एक बार सिकन्दर अपने एक सेनापति से रुष्ट हो गया। बस फिर क्या था। सिकन्दर सोचने लगा कीकि इस व्यक्ति को दंड दिया जाये ताकि यह फिर कभी ऐसी भूल न कर सके। वह उस व्यक्ति को अपनी सेना में से भी नहीं निकालना चाहता था क्योंकि वह बहुत बुद्धिमान था और सिकन्दर के कई कष्टों को हल कर चूका था। अंत में काफी विचार करने के पश्चात उसने उसे सेनापति के पद से हटाकर सूबेदार बना दिया।
सिकन्दर का ऐसा विचार था कि सूबेदार होने के कारण सेनापति पद की सुविधायें छीन ली जायेंगी और यह कुछ समय के पश्चात गिड़गिड़ाता हुआ आएगा और कहेगा, 'महाराज मैं सेनापति था तब जो सुविधायें जो मुझे मिलती थी, अब नहीं मिलती हैं। कृपया आप मेरी भूल को क्षमा कर दें और मेरे कष्टों को देखते हुए मुझे फिर से सेनापति बना दें। ' परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
जब काफी दिन व्यतीत हो गए तो सिकन्दर को इस घटना का ध्यान आया। उन्होंने उसी समय उस सूबेदार को पेश होने की आज्ञा दी।
बस फिर क्या था। एक व्यक्ति दौड़ता-दौड़ता गया और सूबेदार को बुलकर ले आया। सूबेदार ने कहा, 'बंदा हाजिर है।'
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सिकन्दर ने जब उसे पहले की भांति प्रसन्न देखा तो बहतु हैरान हुआ। सिकन्दर ने उसे अपने पास बिठाते हुए कहा, मैं देखता हुं कि जब तुम सेनापति थे तब इतने प्रसन्न नजर नहीं आते थे जितने सूबेदार बनने के पश्चात, इसका क्या कारण है ?' कारण तो कुछ नहीं है। प्रसन्न होने की बात तो है ही। पहले छोटे-छोटे अधिकारी मुझसे डरते थे। मेरे पास आने या सलाह लेने में संकोच करते थे। परन्तु जब से मैं सूबेदार बना हूं वे निसंकोच आ जाते हैं। प्रेम की बातें करते हैं और पहले से कहीं अधिक आदर करते हैं। छोटी से छोटी बात के लिए मुझे बुलाते हैं। तब भी मैं प्रसन्नता अनुभव करूं। परन्तु सेनापति से सूबेदार बना दिया गया। इससे तुम्हे दुख नहीं होता' सिकन्दर ने कहा।
'दुख किस बात का। आपने जो किया उचित है। फिर मुझे अपने भाई-बहनों की सेवा करने का अवसर मिल रहा है। जब कि मानवता की यहीं मांग है कि दूसरे के कष्टों को दूर करने में सहयोग दो। सच्चा पद तो दूसरों की सेवा करना है। उसी से सच्चा सम्मान होता है। सेनापति बनकर मैं घूंस लूं या लोगों पर अत्याचार करूं, यह निंदनीय है। बस मेरी प्रसन्नता का यही कारण है।'
जब सिकन्दर ने सूबेदार की बात सुनी तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उसे दोबारा सेनापति बना देने की आज्ञा दे दी।