पहाड़ी किले के चारों ओर कृष्ण महासागर की तरह दूर तक लहराते हुए ऊँची-नीची पहाड़ियों के झाड़-झंकाड़ भयावह अन्धकार में इस तरह से डूब गये थे, जैसे उनका अस्तित्व ही नहीं था। केवल किलेदार की बैठक में झाड़-फानूस की मोमबत्तियों का प्रकाश फैल रहा था।
रात ढलने लगी थी, लेकिन किलेदार और सरदारों के बीच बातचीत का तांता अभी नहीं टूट रहा था। किलेदार ने कहा, ’’भाई! जो कुछ हो मैं महाराज शिवाजी का आततायी औरंगजेब के दरबार में जाना कतई पसन्द नहीं करता। धूर्त राजा जयसिंह के भुलावे में आकर महाराज कहीं धोखा न खा जायें।’’
’‘सो तो ठीक है सरकार! भाइयों का वध करके सगे बाप को जेल के सीखचों में ढकेलने वाले औरङ्गजेब का कोई विश्वास नहीं है। और श्रीमान! महाराष्ट्र के स्वाभिमान की रक्षा का भी तो प्रश्न है। महाराज के जाने से उस पर क्या आँच नहीं लगेगी?’’ हुंकार भरे स्वर में एक सरदार ने कहा।
“लेकिन कोई काम करने से पहले महाराज खूब सोच-विचार कर लेते हैं। तब कहीं ऐसे कामों में हाथ लगाते हैं।’’ दूसरे सरदार ने हल्का-सा विरोध किया।
“इसी से सफलता उनके पीछे-पीछे घूमती है। अफजलखां की मृत्यु और शाइस्ताखाँ का पलायन महाराज की दूरदर्शिता और राजनीति-पटुता के ज्वलन्त उदाहरण हैं।’’ तीसरे सरदार ने दूसरे की बातों का समर्थन किया।
“शाइस्ताखाँ के भागने की रात भी खूब थी। मैंने तो सैकड़ों को मौत के घाट उदार दिया। देश के शत्रुओं को गाजर-मूली की तरह काटने से मुझे बड़ा आनन्द मिलता है।’’ चौथे सरदार ने अपने बाहुबल की सराहना की।
तभी घबड़ाये हुए प्रहरी ने भयंकर सूचना दी, “सरदार! पूरब की ओर से सैकड़ों घोड़ों की टापों की आवाज आ रही है, मालूम होता है यह किला ही उनका लक्ष्य है।’’ क्षणभर के लिए सभी सरदार हतप्रभ हो गये और उनके हाथ अनायास म्यानों पर चले गये। किलेदार के साथ सभी बाहर आये। सचमुच घोड़ों की टापों की कटोर ध्वनि बराबर बढ़ती जा रही थी। किलेदार ने खतरे का घण्टा बजाने की आज्ञा दी। घण्टा अजीब ढङ्ग से टनटनाने लगा। रात का सन्नाटा सिकुड़कर समाप्त हो गया। कोलाहल बढ़ा। नागिनों की तरह तलवार म्यानों से निकलकर फुफकारने लगीं। विकराल भाले-बरछों की तीव्र नौकों पर मृत्यु खिलखिला उठी और गरम-गरम रक्त पीने के लिए सङ्गीनों की भी प्यास बढ़ी। दुर्ग के प्रति अपने कर्त्तव्य पालन के लिए सैनिकों से अधिक दुर्गवासियों में उत्साह था। सभी योद्धा अनुशासित ढङ्ग से अपने-अपने स्थान पर कटने और काटने के लिए परिकर बद्ध होकर गरजने लगे। किले का विशाल लौह-फाटक और मजबूती के साथ बन्द कर दिया गया। दुर्द्धर्ष दुर्गाध्यक्ष अपने दुर्जेय योद्धाओं को लेकर फाटक पर डट गये।
घोड़ों की टापों की आवाज बढ़ती गयी। अब घुड़सवारों की बातचीत भी कानों में आने लगी।
यकायक फाटक बड़े जोर के धक्के से चरमरा उठा। ‘फाटक खोलो’ तड़पती हुई भयंकर वाणी से वातावरण गड़गड़ाने लगा।
“कौन?’’ किलेदार ने ललकारते हुए पूछा। “मैं हूँ शिवाजी, शाहजी का पुत्र। फाटक खोलो।’’ ’’इस समय इतनी रात गये श्रीमान् आप कैसे?’’
“शत्रुओं से मात खाकर इस किले में शरण लेने के लिए बैरियों की भारी फौज मेरे पीछे पड़ी हुई है। जल्दी करो।’’
“किन्तु आपकी कठोर आज्ञा है कि विकट परिस्थिति में भी रात को किले का दरवाजा न खोला जाए।’’
“मैंने ही प्रबन्ध के नियम बनाये हैं और मैं ही किले का फाटक खोलने की आज्ञा देता हूँ।’’
“लेकिन फिर भी फाटक नहीं खुलेगा।’’ किलेदार ने दृढ़ता से कहा।
“क्या कहा, फाटक नहीं खुलेगा? अब क्या बाधा रही? तुम शत्रुओं से मिले तो नहीं हो?’’
“आर्यवंश रक्षक प्रबल प्रतापी शिवाजी का अन्न खाकर जो शत्रुओं से मिलने का स्वप्न में भी विचार करेगा, उसको नरक में भी ठिकाना नहीं मिलेगा महाराज! रह गई बात फाटक खोलने की, वह इसलिये नहीं खुलेगा कि आगे चलकर आपके बनाये हुए नियमों पर किसी को विश्वास नहीं रहेगा। आपका ज्वलन्त जीवन कलंकित हो जायेगाऔर अनुशासित प्रजा उच्छृंखल हो जायेगी। राज नियम सबके लिये एक सा है। आपके द्वारा बनाये हुए नियमों को भंग करने की शक्ति आपमें नहीं है।’’
“तो क्या आदर्श के पीछे मैं और मेरे साथी यहाँ मौत के घाट उतार दिये जायें? तुम्हारी यही इच्छा है।’’
“दस हजार सैनिकों की आँखों में धूल झोंककर अफजलखाँ को मृत्यु के मुँह में धकेलने वाले छत्रपति का बाल बांका करने वाला अभी तो नहीं जन्मा है।’’
“इसका अर्थ यह है कि फाटक नहीं खुलेगा। इस धृष्टता का परिणाम भुगतने के लिए कल तैयार रहना।’‘ गुर्राते हुए शिवाजी ने क्रोध से कहा।
“इसकी मुझे रंचमात्र चिन्ता नहीं है। कर्त्तव्य पालन करते हुए मृत्यु के खुले हुए जबड़ों में समा जाना क्षत्रिय-जीवन की सफलता की कसौटी है।’’ किलेदार ने दृढ़ता से उत्तर दिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल जब सन्ध्या-वन्दन स्तोत्र पाठ की ध्वनि दिशाओं में गूँजने लगी, तब किलेदार ने तलवार लटकाये हुये अपने अन्य कर्मचारियों के साथ हाथ जोड़कर शिवाजी के सामने प्रार्थना की कि हम लोग रात को किले का फाटक न खोलने के अपराधी हैं। आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। अब आप जो उचित समझें दण्ड दें महाराज!
शिवाजी क्रुद्ध नहीं हुए, बल्कि हँसते हुए कहा- आज्ञा भङ्ग करने का अपराध अवश्य है। किन्तु राज-नियमों का जिस कठोर कर्त्तव्यनिष्ठा से इस किले में पालन हो रहा है, वह महाराष्ट्र के लिए गर्व की वस्तु है। हृदय गद्गद् है। मेरे न रहने पर भी महाराष्ट्र की ओर देखने की हिम्मत किसी भी गर्वशील योद्धा को न होगी। अब विश्वास हो गया। मैं अब राजकर्मचारियों की पदोन्नति की घोषणा करता हूँ और दुर्गाध्यक्ष को अपने साथ रहने का आग्रह करता हूँ।’’
शिवाजी की जय के कठोर निनाद से दिशायें गड़गड़ाने लगीं। - प्रस्तुतिः वरुण
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