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प्रथम अध्यायः वैदिक वाङ्मय का परिचय (1)

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युजर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण
वैदिक वाङ्मय को भारतीय संस्कृति का आधारभूत वाङ्मय माना जाता है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो. मैक्समूलर तथा अन्य पाश्‍चात्य विद्वानों ने भी वेदों को विश्‍व का प्राचीनतम वाङ्मय माना है।

वेद को धर्म का आदि स्रोत कहा गया है- वेदोऽखिलो धर्ममूलम्1॥
सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल है। वही धर्म के विषय में स्वतः प्रमाण है- धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः2॥
अर्थात् जो धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिए परम प्रमाण वेद ही है। इस श्‍लोक की कुल्लूक भट्टकृत टीका में जाबाल स्मृति, भविष्यपुराण तथा जैमिनीमुनिकृत मीमांसा दर्शन आदि के अन्य अनेक प्रमाण उद्धृत किए गए हैं। यथा-
धर्मं च ज्ञातुमिच्छतां प्रकृष्टं प्रमाणं श्रुतिः।
प्रकर्षबोधनेन च श्रुतिस्मृतिविरोध स्मृत्यर्थो नादरणीय इति भावः3॥

अतएव जाबालः- श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी4॥
भविष्यपुराणेऽप्युक्तम्- श्रुत्या सह विरोधे तु बाध्यते विषयं विना5॥

जैमिनिरप्याह- श्रुतिविरोधे स्मृतिवाक्यमनपेक्ष्यम् अप्रमाण् अनादरणीयम्। असति विरोधे मूलवेदानुमानम् इत्यर्थः6॥

इन सबका अभिप्रायः यह है कि धर्म जानने की इच्छा रखने वालों के लिए सबसे बड़ा प्रमाण वेद है। यदि कहीं श्रुति (वेद) तथा स्मृति का विरोध हो तो श्रुति को ही प्रामाणिक मानना चाहिए, स्मृति को नहीं।

मनु महाराज ने वेदों का महत्व बताते हुए यहाँ तक कहा दिया कि-
पितृदेव मनुष्याणां वेदश्‍चक्षुः सनातनम्।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रामिति स्थितिः॥
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाः चत्वारश्‍चाश्रमाः पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति॥
विभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्।
तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्7॥
सारांश यह है कि वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए सनातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। उसकी महिमा का पूर्णतया प्रतिपादन करना अथवा उसे सम्पूर्णतया समझ लेना बड़ा कठिन है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्य और वर्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। सनातन (नित्य) वेदशास्त्र सब प्राणियों को धारण करता है। यही सब मनुष्यों के लिए भवसागर के पार होने का साधन है।

वेदों के अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद इन चार वेदों का ग्रहण किया जाता है। स्वयं वेदों में ही अपौरुषेय ज्ञान के रूप में इन्हीं चार वेदों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में समान रूप से पाए जाने वाले एक मन्त्र में उल्लेख है कि सर्वपूज्य श्रेष्ठ परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और छन्दांसि (अथर्ववेद) उत्पन्न हुए हैं-
तस्माद् यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुः तस्माद् अजायत 8॥

अथर्ववेद में भी प्रश्‍नशैली में परमात्मदेव से चारों वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है-
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम् 9॥

वैदिक एवं लैकिक संस्कृत साहित्य में ‘वेद’ शब्द का प्रयोग वेद चतुष्टय के लिए रूढ हो चुका है। इसका कारण यह रहा है कि भारतीय आर्य साहित्य तथा परम्परा में वेदों को सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ अनन्त ज्ञान का स्रोत माना जाता रहा है-
सर्वज्ञानमयो हि सः 10॥

यद्यपि पाश्‍चात्य आधुनिक भारतीय विद्वान् वेदों को मनुष्यकृत मानते हैं, परन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा वेदों को अपौरुषेय अर्थात् ईश्‍वर की वाणी मानती है। उपनिषदों में वेदों को ईश्‍वरीय ज्ञान कहा गया है-
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यो दिशः क्षोत्रे वाग्विवृताश्‍च वेदाः॥ 11
तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षाः 12॥

अर्थात् उस परमात्मा का मस्तक मानो अग्नि है। सूर्य तथा चन्द्र उसके नेत्रों के समान हैं, दिशाएँ उसके कानों के तुल्य हैं। वेद मानो उसकी वाणी से निकले हैं।
एतस्य वा महतो भूतस्य निःश्‍वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः॥ 13
अर्थात् ऋग्वेद यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद उस महान परमेश्‍वर के मानो श्‍वास से निकले हैं।
आचार्य सायण तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती भी वेदों को अपौरुषेय अर्थात् ईश्‍वरकृत मानते हैं। 14
पाश्‍चात्य तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् इस बात को बिल्कुल स्वीकार करने को उद्यत नहीं हैं कि ‘वेद ईश्‍वरीय रचना है।’ वे इसे आर्यों की कोरी ‘धार्मिक आस्था का परिणाम’ मानते हैं।15 पश्‍चिमी विद्वान् जिमरमैन का कथन है कि “वेद अनादि हैं तथा ईश्‍वरकृत हैं और किसी विशेष समय में किन्हीं ऋषियों ने उनका ज्ञान प्राप्त करके उन्हें प्रकाशित किया था’’ इस सिद्धान्त को स्वीकार करना बहुत कष्टदायक है।16 यही विचार अन्य बेवर, मैक्समूलर, मैकडानल, याकोबी, विन्टरनित्स आदि पाश्‍चात्य विद्वानों तथा बाल गंगाधर तिलक, पं. दीनानाथ शास्त्री, अविनाशचन्द्र दास, शंकरबालकृष्ण दीक्षित आदि भारतीयों का मत है।17

वैसे वेदों को पौरुषेय मानने का विचार अवर वैदिक काल में ही जन्म ले चुका था, भले ही यह आगे न बढ़ पाया हो। निरुक्त में इसका विस्तृत उल्लेख है। आचार्य यास्क ने कौत्स आदि उन आचार्यों के मत का उल्लेख किया है, जो वेदों को अपौरुषेय स्वीकार नहीं करते। पुनः उनकी युक्तियों का खण्डन किया है।18 यहाँ इस विवाद के विस्तार में न जाकर निष्कर्ष रूप में यही कहना है कि इन आधुनिक विद्वानों ने वेदों तथा वैदिक वाङ्मय का काल अपने-अपने दृष्टिकोण से निर्धारित किया है। इन्होंने वेदों तथा वैदिक वाङ्मय की रचना की अन्तिम समय सीमा पाणिनिकाल (चतुर्थ शताब्दी ईस्वी पूर्व तक) रखी है और प्रारम्भिक सीमा इस प्रकार मानी है- पाश्‍चात्य विद्वान 4500 ई. पूर्व, बाल गंगाधर तिलक 6000 ई. पूर्व, अविनाशचन्द्र दास 25 हजार ई. पूर्व, रघुनन्दन शर्मा 88 हजार ई. पूर्व, पं. दीनानाथ शास्त्री एक लाख वर्ष पूर्व। 19

आचार्य सायण के अनुसार इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट का परिहार करने का अलौकिक उपाय बतलाने वाला ग्रन्थ ‘वेद’ है। 20 उनके अनुसार लाभार्थक ‘विद्’ धातु से ‘वेद’ शब्द बना है। 21 स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धातुपाठ में पठित चार ‘विद्’ धातुओं22 से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय के योग से ‘वेद’ शब्द की सिद्धि मानी है। इस प्रकार ‘वेद’ शब्द का अर्थ हुआ- “जिनके पढ़ने से पदार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, जिनमें सब सत्यविद्याएँ विद्यमान हैं, इन कारणों से ऋक् संहिता आदि का नाम ‘वेद’ है।’ 23

स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार वेदों में अवयवरूप विषय तो अनेक हैं, परन्तु उनमें से चार मुख्य हैं- एक विज्ञान अर्थात् सब पदार्थों को यथार्थ जानना, दूसरा कर्म, तीसरा उपासना और चौथा ज्ञान है। ‘विज्ञान’ उसको कहते हैं कि जो कर्म, उपासना तथा ज्ञान इन तीनों से यथावत् उपयोग लेना और परमेश्‍वर से लेके तृण पर्यन्त पदार्थों का साक्षात् बोध का होना, उनसे यथावत् उपयोग का करना। इससे यह विषय इन चारों में भी प्रधान है, क्योंकि इसी में वेदों का मुख्य तात्पर्य है।24

वेदों का ज्ञान प्राप्त करना तथा तद्नुकूल आचरण करना मानवमात्र के लिए सुखकारी है। इसीलिए वेदों को ‘वरदा वेदमाता’25 कहा गया है। इससे समाज को दीर्घायु, धन-धान्य, ओजस्विता, यश आदि मिलता है। यजुर्वेद में वेदों का ज्ञान चारों वर्णों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए भी कल्याणकारी बताया गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजयन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च॥ 26

इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि मानव मात्र के कल्याण के लिए वेद ज्ञान दिया गया है। यह किसी देश, जाति या किसी वर्ग-विशेष की सम्पत्ति नहीं है। इसका प्रचार-प्रसार चारों वर्णों के लिए होना चाहिए।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद- इन चार संहिताओं का ‘वेद’ संज्ञा के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। इन चारों वेदों से भिन्न इनसे सम्बद्ध चारों वेदों के शाखा एवं व्याख्या ग्रन्थों, उनके विषयों का प्रतिपादन करने वाले ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् तथा सूत्र ग्रन्थों को ‘वैदिक’ संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ‘वैदिक’ शब्द ‘वेदों में प्रयुक्त’ और वेद विषयक अथवा वेदों से सम्बन्धित इन विशेष अर्थों का बोध कराता है। 27 यतोहि, ’वैदिक’ पद योगरूढ ‘वेद’ शब्द से ‘ठञ्’ और ‘ठक्’ प्रत्ययों के योग से निष्पन्न है। ‘ठञ्’ 28 प्रत्यय के योग में इसका अर्थ है- ‘वेदान् वेत्ति अधीते वा सः वैदिकः’ अर्थात् जो वेदों को जानता है या उनका अध्ययन करता है, वह व्यक्ति ‘वैदिक’ कहलाता है। ‘ठक्’ 29 प्रत्यय के योग में इसका अर्थ होगा- ‘वेदेषु विहितः तद्विषयको वा सः वैदिकः’ अर्थात् वेदों में प्रयुक्त, विहित या वेद विषयक शब्द तथा वाङ्मय ‘वैदिक’ है। ‘भव’ अर्थ में ‘ठञ्’ 30 प्रय्यय से भी उक्त अर्थ व्यक्त होता है। (क्रमशः)
सन्दर्भ-सूची
1. मनुस्मृति 2.6
2. मनुस्मृति 2.13
3. मनुस्मृति, कुल्लूकभट्ट टीका
4. जाबाल स्मृति
5. भविष्यपुराण
6. मीमांसा दर्शन-1.3.3
7. मनुस्मृति-12.94,97,99
8. ऋग्वेद संहिता 10.90.6, यजुर्वेद संहिता 31.7
9. अथर्ववेद संहिता- 10.7.20
10. मनुस्मृति-2.7
11. मुण्डकोपनिषद्- 2.14
12. मुण्डकोपनिषद्- 2.17
13. बृहदारण्यकोपनिषद्- 4.5.11
14. तैतिरीय आरण्यक-सायण भाष्य 4.11
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोत्पत्ति विषय- स्वामी दयानन्द सरस्वती
15. संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, ‘वेद’ शब्द पर टिप्पणी
16. Hyms from the Rigveda-Peterson 1938/Appendix
17. वैदिक आख्यानों का वैदिक स्वरूप पृ. 14, डॉ. सुरेन्द्र कुमार
18. निरुक्त 1.15
19. वैदिक आख्यानों का वैदिक स्वरूप, पृ. 14, डॉ. सुरेन्द्र कुमार
20. कृष्णयजुर्वेदीय तैतिरीय संहिता, सायणभाष्य, उपोद्धात
21. तैतिरीयसंहिता, सायणभाष्य-1.4.20
तैतिरीय ब्राह्मण, सायणभाष्य-3.3.9.69
22. पाणिनीय धातुपाठ, अदादि, दिवादि, तुदादि एवं रुधादिगण
23. ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदोत्पत्ति विषय, स्वामी दयानन्द सरस्वती
24. ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदोत्पत्ति विषय, स्वामी दयानन्द सरस्वती
25. अथर्ववेद संहिता- 19.71.7
26. यजुर्वेद संहिता- 26.2
27. ‘वाचस्पत्यम्’ तथा ‘शब्दकल्पद्रुमः’ नामक बृहत्संस्कृतकोश
28. ‘वाचस्पत्यम्’ तथा ‘शब्दकल्पमद्रुमः’ में ‘वेद’ पद
29. ‘वाचस्पत्यम्’ तथा ‘शब्दकल्पद्रुमः’ में ‘वेद’ पद
30. पाणिनीय अष्टाध्यायी सूत्रपाठ में ‘अन्तःपूर्वाट्ठञ्’ 4.3.6 पर पठित वार्तिक ‘अध्यात्मादश्‍च’ द्रष्टव्य

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