शतपथ ब्राह्मण के अनुसार भोजन में खाद्य तथा पेय दोनों का महत्व है। खाद्य तथा पेय दोनों मिलकर ही भोजन को सरस बनाते हैं-
सं सृष्टा भवन्त्यथैव धिन्वन्ति तर्हि हि सरसा भवन्ति॥73
भोजन का उद्देश्य आनन्द तथा तृप्ति है-
तृप्तिरेवास्य गतिः। तस्माद्यदाऽन्नस्य तृप्यत्यथ स गतऽइव मन्यतऽआनन्दऽएवास्य विज्ञानमात्मा॥74
तृप्ति का मतलब ठूंस-ठूंसकर खाना नहीं है, अपितु सन्तुलित भोजन करना है। जो भोजन शरीर के अनुपात से खाया जाता है, वह रक्षा करता है, जबकि अधिक खा जाने से हानि होती है तथा कम खाने से भी रक्षा नहीं होती। इसलिए सन्तुलित भोजन पर बल दिया गया है-
यदु वाऽआत्मसम्मितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति यद्भूयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति॥75
यजुर्वेद में उल्लेख है कि जो बलादि को धारण कराने वाले खाद्य पेय रूप महौषधियों के रस को ग्रहण करते हैं, वे पवित्र होते हैं तथा बल को प्राप्त करते हैं। जो यह क्या, वह क्या इस प्रकार केवल कहता ही रहता है, वह कुछ भी नहीं पाता है-
सिञ्चन्ति परि षिञ्चिन्त्युत्सिञ्चिन्ति पुनन्ति च।
सुरायै बभ्रवै मदे किन्त्वो वदति किन्त्वः॥76
सुख, ऐश्वर्य तथा विद्या से युक्त व्यक्ति को अच्छे प्रकार संस्कारित किए हुए धान्य अन्नों से युक्त तथा अच्छी प्रकार बनाए गए माल पुए आदि से युक्त और उत्तम वाक्यों से प्रशंसित एवं स्तुति किए गए भोजन रसादि पदार्थों का सेवन करना चाहिए-
धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्।
इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः॥77
भोजन हर दृष्टि से हितकारी एवं स्वास्थ्यप्रद होना चाहिए। वैदिक मनीषी गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते समय ही वर-वधू को पौष्टिक भोजन का संकेत कर देते थे, ताकि उनका स्वास्थ्य उत्तम रहे तथा सन्तान भी स्वस्थ पैदा हो।
वैदिक विवाह संस्कार के आरम्भ में वधू द्वारा वर का मधुपर्क देकर स्वागत किया जाता है। वर, मधुपर्क को ग्रहण करके उसकी तरफ देखते हुए कहता है कि तुझे मित्र की दृष्टि से देखता हूँ- मित्रस्य त्वा चक्षुषा प्रतीक्षे॥78
मधुपर्क में दही, शहद तथा घी ये तीन पदार्थ होते हैं। भोजन विशेषज्ञों का कहना है कि दीर्घ जीवन के लिए दही बहुत उत्तम पदार्थ है। शहद भी कार्बोहाइड्रेट्स में सर्वोत्तम खाद्य पदार्थ है। घी भी शरीर की पुष्टि करता है। भोजन का उद्देश्य पुष्टि तथा शक्ति प्राप्त करना है। इसलिए यजुर्वेद में कामना की गई है कि हमें रोगरहित एवं पौष्टिक अन्न प्राप्त हो, हमारे सन्तानादि तथा पशुओं आदि को भी बलवर्धक अन्न प्राप्त हो-
अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥79
शतपथ ब्राह्मण में छः रसों से युक्त भोजन का उल्लेख है-
षड्विधमन्नं कृत्वाऽअस्मऽअपिदधाति॥80
अन्य व्यावहारिक गुणों के अतिरिक्त एक आदर्श पत्नी का कर्त्तव्य अपने पति एवं परिवार के लिए शुद्ध तथा पौष्टिक खाद्य पदार्थ पकाना भी है। एक आदर्श गृहिणी वही हो सकती है, जो अपने पूरे परिवार के स्वास्थ्य का ध्यान अति सावधानीपूर्वक रखते हुए उत्तम खाद्य-पदार्थ बनाए। यथा-
ताऽअस्य सूददोहसः सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः।
जन्मन्देवानां विशस्त्रिष्वा रोचने दिवः॥81
अर्थात् जो कोमल शरीर तथा सूक्ष्म अङ्गों से युक्त स्त्री दूसरे विद्यारूप जन्म में विदुषी होकर दिव्य विद्वान् पतियों की इस दिव्य गृहाश्रम में उत्तम रसोइया आदि के सहयोग से उत्तम औषधियों के रस से युक्त भोजन पकाती हैं, वे अच्छे रुचिकारक व्यवहार में तीनों अर्थात् भूत-वर्तमान-भविष्यकाल में सुख देने वाली होती हैं तथा उत्तम सन्तानों को भी प्राप्त करती हैं।
आशय यह है कि वे ही उत्तम विद्वान हैं, जो रोगों का नाश करके शरीर तथा आत्मा के बल को बढ़ाते हैं। आदर्श तथा चतुर पत्नी भी वही है, जो अपने पति एवं परिवार के सुख के लिए आरोग्यवर्धक एवं सुसंस्कारित अन्न को पकाती है। आरोग्यवर्धक, सुसंस्कारित एवं पौष्टिक अन्नों के सेवन से ही गृहस्थ लोग उत्तम सन्तान को प्राप्त हो सकते हैं। तथा सदा सुखी रह सकते हैं। भोजन पकाने वाले रसोइये आदि चतुर एवं शुद्धि रखने वाले होने चाहिएं। शुद्ध पका तथा अच्छे पाककर्ता का पकाया हुआ खाद्य पदार्थ ही सेवन करने योग्य है, तभी सुख, आरोग्य एवं आयु की वृद्धि हो सकती है। निम्न मन्त्रों में ‘पाककर्ता’ कैसे हों, इस विषय का उल्लेख है-
यस्तेऽद्य कृणवद्भद्रशोचेऽपूपं देव घृतवन्तमग्ने।
प्र तं नय प्रतरं वस्योऽअच्छाभि सुम्नं देवभक्तं यविष्ठ॥82
हे दीप्ति से युक्त युवावस्था वाले दिव्य भोगों से युक्त विद्वान पुरुष! जो आपका घृत पदार्थों से संयुक्त, उत्तम सुखदायक, विद्वानों के सेवन योग्य अत्यन्त स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ बनावे, ऐसे पाचक को आप रखिए।
सिनीवाली सुखपर्दा सुकुरीरा स्वौपशा।
सा तुभ्यमदिते मह्योखां दधातु हस्तयोः॥83
हे सत्कार के योग्य अखण्डित आनन्द भोगने वाली स्त्री! जो प्रेम से युक्त, अच्छे केशों वाली, सुन्दर श्रेष्ठ कर्मों को करने वाली तथा स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ बनाने वाली जो पाककर्त्री जिस तेरे लिए हाथों में दाल आदि पकाने की बटलोई को धारण करे उसका तू सेवन कर।
यजुर्वेद वाङ्मय में मांस खाने को अच्छा नहीं माना गया है। स्थान-स्थान पर मांसाहार की निन्दा की गई है। यजुर्वेद में उल्लेख है-
निष्क्रव्यादं सेधा॥84
अर्थात् मांसाहारी की उपेक्षा कर, निषेध कर।
सन्दर्भ सूची-
73. शतपथ ब्राह्मण 3.6.1.7
74. शतपथ ब्राह्मण 10.3.5.13
75. शतपथ ब्राह्मण 10.4.1.3
76. यजुर्वेद संहिता 20.28
77. यजुर्वेद संहिता 20.29
78. पारस्कर गृह्यसूत्र 1.3.16
79. यजुर्वेद संहिता 11.83
80. शतपथ ब्राह्मण 10.4.1.14
81. यजुर्वेद संहिता 12.55
82. यजुर्वेद संहिता 12.26
83. यजुर्वेद संहिता 11.56
84. यजुर्वेद संहिता 1.16
85. शतपथ ब्राह्मण 3.1.2.21 (क्रमशः) - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- फरवरी 2013) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध