ब्राह्मण ग्रन्थ- ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्बन्ध ‘ब्रह्म’ से है। इसी कारण इन्हें ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। ‘ब्राह्मण’ शब्द में आए ‘ब्रह्म’ शब्द से यहाँ ‘मन्त्र’ और ‘यज्ञ’ गृहीत है। मन्त्र और यज्ञ इन दोनों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहा जाता है।
31 तैतिरीय संहिता के भाष्यकार आचार्य भट्टभास्कर ने ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थ के स्वरूप का परिचय इसी रूप में दिया है-
ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां च व्याख्यानो ग्रन्थः॥32
अर्थात् यज्ञरूप कर्म को ‘ब्राह्मण’ कहते हैं तथा उस यज्ञ के मन्त्रों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों को भी ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। प्रसंगवश इनमें राष्ट्र, परिवार, समाज आदि से सम्बन्धित विषयों का समावेश भी हो गया है।
ब्राह्मण ग्रन्थों की व्याख्यान पद्धति का ‘न्यायदर्शन’ में पर्याप्त विश्लेषण किया गया है। न्यायदर्शन के अनुसार ब्राह्मणों के वाक्य तीन प्रकार के होते हैं- विधि, अर्थवाद तथा अनुवाद वचन-
विध्यर्थवादानुवादवचनविनियोगात्। विधिर्विधायकः।
स्तुतिर्निन्दापरकृतिः पुराकल्प इत्यर्थवादः।
विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः॥33
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी इन्हीं सूत्रों को उद्धृत करते हुए इस मान्यता का समर्थन किया है।34 कोशकार श्री आप्टे ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “वेद का वह भाग जो विविध यज्ञों के विषय में मन्त्रों के विनियोग तथा विधियों का प्रतिपादन करता है, साथ ही उनके मूल तथा विवरणात्मक व्याख्या को तत्सम्बन्धी निदर्शनों के साथ जो उपाख्यानों के रूप में विद्यमान है, प्रस्तुत करता है, वेद के मन्त्रभाग से यह बिल्कुल पृथक् है’’।35 पाश्चात्य विद्वान् डॉ. विण्टरनिट्ज ने ब्राह्मण ग्रन्थों की प्रतिपादन पद्धति को मुख्यतः विधि और अर्थवाद, इन दो वर्गों में विभाजित किया है और शेष को इनके अन्तर्गत ही समाहित माना है।36
आरण्यक- ‘आरण्यक’ ब्राह्मण ग्रन्थों के ही पूरक हैं। इनका प्रारम्भिक भाग ‘ब्राह्मण’ है तथा अन्तिम भाग उपनिषद् है। अरण्ये भवम् आरण्यकम् अर्थात् अरण्य में होने वाला ज्ञान आरण्यक कहलाता है, जैसा कि आचार्य सायण ने लिखा है-
अरण्य एव पाठ्यत्वाद् आरण्यकमितीर्यते॥37
अर्थात् अरण्य में पाठ किए जाने से ये ‘आरण्यक’ कहे जाते हैं। कोशकार वामन शिवराम आप्टे ने ब्राह्मण ग्रन्थों से सम्बद्ध धार्मिक तथा दार्शनिक रचनाओं के उस समुदाय को आरण्यक ग्रन्थ कहा है, जो या तो जंगलों में रचे गए हैं या वहाँ उनका अध्ययन किया गया है।38 आत्मविद्या, तत्व-चिन्तन जैसे रहस्यपूर्ण विषयों पर विचार होने के कारण इन ग्रन्थों को ‘रहस्य ग्रन्थ’ भी कहा गया है।39
आरण्यकों का मुख्य विषय यज्ञों के मूल में रहने वाले आध्यात्मिक तत्वों की मीमांसा है। इनमें उन यज्ञों का वर्णन है, जिनमें अपेक्षाकृत कम साधनों की आवश्यकता होती है तथा जिनका विधि-विधान बहुत सरल है। गृहस्थ से निवृत्त होकर वानप्रस्थी होने वाले व्यक्तियों के लिए ब्राह्मणों में कोई विधान, कर्मकाण्ड या यज्ञ नहीं मिलते। ब्राह्मणों में वर्णित यज्ञ अरण्य में रहने वालों के लिए अत्यन्त जटिल एवं दुर्लभ थे। अतः आरण्यक ग्रन्थों में मुनियों एवं वानप्रस्थों के लिए सुलभ यज्ञोें, कर्मकाण्डों तथा अन्य धार्मिक क्रियाओं का वर्णन किया गया है। इनमें यज्ञों के आध्यात्मिक स्वरूप का भी दिग्दर्शन है तथा ब्रह्म और जीवन का विवेचन है। ज्ञान-कर्म-उपासना का समन्वय, निष्काम कर्मयोग, वनस्थ की दिनचर्या तथा वर्णाश्रम धर्म आदि विषयों पर भी इन ग्रन्थों में विचार किया गया है। आरण्यकों में वर्णित सभी विषयों का आधार वेद ही है। अतः इन्हें वैदिक विषयों का व्याख्यान ग्रन्थ माना जाता है। वन में रहने वाले ऋषि-मुनियों ने वेदोक्त विषय का गम्भीर एवं व्यापक चिन्तन करके इन ग्रन्थों की रचना की तथा इनमें तत्त्वसम्बन्धी निष्कर्ष प्रस्तुत किए। इसी कारण ये ग्रन्थ वेदार्थ को समझने में सहायता प्रदान करते हैं।
उपनिषद्- आरण्यकों के बाद उपनिषदों का क्रम आता है। ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘षद्लृ विशरण गत्यावसानेषु’40 धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय के योग से ‘उपनिषद्’ शब्द बना है।41 इसके अनुसार इसके तीन अर्थ होते हैं- विशरण (नाश), गति (ज्ञान, गमन, प्राप्ति), अवसादन (शिथिल करना)। उपनिषदों के अध्ययन से अज्ञान नष्ट होता है तथा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। इससे ब्रह्म में गति और फिर उसकी प्राप्ति होती है, तथा जन्म-मरण के बन्धन या सांसारिक दुःख शिथिल हो जाते हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार- ‘उप=ब्रह्मसामीप्यम्, नि=निश्चयेन, सीदति=प्राप्तनोति यया, सा उपनिषद्42। अर्थात् जिन ग्रन्थों के द्वारा निश्चयपूर्वक ब्रह्म का सामीप्य प्राप्त होता है। ‘उप=समीप, निषद्=बैठना’ यह अर्थ भी इन पदों से व्यक्त होता है।
आचार्य शंकर के अनुसार जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति को साथ रखते हुए आत्मतत्व को जानने के भाव से इस ब्रह्मविद्या को प्राप्त करते हैं, यह ब्रह्म विद्या उनके गर्भ में रहने, जन्म लेने, बुढापा, व्याधि आदि कष्टों को दूर करती है तथा परब्रह्म को प्राप्त कराती है। उपनिषदों का ज्ञान अविद्या के संस्कारों को उत्पन्न करने वाले कारण को अत्यधिक शिथिल कर देता है और नष्ट कर देता है। यही उपनिषद् है। ‘उप’ और ‘नि’ पूर्वक ‘सद्’ धातु का इस प्रकार अर्थ स्मरण होने से यह ‘उपनिषद्’ है।43
उपनिषदों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म-प्राप्ति है। इन ग्रन्थों में ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या का गम्भीर विवेचन हुआ है। इनमें ब्रह्म को प्राप्त कराने वाले अध्यात्मज्ञान को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है। इहलोक के विनाशशील सुखों की कामना का परित्याग करके मोक्षसाधना ही इनकी प्रेरणा है। भारतीय तत्त्वज्ञान एवं धार्मिक सिद्धान्तों का मूल स्रोत होने का गौरव भी उपनिषदों को प्राप्त है। गीता और दर्शनों की रचना इन्हीं के आधार पर हुई है। इसी कारण इन्हें दर्शनों का मूलाधार कहा जाता है। ये ग्रन्थ वैदिक वाङ्मय की परम्परा में वेदों के अन्तिम सार संग्रह हैं। कोशकार आप्टे के अनुसार उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थों के साथ संलग्न वे रहस्यवादी रचनाएँ हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य वेदों के गूढ अर्थ का निश्चय करना है।44 इस प्रकार उपनिषद् वेदों के अध्यात्मपक्षीय अर्थ पर प्रकाश डालते हैं तथा उन अर्थों को समझने में विशेष सहायक हैं। यही कारण है कि उपनिषदों की ‘वेदान्त’ नाम भी दिया गया है, जिसका अभिप्राय वेदों का अन्तिम सार है।
वेदाङ्ग- उपनिषदों के पश्चात् छः वेदांगों का स्थान आता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष ये वेदांग कहे जाते हैं।
‘शिक्षा’ नामक ग्रन्थों में उच्चारण की प्रक्रिया तथा विशेषताओं को बतलाया गया है। व्याकरण से शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय तथा व्युत्पत्ति का ज्ञान होता है। निरुक्त का उद्देश्य वेदमन्त्रों के प्रमुख शब्दों का चयन करके निरुक्तिपूर्वक उनके अर्थों का बोध कराना है। वेद मन्त्रों के शुद्ध पाठ के लिए, शुद्ध गान के लिए तथा कहीं-कहीं अर्थसन्देह को दूर करने के लिए छन्दों का ज्ञान आवश्यक होता है। ज्योतिष के द्वारा काल आदि की गणना की जाती है। यज्ञ-याग आदि का नक्षत्र, तिथि, मास, पक्ष, ऋतु, संवत्सर, काल आदि के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनसे सम्बन्धित नियमों तथा विधानों के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान आवश्यक है।
कल्प- कल्प ग्रन्थों में यज्ञ सम्बन्धी अनुष्ठानों एवं वैदिक कर्मकाण्डों का विवेचन है। इनके अतिरिक्त इनमें दैनन्दिन नियमों, कर्त्तव्यों, विधानों, सामाजिक अनुष्ठानों, राजनैतिक मर्यादाओं आदि का भी निर्देश है। कल्पग्रन्थों को ही सूत्र ग्रन्थ भी कहा जाता है। कल्प ग्रन्थों या कल्पसूत्रों को चार वर्गों में बांटा जाता है-
श्रौत सूत्र- वेदों और ब्राह्मणों में प्रतिपादित यज्ञ-यागों के प्रतिपादक।
गृह्य सूत्र- दैनिक चर्या के नियमों, कर्त्तव्यों, धार्मिक विधियों एवं संस्कारों के विधायक।
धर्म सूत्र- चारों आश्रमों एवं वर्णों के धर्म तथा कर्त्तव्यों के विधायक ग्रन्थ। आचार विचार के उपदेशक।
शुल्व सूत्र- यज्ञीय उपकरणों, वेदियों आदि की रचना, माप, गणना आदि के निर्देशक ग्रन्थ।
इन सभी प्रकार के सूत्र ग्रन्थों से वेदमन्त्रों में वर्णित तत् सम्बंधी विषयों का स्पष्ट ज्ञान होता है। (क्रमशः)
सन्दर्भ सूची
31. वैदिक साहित्य का इतिहास पृष्ठ 80, डॉ. कर्णसिंह
32. तैतिरीय संहिता- 1.5, भट्टभास्कर भाष्य
33. न्यायदर्शन 2.2.61 से 64
34. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेद संज्ञा विचार, महर्षि दयानन्द सरस्वती
35. संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे, ‘ब्राह्मण’ पद
36. वैदिक आख्यानों का वैदिक स्वरूप, पृष्ठ 52, डॉ. सुरेन्द्र कुमार
37. ऐतरेय आरण्यक, सायण भाष्य
38. संस्कृत हिन्दी कोश, आप्टे, ‘आरण्यक’ पद
39. गोपथब्राह्मण 2.10., बौधायन धर्मसूत्र 2.8.3
40. पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण
41. वाचस्पत्यम् तथा शब्दकल्पद्रुमः
42. वैदिक आख्यानों का वैदिक स्वरूप, पृष्ठ 54, डॉ. सुरेन्द्र कुमार
43. वैदिक आख्यानों का वैदिक स्वरूप, पृष्ठ 54, डॉ. सुरेन्द्र कुमार
44. संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे
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