ओ3म् अन्येजायां परिमृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्यक्षः।
पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बुद्धमेतम्॥ (ऋग्वेद 10.34.4)
शब्दार्थ- (यस्य वेदने) जिसके धन पर (वाजी अक्षः) विजयशील पाश, जुए का व्यसन (अगृधत्) ललचा जाता है (अस्य) उसकी (जायाम्) स्त्री को (अन्ये परि मृशन्ति) दूसरे, उसके शत्रु हथिया लेते हैं, उसका आलिङ्गन करते हैं (माता पिता भ्रातरः एनम् आहु) माता, पिता और भाई उस जुएबाज को लक्ष्य करके कहते हैं (न जानीमः) हम नहीं जानते यह कौन है? (एतम् बद्धम् नयत) इसको बाँधकर ले जाओ।
भावार्थ- ऋग्वेद में जुए की निन्दा में पूरा एक सूक्त दिया गया है। प्रस्तुत मन्त्र में जुआरी की दुर्दशा का चित्रण है-
1. जो व्यक्ति जुए में फँस जाता है उसके धन का तो कहना ही क्या, वह तो नष्ट होता ही है, उसकी स्त्री को भी अन्य लोग हथिया लेते हैं और उसके साथ भोग-विलास करते हैं।
2. जब कोई व्यक्ति जुआरी के घर पहुँचकर उसके सम्बन्ध में पूछताछ करता है तो माता-पिता, भाई-बन्धु कोई भी उसका साथ नहीं देता, अपितु वे उसे लक्ष्य करके कहते हैं- “हम इसे नहीं जानते यह कौन है, कहाँ रहता है, किसका है? इसको बाँध लो और ले जाओ।’’
यह है जुआरी की दुर्दशा, अतः वेद ने जुए का निषेध किया है। वेद का आदेश है- अक्षैर्मा दीव्य (ऋग्वेद 10.34.13) हे मनुष्य! जुआ मत खेल। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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