पूरा करते हुए कूच कर जाते हैं । लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो औरों के लिए जीते तथा और औरों के लिए मरते हैं। उन्हें अपने देश की मिट्टी से उतना ही प्रेम होता है, जितना जन्म देने वाली माँ से।
ऐसे महान् लोगों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद । उन्होंने वतन की खातिर जो किया, इस बात की कहानी इतिहास का हर पन्ना कह रहा है । कौन जानता था यह गुदड़ी का लाल भारत माँ का सच्चा सपूत कहलायेगा, वतन की खातिर अपनी जान पर खेल जायेगा।
23 जुलाई 1906 को भारत माँ के इस सपूत ने मध्य प्रदेश के भाभरा गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया । बचपन से ही साहस का परिचय देकर पूत के पैर पालने वाली कहावत चरितार्थ कर दी । 12 वर्ष की अल्पायु में ही आजाद वतन का सिपाही बनकर घर छोड़कर काशी भाग गये और राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हो गये । 1912 में एक सत्याग्रह करते वक्त जोश में आकर भीड़ पर लाठी बरसा रहे एक अंगे्रज सिपाही का सिर फोड़ दिया। यहीं से उनके दिल में जल रही आग ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसी केस में उन्हें गिरफ्तार किया गया तथा जेल भेज दिया गया। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी।
पहली बार उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया । कटघरे में खड़े आजाद से मजिस्ट्रेट ने कुछ प्रश्न किए मजिस्ट्रेट ने पूछा, तुम्हारा नाम......?
मेरा नाम आजाद है, आजाद ने कड़ककर जवाब दिया । मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा, तुम्हारे पिता का नाम ?
प्रश्न पूरा होने से पहले ही आजाद का जवाब था, स्वतंत्र । मजिस्ट्रेट ने फिर आगे पूछा, तुम्हारा घर कहाँ है? आजाद ने सरल स्वभाव से कह दिया, जेलखाना।
मजिस्ट्रेट आजाद के उत्तरों से क्षुब्ध हुआ । कड़ककर बोला, इसे 15 बेंत मारे जायें । बदले में आजाद मुस्कुरा दिये।
आजाद को पहला बेंत मारा गया, तो उनके मुंह से निकला ‘ जय भारत माँ ’ और हर बेंत के साथ आजाद की आवाज बुलन्द होती चली गई। आजाद के जिस्म से खून बह निकला था, पर भारत माँ की जय जयकार बन्द न हुई।
20 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन लाहौर आया, तो उसके खिलाफ प्रदर्शन हुआ । लाला लाजपत राय उस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे। अंगे्रज पुलिस ने उन पर लाठियाँ बरसाई । लालाजी बुरी तरह घायल हो गये तथा 17 नवम्बर 1928 को उनका देहान्त हो गया। अब आजाद ने नई योजना बनाई। 15 दिसम्बर 1928 को मौका पाकर उस अंगे्रज अधिकारी को आजाद, भगत तथा बटुकेश्वर दत्त ने गोलियों से उड़ा दिया।
8 अप्रैल 1929 को अंगे्रज सरकार को बौखला देने के लिए असेम्बली की धारा सभा गैलरी में बम फेंका। इसमें भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव इन्कलाब जिन्दाबाद तथा भारत माता की जय के नारे लगाते हुए पकड़े गये। उन्हें 23 मार्च को फांसी दे दी गई।
अब आजाद का खून खौल उठा। वे सहायता के लिए चीन जाने की तैयारी करने लगे। 27 फरवरी 1931 को चीन जाने के लिए अल्फ्रेर्ड़ पार्क में बैठकर अपने दोस्तों से विचारमग्न थे।
यकायक पूरे पार्क को पुलिस ने घेर लिया । आजाद ने अपने दोस्तों को भाग जाने को कहा । लम्बे संघर्ष के बाद जब आजाद की पिस्तौल में अन्तिम गोली थी, स्वयं को भी आजाद कर लिया। उनके अदम्य साहस व चातुर्य से डरकर आजाद के मृत शरीर को भी पुलिेस ने लम्बे इंतजार के बाद छुआ । औरों के लिए जीने वाला यह मसीहा दुनिया छोड़ गया । - राजेन्द्र स्वामी
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