ओ3म् त्रितः कूपेऽवहितो देवान् हवत ऊतये।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी॥ (ऋग्वेद 1.105.17)
शब्दार्थ- (कूपे अवहितः) कुएँ में पड़ा हुआ (त्रितः) त्रित (ऊतये) अपनी रक्षा के लिए (देवान्) विद्वानों को (हवते) पुकारता है। वह कहता है- (रोदसी) हे स्त्री-पुरुषो! मे (अस्य वित्तम्) मेरे इस दुःख को जानो, मेरे कष्टों का अनुभव करो (अंहूरणात्) चारों ओर से आघात करने वाले पाप और सन्ताप से बचने के लिए (उरु कृण्वन) प्रचण्ड प्रयत्न करते हुए उसकी (तत्) उस पुकार को (बृहस्पतिः) सर्वलोकों का स्वामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु (सुश्राव) सुनता है।
भावार्थ- कुछ लोग वेद में इतिहास खोजा करते हैं। ऐसे व्यक्ति इस मन्त्र में त्रित का इतिहास बताते हैं। वस्तुतः इस मन्त्र में किसी व्यक्ति विशेष का इतिहास नहीं है। आइए, तनिक देखें यह त्रित कौन है?
आध्यात्मिक, आधभौतिक और आधिदैविक तीन दुःख हैं। इन तीन दुःखों में फँसा हुआ जीवात्मा ही त्रित है । मन्त्र में वर्णित त्रित कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। ऐसे त्रित पहले भी हुए हैं, अब भी हैं और आगे भी होंगे।
कूप क्या है? यह संसार ही कूप है। त्रिविध तापों से बद्ध जीवात्मा संसाररूपी कुएँ में पड़ा हुआ है। इस कुएँ से निकलने के लिए वह देवों को, ज्ञानी गुरुओं को पुकारता है। संसार के स्त्री-पुरुषों को अपनी करुणाभरी कहानी सुनाता है।
इस कूप से निकलने के लिए तथा त्रिविध तापों से छूटने के लिए जब वह घोर परिश्रम करता है तब ज्ञानी गुरु उसकी पुकार सुनता है और उसे मार्ग बताता है। तदनुसार आचरण करता हुआ मनुष्य इस कुएँ से निकल आता है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- फरवरी 2014)