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दीपावली और ऋषि दयानन्द

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swami dayanand saraswati 04दीपावली का पावन पर्व जड़-चेतन सभी में प्रसन्नता, उमंग और उत्साह फैला रहा था। सारा नगर पर्व की खुशी में डूबा हुआ था। अजमेर के भिनाय भवन में देवपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती शान्त भाव से लेटे हुए थे। सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। ऋषि ने शौच कर्म से निवृत्त होकर क्षौर कर्म कराने की इच्छा प्रकट की। उपस्थित भक्तों ने नम्र भाव से कहा- महाराज! सारे मुख पर छाले हैं। खून निकल जायेगा, कष्ट होगा, किन्तु उस पुण्यात्मा को अनुभूति हो रही थी कि आज प्रयाणबेला है। पूछा- आज कौन सा मास, पक्ष और दिन है। किसी भक्त ने कहा- महाराज ! आज कार्तिक मास की अमावस्या पर दीपावली का पर्व है।

ऋषिवर के मुखमण्डल पर शान्ति और प्रसन्नता थी। बड़े सहज भाव से भक्तों से बातचीत कर रहे थे। सबको धैर्य, प्रेमपूर्वक और संगठित होकर रहने का उपदेश दे रहे थे। थोड़ी देर के बाद बोले- सभी दरवाजे और खिड़कियां खोल दो। ऋषि ने ऊपर की ओर दृष्टि करके चारों और अलौकिक व चमत्कारी दृष्टि से देखा। गायत्री मन्त्र का पाठ किया। तीव्र स्वर से ओ3म् का उच्चारण करने लगे। शान्तभाव में मुख से उच्चारित होने लगा- “हे दयामय सर्व शक्तिमान ईश्‍वर ! तेरी यही इच्छा है। तेरी इच्छा पूर्ण हो। अद्भुत तेरी लीला है।’’ यह कहकर लम्बी सांस खींची और बाहर निकाल दी। वह महान् योगी इहलीला समाप्त करके दीपावली के पर्व पर ज्योर्तिमय की शरण में चला गया। भक्तजन देखते रहे। असहाय बनकर खड़े रहे।

गुरुदत्त प्रथम बार ऋषि के दर्शन करने आए थे। ईश्‍वर में दृढ़ आस्था न थी। भक्तों के साथ खड़े उस महायोगी की महायात्रा देख रहे थे। अपार मर्मान्तक शारीरिक कष्ट पीड़ा में वह दिव्य पुरुष शान्त एवं आनन्दमग्न थे। मुखमण्डल पर सन्तोष, प्रसन्नता व शान्ति थी। ऐसे जा रहे थे जैसे युगों से बिछड़ा व्यक्ति अपने प्रियतम से मिलने जा रहा हो। ऋषि ने मृत्यु के रूप-स्वरूप में एक नया अध्याय जोड़ दिया। मृत्यु दुःख नहीं सुख है। यह निर्भर करता है व्यक्ति, मृत्यु को लेता कैसे है? ज्ञानी व्यक्ति के लिए मृत्यु सुख है, परिवर्तन है। जीर्ण-शीर्ण जर्जरित व रोग भरे शरीर का नवीनीकरण है। गुरुदत्त ऋषि की अन्तिम यात्रा को बड़े ध्यान मग्न होकर देख रहे थे। उनको शरीर छोड़ते देखकर हृदय परिवर्तित हो गया। वास्तविकता की ग्रन्थियाँ खुल गईं। आस्तिकता जाग पड़ी। जाते-जाते भी वह उपकारी ऋषि गुरुदत्त जैसे समर्पित एवं भावनाशील व्यक्ति को आस्तिक बना गया।

दीवाली का पर्व हम सबको आत्मचिन्तन एवं आत्मनिरीक्षण का सन्देश देता है। इस पर्व से देवात्मा दयानन्द के बलिदान का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। यह पर्व अन्धकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक भी है। बाहर रोशनी बढ़ती जा रही है। अन्दर अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, विषय-वासना, असन्तोष, ईर्ष्या, द्वेष आदि का अन्धेरा छाता जा रहा है। जीवन में अशान्ति, असन्तोष, चिंता तनाव एवं रोग बढ़ते जा रहे हैं। जीवन भटकाव व बिखराव में गुजरा जा रहा है। व्यक्ति जितना जीवन व जगत को व्यवस्थित करना चाहता हैं, उतना अव्यवस्थित होता जा रहा है। यदि तटस्थता से विचार करें, तो इस सबके मूल में अज्ञान ही कारण मिलेगा? इसी अज्ञान रूप अन्धकार से हटाने का सन्देश लेकर प्रतिवर्ष आती है दीवाली। किन्तु हम मूल को भूल गए। दीवाली खान-पान, मेले धूम-धड़ाके में ही गुजार देते हैं। जहाँ प्रकाश है, वहाँ जीवन है। इसीलिए हमारे देश की प्रार्थनाओं में दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःखों और अज्ञान को मिटाने पर बल दिया गया है- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय।

ऋषि दयानन्द संसार में व्याप्त अन्धकार, पाखण्ड, गुरुडम, कुरीतियों आदि को हटाना चाहते थे। उनका संसार को सत्य मार्ग एवं सत्य का दर्शन कराना उद्देश्य था। वे स्वयं सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए जिए और सत्य पर ही शहीद हो गये। वे जीवन भर जहर पीते रहे। संसार को अमृत बांटते रहे। उन्होंने देश-जाति-धर्म एवं मानव कल्याण के लिए अपमान-गालियां-पत्थर सहे। उनका संसार को योगदान स्मरणीय है। उनका तप-त्याग-बलिदान वन्दनीय है। उनका तपःपूत जीवन पूजनीय है। सारे जीवन में कहीं भी चारित्रिक दुर्बलता, अर्थ लोभ, पद लोभ नहीं आने दिया। यदि संसार के महापुरुषों को तुला के एक पलड़े पर रख दिया जाए और ऋषि को दूसरे पलड़े पर, तो निश्‍चय ही पूर्णता, योगदान, दिव्यता, भव्यता, तप-त्याग-बलिदान आदि की दृष्टि से ऋषि का ही पलड़ा भारी होगा। ऐसा अपूर्व तथा अपने समय का सर्वश्रेष्ठ महापुरुष जिस व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को मिले वह निश्‍चय ही भाग्यशाली है।

आओ ! दीपावली के पुण्य प्रकाश में और उस पुण्यात्मा के बलिदान पर्व पर अपने गुण-कर्म-स्वभाव व जीवन का निरीक्षण करें। जीवन में सात्विकता, धार्मिकता, पवित्रता और विचारों में उच्चता लाएं। यही उस ऋषि के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। - ड़ॉ. महेश विद्यालंकार

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