सृष्टि की रचना में अग्नि तत्व का महत्वपूर्ण योगदान है। सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में प्रकट या अप्रकट रूप में अग्नि विद्यमान है। यज्ञ तथा सूर्य अग्नि के ही अलग-अलग रूप हैं। वेदों में अग्नि की ही सर्वाधिक स्तुति की गई है। वेदों में परमात्मा का भी एक नाम ‘अग्नि’ है। पर्यावरण के निर्माण में अग्नि एक अति महत्वपूर्ण घटक की भूमिका निभाता है।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि ‘अग्नि’ देवों में सबसे पहले उत्पन्न हुआ। सबसे पहले होने से ही इसे ‘अग्नि’ कहा जाता है, यही इसकी अग्निता है अर्थात् आगे चलना
तद्वा एनमेतदग्रे देवानामजनयत तस्मादग्निः।
स जातः पूर्व प्रेयाय यो वै पूर्व एत्यग्रऽएतीति वै तमाहुः सोऽएवास्याग्निता।107
स यदस्य सर्वस्याग्रमसृज्यत तस्मादग्निः।108
आचार्य यास्क भी इसी बात की पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार ‘अग्नि’ को ‘अग्नि’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह सबसे आगे रहता है। यज्ञों में सर्वप्रथम वही ले जाया जाता है, जिस किसी को आश्रय देता हुआ यह अपने आधीन कर लेता है-
अग्निः कस्मात्। अग्रणीर्भवति, अग्रं यज्ञेषु प्रणीयते।
अङ्गं नयति सन्नममानः।109
वैदिक वाङ्मय तथा संस्कृत कोषों में अग्नि के अनेक नामों का उल्लेख हुआ है। वह्नि, वैश्वानर, जातवेदा, द्रविणोदः, इहम, हुताशन, ओज, अग्निहोत्रः, हविरशनः, तनूनपात्, नराशंस, बर्हिः, त्वष्टा, स्वाहाकृति, यज्ञः, वनस्पति, वैतरणः, शेवृधः, दधिक्रा, धृतप्रतीक, धृतपृष्ठ, अथर्व, विद्युत, क्रव्यादः, वृषभ, द्रवन्नः, सर्पिरासुतिः, पावकः, शुचिः, अन्नाद, पवमानः, नाचिकेत, वीतिहोत्रम्, ज्वलनः, अनलः, शुष्मा, देवयाज, ऊर्जा, हुतभुक्, दहनः, हव्यवाहन, उषर्वुधः, बृहद्भानुः, वायुसखा, कृशानुः, चित्रभानुः, विभावसुः, अप्पितम्, वडवानल, दावानल, सन्ताप, व्रतपति, तेजः, वृषाकपि, हविर्भुक्, सविता आदि। इनमें से अनेक नामों का उल्लेख यजुर्वेद वाङ्मय में उपलब्ध होता है।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि प्रजापति ने तप करके ‘अग्नि’ को मुख से उत्पन्न किया, इसलिए ‘अग्नि’ अन्नाद है। जो इस अन्नाद अग्नि को जानता है, वह स्वयं भी ‘अन्नाद’ हो जाता है-
प्रजापतिर्ह वाऽइदमग्रऽएक एवास। स ऐक्षत कथं नु प्रजायेयेति सोऽश्राम्यत्स तपोऽतप्यत सोऽग्निमेव मुखाज्जनकयाञ्चक्रे तद्यदेनं मुखादजनयत तस्मादन्नादोऽग्निः स स यो हैवमेतमग्निमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति।110
‘अग्नि’ को विज्ञान के आविष्कारों में सबसे बड़ा तथा आदि मानव का प्रथम आविष्कार माना गया है।111 ऋत के धरातल पर सर्वप्रथम अग्नि का जन्म होता है। इसलिए वेदों में अग्नि को ‘अपां गर्भः’ (जल का पुत्र) कहा गया है। इसका तात्पर्य यही है कि स्थिति के धरातल पर अग्नि का जन्म ही सृष्टि का कारण है।112
यजुर्वेद वाङ्मय में अग्नि के कई प्रकारों का उल्लेख है। जिस पर मनुष्य खाना पकाते हैं, वह ‘आमाद अग्नि’ है तथा मृत देह को जलाने वाली अग्नि को ‘क्रव्याद अग्नि’ कहा जाता है-
अग्निमामादं जहि निष्क्रव्यादं सेधेत्येयं वाऽआमाद्येनेदं मनुष्याः पक्त्त्वाश्नन्त्यथ येन पुरुषं दहन्ति स क्रव्यादेवेवैतदुभावतोऽपहन्ति।113
यज्ञ में प्रज्ज्वलित होने वाली अग्नि का नाम ‘देवयाज अग्नि’ है-
आ देवयज्ञं वहति यो देवयाट्तस्मिन्हवीषि श्रपयाम।114
पृथ्वी में विद्यमान अग्नि का नाम ‘पवमान’ है, अन्तरिक्ष में विद्यमान अग्नि को ‘पावक’ कहा जाता हैतथा द्यौलोक में विद्यमान अग्नि को ‘शुचि’ कहते हैं-
यदस्य पवमान रूपमासीत्तदस्यां पृथिव्यां
न्यधत्ताथ यत्पावकं तदन्तरिक्षेऽथ यच्छुचि तद्दिवि॥115
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मनुष्यों में प्राणरूप में विद्यमान ‘नृषद् अग्नि’ है, जलों मे विद्यमान ‘अप्सुषद् अग्नि’ कही जाती है, औषधियों में ‘बर्हिषद् अग्नि’ होती है तथा वन में विद्यमान अग्नि को ‘वनसद् अग्नि’ कहा जाता है-
प्राणो वै नृषन्मनुष्या नरस्तद्योऽयं मनुष्येषु प्राणोऽग्निस्तमेतत्-प्रीणात्यप्सुषदे वेडिति योऽप्स्वग्निस्तमेतत्प्रीणाति बर्हिषदे वेडिति यऽओषधि-ष्वग्निस्तेमेतत्प्रीणाति वनसदे वेडिति यो वनस्पतिष्वग्निस्तमेतत्प्रीणाति स्वर्दिदे वेडित्ययमग्निः स्वर्विदिममेवैतदिग्निं प्रीणाति॥116
पारस्कर ग्रह्य सूत्र के अनुसार विवाह के समय अथवा दायभाग का बंटवारा होने के पश्चात् आधान की जाने वाली अग्नि ‘आवसथ्याग्नि’ कही जाती है-
आवसथ्याधानं दारकाले दायाद्यकाले वा।117
इसी प्रकार यजुर्वेद वाङ्मय में अन्य अनेक प्रकार की अग्नियों का उल्लेख यत्र-तत्र उपलब्ध होता है।
अग्नि यजुर्वेद वाङ्मय में उल्लिखित प्रसिद्ध देवों में से एक है। पर्यावरण में अग्नि का अत्यधिक महत्व है।
यजुर्वेद में उल्लेख है कि अग्नि, द्युलोक का मूर्धा तथा पृथ्वी का पालक है। यह जलों के सार (वर्षण) को पुष्ट करता है-
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्।
अपां रेतां सि जिन्वति।118
अग्नि पृथ्वी का पालन करने वाला है। यह विद्युत तथा जाठराग्नि के रूप में प्राण अथवा जलों के वीर्य को उत्पन्न करके सब सुखों का सिद्ध करने वाला है। यह अग्नि द्युलोक का मस्तक ही है और बैल के पीठ पर जिस प्रकार ऊँचा भाग होता है, उसी तरह यह अग्नि विश्व में उच्च है। यह अन्तरिक्ष में रहकर वहाँ मेघमण्डल में जो जल के सत्त्वरूप वीर्य रहते हैं, उनमें विद्युत रूप से रहकर उत्तेजित करता है तथा सर्वत्र रहता हुआ अग्नि सबको प्रेरणा देता है और सबका उत्साह बढ़ाता है।119
अग्नि, शीत की औषधि है-
अग्निर्हिमस्य भेषजम्।120
अग्निर्वै हिमस्य भेषजम्।121
अग्नि, दोषों से छुड़ाने वाला तथा राक्षसों का संहार करने वाला है-
अग्निर्मा दुरिष्टात् पातु।122
अग्निः खलु वै रक्षोहा।123
अग्नि के द्वारा देवगण आहार ग्रहण करते हैं-
अग्निना वै देवाऽअन्नमदन्ति।
यह सर्वविदित ही है कि शीत से बचाव के लिए अग्नि का आश्रय लिया जाता है। चाँदी, सोना आदि धातुओं को अग्नि ही शुद्ध करती है तथा अग्नि के संसर्ग से ही इनके दोष दूर किए जाते हैं। अग्नि में यह गुण है कि यह सब प्रदूषकों को इसके संसर्ग में आने पर भस्म कर देती है अथवा दूर कर देती है। अग्नि का उचित उपयोग मनुष्य के लिए सदा कल्याण करने वाला है।
यजुर्वेद वाङ्मय से विदित होता है कि अग्नि का वर्षा कराने में भी महत्वपूर्ण योगदान है। अग्नि भूमि से वर्षा को खींचती है तथा वायु अन्तरिक्ष से वर्षा लाती है-
अग्निर्वा इतो वृष्टिमीट्टे मरुतोऽमुतश्च्यावयन्त्येते वै वृष्टया प्रदातारः।124
अग्नि ही शरीर की रक्षक है तथा तेज ओज एवं दीर्घायु देने वाली है-
तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाह्यायुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मेदेहि वर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि अग्ने यन्मे तन्वाऽऊनं तन्म आपृण।125
अर्थात् हे अग्नि! आप शरीर की रक्षा करने वाले, आयु देने वाले तथा वर्चस् देने वाले हैं। हे अग्ने! मेरे शरीर की रक्षा करते हुए वायु, वर्चस्, तेज देकर मेरे शरीर की प्रत्येक कमी को पूरा करो।
अग्नि ही जीवन-शक्ति को बढ़ाती है, स्नायु दुर्बलता दूर करती है तथा पाचन और मल-निष्कासन क्रियाओं को बल देती है। जठराग्नि के रूप में यही प्रदीप्त होती है। अग्नि ही खून को गति देती है तथा उष्ण (गर्म) और शुद्ध करती है। मांसपेशियाँ अग्नि के कारण ही सुदृढ़ होती है। सूर्य के रूप में यह अग्नि त्वचा-रोगों को दूर करती है, हड्डियों को मजबूत करती है तथा यह रक्त के अन्दर कैल्शियम, फास्फोरस तथा लोहे की मात्रा को बढ़ाती है और ग्रन्थियों के स्रावों में सन्तुलन पैदा करती है।
अग्नि का सबसे प्रथम तथा बड़ा स्रोत सूर्य है, जैसा कि यजुर्वेद में उल्लेख आता है-
दिवस्परि प्रथम जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परिजातवेदाः।
तृतीयमप्सु नृमणा अजस्त्रमिन्धान एनं जरते स्वाधीः॥126 (क्रमशः)
सन्दर्भ सूची
107. शतपथ ब्राह्मण 2.2.4.2
108. शतपथ ब्राह्मण 6.1.1.11
109. निरुक्त 7.4
110. शतपथ ब्राह्मण 2.2.4.1
111. वैज्ञानिक विकास की भारतीय पम्परा,
डॉ. सत्यप्रकाश
112. वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति,
म.म. गिरधर शर्मा चतुर्वेेदी
113. शतपथ ब्राह्मण 1.2.1.4
114. शतपथ ब्राह्मण 1.2.1.5
115. शतपथ ब्राह्मण 2.2.1.14
116. शतपथ ब्राह्मण 9.2.1.8
117. पारस्कर गृह्यसूत्र 1.2.1
118. यजुर्वेद संहिता 3.12
119. यजुर्वेद का सुबोध भाष्य,
श्रीपाद्दामोदर सातवलेकर
120. यजुर्वेद संहिता 23.10
121. शतपथ ब्राह्ममण 7.3.2.16
122. तैत्तिरीय संहिता 1.6.3.1
123. तैत्तिरीय संहिता 1.6.4.6
मैत्रायणी संहिता 1.10.5
काठक संहिता 35.20, 8.4
तैत्तिरीय संहिता 1.6.3.1, 6.1.4.6
124. मैत्रायणी संहिता 2.18
125. यजुर्वेद संहिा 3.17
पारस्कर गृह्यसूत्र 2.4.7-8
126. यजुर्वेद संहिता 12.21
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