ओ3म इन्द्र क्रतुं न आ भर पिता पुत्रेभ्यो यथा।
शिक्षा णो अस्मिन् पुरुहूत यामनि जीवा ज्योतिरशीमहि॥ ऋग्वेद 7.32.26।
शब्दार्थ- इन्द्र = हे ऐश्वर्यवान ! नः = हममें क्रतुम् = ज्ञान, तदनुरूप कर्म को आ भर = पूर्ण कीजिए। यथा = जैसे पिता = पालन भावना से भरा हुआ पुत्रेभ्यः = अपने पुत्रों को ज्ञान देकर कार्य के लिए प्रेरित करता है। पुरुहूत = बहुतों से अधिक पुकारे जाने वाले ! अस्मिन् यामनि = इन अन्धकारमयी स्थितियों में नः = हमें शिक्षा = शिक्षित कीजिए और हम जीवाः = जीवन जीने की चाहना रखने वाले ज्योतिः = प्रकाश का अशीमहि = सम्यक् प्रयोग करने में सक्षम हों।
भाव तरंग- एक संसारी पिता अपनी सन्तान की सफलता चाहता हुआ उनको सफलता के मार्ग के लिए प्रेरित करता है। मार्ग की ऊँच-नीच को समझाता है। ऐसे दिशा-निर्देश देता है, जिससे किसी प्रकार के विघ्न मध्य में न आएँ। उसी प्रकार हम भी चाहते हैं कि आप तो ऐसे परमपिता हैं, जो पूर्णतः सर्वज्ञ हैं। अतः आप से कुछ भी ओझल नहीं है। संसारी पिता तो बहुत थोड़ी तरह के ऐश्वर्यों से सीमित मात्रा में ही युक्त होता है। आप तो यहाँ जगत् पिता हैं, वहाँ पूर्णतः इन्द्र हैं। कौनसा संसार में अपेक्षित ऐश्वर्य है, जिससे आप भरपूर नहीं हैं!
किसी प्रकार के ऐश्वर्य की आपमें न्यूनता नहीं है। अतः आप ज्ञान और तदनुरुप क्रिया से सर्वथा सम्पृक्त हो। अतः आपसे ही बारम्बार प्रार्थना करते हैं कि हमें भी ज्ञान और तदनुरुप क्रिया से सम्पन्न करो। आप प्रत्येक प्राणी के सदा से सर्वत्र पिता हैं। अतः सभी जीव अपने अपनत्व के कारण आपको पुकारते हैं। सर्वाधार होने से आप ही तो सबके आश्रय स्थल हैं। अतः हे सर्वसामर्थ्यवान! हमें इस अन्धकारमयी स्थिति में, रात्रि में शिक्षित कीजिए, जिससे हम जीव प्रकाश या ज्योति से युक्त होकर अपने जीवन को जगमगा सकें। ज्योति की जगमगाहट की हममें किसी प्रकार की कमी न हो। जैसे घनघोर अन्धकार में कुछ भी दिखाई नहीं देता है, तब व्यक्ति केवल शून्यता, अभवा ही अनुभव करता है। ऐसे ही हमारे जीवन में अनेक बार ऐसी स्थिति आती है, जब हमें कोई स्पष्ट समाधान नहीं सूझता। हम दुविधा में अपने आपको डूबता हुआ अनुभव करते हैं। ऐसी स्थिति में विशेष रूप से सबसे पुकारे जाने वाले! हमें तब ऐसी प्रकाशमयी ज्योति दर्शाओ कि हमारा सन्देह दूर हो जाए। हम स्पष्ट संज्ञान प्राप्त करके निःसंशय के साथ कर्म में प्रवृत्त हों। आपकी प्रेरणा के तेज से तेजस्वी होकर लक्ष्य की ओर आगे से आगे बढ़ें। लक्ष्य प्राप्ति के सन्तोष से आश्वस्त हो जाएँ।
हे प्राकृतिक व्यवस्थाओं के व्यवस्थापक! आपने मनुष्यों में विशेष रूप से ऐसी व्यवस्था की हुई है कि वह सिखाने वाले के सिखाने से शिक्षित हो जाता है। तब वह करत-करत अभ्यास से दक्ष होकर कार्य करने में, लक्ष्य पर पहुँचने में समर्थ हो जाता है। इस परम्परा के अनुरूप हमें ऐसा पारंगत बनाओ कि हम अपने जीवन में जगमगा जाएँ।
विशेष- यहाँ पिता-पुत्र की उपमा में पिता शब्द जनक, जनिता की अपेक्षा गुरु अर्थ में अधिक जँचता है, क्योंकि यहाँ के शब्द हैं- क्रतुं न आ भर (क्रतु=ज्ञान, कर्म), शिक्षा णो अस्मिन् यामनि जीवा ज्योतिरशीमहि। यह कार्य गुरु से विशेष सम्बद्ध है। वैदिक वाङ्मय, मनुस्मृति, निरुक्त आदि में गुरु को भी पिता कहा गया है। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | आचार्य चाणक्य का अखंड भारत | जय हिन्द | मेरा भारत देश | वेद कथा - 1 - 2 | गौरवशाली महान भारत - 2