मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम में जहाँ अन्यान्य गुणों का विकास हुआ था, वहीं सुयोग्य सम्राट् बनने के लिए नितान्त आवश्यक प्रजानुरंजन का गुण उनमें प्रजाराधन की सीमा तक पहुँचा हुआ था। वे आदर्श नृपति की भाँति केवल प्रजा का पालन ही नहीं करते थे, अपितु प्रजा को अपना आराध्य मानकर उसके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को भी तत्पर रहते थे। राजनियम भंग करने पर वे पक्षपात करना नहीं जानते थे। वे समदर्शी थे और उनके सम्बन्ध में प्रसिद्ध था- पौरान् स्वजनवन्नित्यं कुशलं परिपृच्छति। अपने स्वजनों की भाँति वे नगरवासियों से भी प्रतिदिन उनका कुशल पूछा करते थे। यही कारण था कि समस्त पुरवासी प्रतिदिन दोनों समय श्रीराम के कल्याण की कामना करते थे।
इससे पूर्व वह भी समय था कि जब अयोध्या के राजा क्रमशः कर्त्तव्यच्युत होते गये। जब रावण के राक्षसों से अपनी सुरक्षा के लिये विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आये तो मुख से सहसा निकल गया कि “मैं युद्ध में दुष्ट रावण के सम्मुख नहीं ठहर सकता। यहाँ तक कि मैं उसकी सेना से भी युद्ध नहीं कर सकता।’’ किन्तु विश्वामित्र तो दशरथ को नहीं अपितु राम और लक्ष्मण को लेने के लिए आये थे। यह सुनकर तो दशरथ मोहाच्छन्न हो गए। जब महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें समझाया, तब विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जा सके। अपने आश्रम में पहुँचकर विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को राक्षसों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों से परिचित कराते हुए उनके हृदय में ऐसे दिव्य भाव भी भर दिये थे जो आजीवन स्थिर रहे।
आदिकाल से ही यही प्रथा सी रही कि जो व्यक्ति तपस्वी अथवा वनवासी बनता है, वह उत्तराखण्ड की ओर ही मुख करता है। किन्तु कैकेयी राम के लिये जब वनवास माँगती है तो कहती है- नवपंच च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः। राम चौदह वर्ष तक दण्डकारण्य में निवास करें। इस प्रकार राम दक्षिण पथ की ओर अग्रसर किये गये।
किशोरावस्था में विश्वामित्र ने राम के भीतर जो भाव भरे थे उनके ही आधार पर राम ने बाली से कहा था- इक्ष्वाकूणां ह्ययं सशैलवनकानना। उस समय राम के मन में एक ही चिन्ता थी कि किसी प्रकार सम्पूर्ण आर्यावर्त्त को एक बार पुनः आर्य संस्कृति की पताका के नीचे लाना है। कैकेयी राम की कामना को समझते हुए यह भी जान गई थी कि यह गौरवशाली राज्य शीघ्र ही ध्वस्त होने वाला है। उन्हें राम से आशा थी। उन्हें राम में वह शक्ति दिखाई दे गई कि जिसके बल पर वे बाली और रावण का संहार कर सकते थे। अपनी योजना को फलीभूत देखने के लिए उनको अपमान और प्रजा की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी। फिर भी राम के लिए वनवास मांगकर उन्हें राज्यबन्धन से मुक्ति दिला दी। यही कारण है कि जब-जब लक्ष्मण माता कैकेयी के प्रति क्रुद्ध होते तब-तब राम उनको वर्जने के लिए कहते- न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन। अर्थात् तुमको मझली माता की कदापि निन्दा नहीं करनी चाहिये।
राम की धीरता के विषय में महर्षि वाल्मीकि ने लिखा-
आहुतस्याभिषेकार्थं वनाय प्रस्थितस्य च।
न लक्षितो मुखं तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः॥
राज्याभिषेक की सुखद आज्ञा से न तो उनके मुख पर प्रसन्नता के चिह्न दिखाई दिये और राज्य के बदले वनवास की आज्ञा मिलने पर न ही उनके मुख पर विषाद के चिह्न दिखाई दिये।
रावण के मरने पर विभीषण को बड़ी प्रसन्नता हुई। यहाँ तक कि विभीषण रावण की अन्त्येष्टि को भी उद्यत नहीं था। उस समय राम ने विभीषण को जो उपदेश दिया वह राम जैसे मर्यादित पुरुष द्वारा ही दिया जा सकता था। राम ने कहा “विभीषण! वैर विरोध मरण तक हुआ करता है। मरणान्तानि वैराणि। हमारा प्रयोजन अब सिद्ध हो चुका है। अब तुम इसकी राजोचित अन्त्येष्टि करो, यही तुम्हारा और मेरा भी कर्त्तव्य है।’’
राम के मन में गुणों की प्रतिष्ठा थी और वे चाहते थे कि मनुष्य जाति की भलाई के लिए उस विद्या का संचय किया जाए जो रावण के पास थी। इसलिए राम ने अपने भाई लक्ष्मण को मरणासन्न रावण के पास विनयपूर्वक उस विद्या के अर्जन के लिए भेजा और लक्ष्मण ने रावण के पैंताने खड़े होकर रावण से वह विद्या अर्जित की।
मित्र के प्रति राम बड़े संवेदनशील थे। यही कारण है कि सुग्रीव लंका युद्ध के समय राम को सूचित किये बिना रावण के शिविर में जाकर उसको जली-कटी सुनाकर लौट आए तो राम ने उनसे कहा- “ऐसा दुस्साहस करना राजा को शोभा नहीं देता। यदि तुम्हें कुछ हो जाता तो!’’ एक और समय पर जब लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े थे, राम के मन में इससे बड़ी खिन्नता हो रही थी। उस समय जहाँ उन्हें अन्य अनेक कार्यों के अधूरा रह जाने का क्षोभ था वहाँ उनको यह दुःख था- यन्मया न कृतो राजा लंकायाः विभीषणः। मैं विभीषण को लंका का राजा नहीं बना सका।
बालि ने मरते समय राम से अपने पुत्र अंगद के संरक्षण की प्रार्थना की। राम ने उसको कहा कि वे उससे पुत्रवत् स्नेह करेंगे। इस वचन का उन्होंने आजीवन पालन किया। ‘हनुमन्नाटक’ में लिखा है कि लंका विजय के बाद जब विजयोत्सव मनाया जा रहा था तो उस समय अंगद ने कहा- “बन्द करो यह सब। यह विजय अधूरी है। जिसे आप अपनी सफलता समझ रहे हैं, वह सफलता मेरी है। मेरे पिता के दो शत्रु थे- एक रावण और दूसरे आप। मेरा कर्त्तव्य है कि मैं अपने पिता की भावना का सम्मान करूँ। अतः आपको पूर्ण सहयोग देकर अपने पिता के एक शत्रु रावण को मैंने समाप्त कर दिया है। किन्तु जब तक मैं आपको नहीं पराजित कर लेता तब तक पितृऋण से उऋण नहीं हो सकता। अतः आपका और मेरा युद्ध होगा, उसके बाद जो विजयी होगा वही विजयोत्सव मनाने का अधिकारी होगा।’’ उस समय राम ने न तो अंगद को ललकारा और न फटकारा। उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, “मैं इसे तुम्हारी विजय ही मानता हूँ। मैंने तुम्हारे पिता को तुम्हें पुत्रवत् मानने का वचन दिया था। इस प्रकार तुम मेरे पुत्र हो और शास्त्रों का वचन है- सर्वस्माज्जयमिच्छेत् पुत्रादिच्छेत् पराजयम्। अन्यों से भले ही विजय की कामना करो किन्तु पुत्र से अपनी पराजय की कामना करो। यह भी मर्यादा पालन का अनन्य उदाहरण है। ऐसे पिता पर कौन प्रजारूपी पुत्र अपने प्राण न्यौछावर नहीं करेगा ?
राम के सभी रूप मर्यादित और लोकरंजनकारी हैं। आदर्शपुत्र के रूप में वे कौशल्या के आनन्दवर्द्धक और दशरथ के आज्ञापालक हैं। बालक के रूप में अनुजों और सखाओं तथा पुरवासियों के परमप्रिय हैं। किशोर रूप में मुनियज्ञ में बाधक राक्षसों के संहारक हैं। विश्वामित्र के शब्दों में वे मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों तक को अपने स्वभाव एवं शील से सुख देने वाले हैं। तभी तो उनके वन जाते समय न केवल मानव प्रजा अपितु उनके घोड़े तक भी अति विकल दिखाई देते हैं। वन जाते हुए मार्गस्थ ग्रामों के नर-नारियों की भी वे चिन्ता करते हैं। निषादराज को अपना मित्र बनाते हैं, शबरी के बेरों की सराहना करते नहीं अघाते, वन्य जनों को अपना सखा एवं सहायक बना लेते हैं। उनकी सहायता से राक्षसराज रावण का विनाश करते हैं और लंका में सुशासन की स्थापना करते हैं।
राम लोकसत्ता और लोकमत में गहन आस्थावान हैं। लोकरंजक एवं मर्यादापालक आदर्श राजा के जो गुण मानव कल्पना में आ सकते हैं वे सब राम थे। राम का यह काव्यमय चरित अभिनन्दनीय होने के साथ-साथ सदा-सर्वदा अनुकरणीय माना गया है और आज के युग में तो उसकी नितान्त आवश्यकता है। हमने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के साथ-साथ आदर्श भी माना है किन्तु आज उस आदर्श के अनुकरण में प्रमाद और शिथिलता दिखाई दे रही है, यही हमारे अधःपतन का कारण है। यदि इस ओर ध्यान दिया जाए तो स्थिति पलट सकती है। - रघुवीर चरित अपार वारिधि पार कवि काने लह्यो। अर्थात् समुद्र को पार पाया जा सकता है किन्तु राम के गुणों का पार नहीं पाया जा सकता। इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा-
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य है॥
बाल्मीकि रामायण में रामकथा के माहात्म्य में कहा है-
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावत् रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति॥
जब तक इस धरती पर नदी और पर्वत आदि हैं अर्थात् जब तक सृष्टि स्थिर है, तब तक इस संसार में राम-कथा का निरन्तर प्रचार होता रहेगा।
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