बंगाल में गुष्करा एक छोटा सा स्टेशन है। एक दिन रेलगाड़ी आकर स्टेशन पर खड़ी हुई। उतरने वाले झटपट उतरने लगे और चढ़ने वाले दौड़-दौड़कर गाड़ी में चढ़ने लगे। एक बुढ़िया भी गाड़ी से उतरी। उसने अपनी गठरी खिसकाकर डिब्बे के दरवाजे पर तो कर ली थी, किन्तु बहुत चेष्टा करके भी उतार नहीं पाती थी। कई लोग गठरी को लाँघते हुए डिब्बे में चढ़े और डिब्बे से उतरे। बुढ़िया ने कई लोगों से बड़ी दीनता से प्रार्थना की कि उसकी गठरी उसके सिर पर उठाकर रख दें, किन्तु किसी ने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। लोग ऐसे चले जाते थे मानो बहिरे हों। गाड़ी छूटने का समय हो गया। बेचारी बुढ़िया इधर-उधर बड़ी व्याकुलता से देखने लगी। उसकी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।
एकाएक प्रथम श्रेमी के डिब्बे में बैठे एक सज्जन की दृष्टि बुढ़िया पर पड़ी। गाड़ी छूटने की घण्टी बज चुकी थी किन्तु उन्हेंने इसकी परवाह नहीं की। अपने डिब्बे से वे शीघ्रता से उतरे और बुढ़िया की गठरी उठाकर उन्होंने सिर पर रख दी। वहाँ से बड़ी शीघ्रता से अपने डिब्बे में जाकर जैसे ही बैठे गाड़ी चल पड़ी। बुढ़िया सिर पर गठरी लिये उन्हें आर्शीवाद दे रही थी-बेटा! भगवान् तेरा भला करें।
जानते हो कि बुढ़िया की गठरी उठा देने वाले सज्जन कौन थे? वे कासिम बाजार के राजा मणीचन्द्र नन्दी थे जो उस गाड़ी से कलकत्ते जा रहे थे। सचमुच वे राजा थे, क्योंकि सच्चा राजा वह नहीं है जो धनी है या बड़ी सेना रखता है। सच्चा राजा वह है, जिसका हृदय उदार है, जो दीन-दुखियों और दुर्बलों की सहायता कर सकता है। ऐसे सच्चे राजा बनने का सबको अधिकार है। इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। - वरुण पहल (दिव्ययुग- जनवरी 2013)