ओ3म् न तं विदाथ च इमा जजान अन्यद् युष्माकं अन्तरं बभूव।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति॥ (ऋग्वेद 10.82.7, यजुर्वेद 17.31)
ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः॥ देवता विश्वकर्मा॥ छन्दः पादनिचृत्रिष्टुप्॥
विनय- हे मनुष्यो ! तुम उसे नहीं जानते जिसने कि ये सब भुवन बनाये हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है! तुम्हारा वह पिता है, पर तुम अपने पिता से जुदा (अन्यत्) हो गये हो, तुम्हारा उससे बहुत फर्क पड़ गया है। ओह! कितना भारी अन्तर हो गया है! मनुष्य का तो उसके प्रभु के साथ अन्तर नहीं होना चाहिए। वह प्रभु तो हम मनुष्यों की आत्मा की भी आत्मा है। उससे अधिक निकटतम वस्तु तो हमसे और कोई है ही नहीं, हो ही नहीं सकती। सचमुच वे परम आत्मा हमारी आत्मा में भी व्यापक हैं। उनसे निकट हमारे और कोई नहीं है। फिर भी हमसे दूर क्यों हैं? इसका कारण यह है कि हमारे और उनके बीच में प्रकृति का परदा आ गया है। हम दो प्रकार के परदों में ढके हुए हैं, जिससे कि वह इतना निकटस्थ भी हमसे इतना दूर हो गया है। एक प्रकार के (तमोगुण-बहुल) लोग तो ‘नीहार’=अज्ञान से ढके हुए हैं जिसकी धुन्ध में इतने पास में भी उन्हें देख पाते।
दूसरे (रजोगुण-बहुल) लोगों ने ‘जल्पि’ से, विद्या के शब्दाडम्बर से, पढी-लिखी मूर्खता से निरर्थक जल्पना के परदे से अपने-आपको ढक लिया है। ये दोनों प्रकार के मनुष्य अपनी-अपनी दिशा में इतनी दूर बढ़ते गये हैं कि प्रभु से दिनों-दिन दूर होते गये हैं। नीहारवृत लोग तो संसार में ‘असुतृप्’ होकर विचर रहे हैं। वे खाते-पीते मौज करते हुए निरन्तर अपने प्राणों के तर्पण करने में ही लगे हुए हैं। कामनाओं-इच्छाओं का निवास मनुष्य के सूक्ष्म प्राण में ही है। ये ज्यों-ज्यों अपनी बढ़ती जाती हुई अनगिनत कामनाओं को तृप्त कर अपनी इन कामनाओं को पुष्ट करते हैं, त्यों-त्यों ये प्रभु से दूर होते जाते हैं। इसी तरह दूसरे जल्पावृत लोग ‘उक्थशास्’ होते हैं, अर्थात् संसार में बड़े-बड़े शास्त्र पढ़कर, वादविवाद-वितण्डों में चतुर होकर, दूसरों को जोरदार व्याख्यान देते फिरते हैं, पर अपने-आपको नहीं पहचानते। ये जितने भारी वक्ता, लेखक और शास्त्रार्थकर्ता होते जाते हैं उतने ही ये बाह्य शब्दजाल में ऐसे उलझते हैं कि अन्दर के देखने के अयोग्य होते जाते हैं, अतः अन्दर के आत्मस्थ प्रभु से दूर होते जाते हैं।
इसलिए आओ, हम लौटें। अपने अन्दर की तरफ लौटें और अपने उस आत्मा के आत्मा को पा लेवें जिसके साथ हमें निरन्तर जुड़ा रहना चाहिए।
शब्दार्थ- हे मनुष्यो! तं न विदाथ=तुम उसे नहीं जानते य इमा जजान=जिसने कि इन सब (भुवनों) को बनाया है। अन्यत्=तुम अन्य प्रकार के हो गये हो और युष्माकं अन्तरं बभूव=तुम्हारा उससे बहुत फर्क हो गया है। नीहारेण=अज्ञान के कोहरे से प्रावृताः=ढके हुए और जल्प्या च=अनृत और निरर्थक शब्दजाल से ढके हुए हम मनुष्य असृतृपः=प्राणतृप्ति में लगे हुए होकर या उक्थशासः=आडम्बर वाले बहुभाषी होकर चरन्ति=भटकते हैं। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- जनवरी 2014)