विशेष :

इन्द्र बनो

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ओ3म् इन्द्रो जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै।
चर्कृत्य ईड्यो वन्द्यश्‍चोप सद्यो नमस्यो भवेह॥ (अथर्ववेद 6.98.1)

शब्दार्थ- (इन्द्र) इन्द्र, आत्मशक्ति से सम्पन्न मनुष्य (जयाति) विजय प्राप्त करता है(न परा जयातै) उसकी कभी भी पराजय नहीं होती (राजसु) राजाओं में (अधिराजः) वह अधिराज बनकर (राजयातै) चमकता और दमकता है। अपने जीवन में उस इन्द्र का शासन स्थापित करके ए मानव! तू भी (इह) इस संसार में (चर्कृत्यः) अपने विरोधियों को परास्त कर दे, आदर्श, श्रेष्ठ एवं शुभ कर्म कर। तू (ईड्यः) सबके लिए स्तुत्य (वन्द्यः) वन्दनीय (उपसद्यः) पास बैठने योग्य, अशरणों की शरण (च) और (नमस्यः) आदरणीय (भव) हो, बन।

भावार्थ- इन्द्र का, आत्मवान् व्यक्ति की सर्वत्र विजय होती है। वह जहाँ भी जाता है विजयश्री उसके गले में विजयमाला डालने के लिए खड़ी रहती है। आत्मवान् व्यक्ति की पराजय नहीं होती। राजाओं में वह अधिराज बनकर सबसे ऊपर स्थित होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में इन्द्र का शासन स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने से वह अपने शत्रुओं को दबाने में समर्थ होगा और शुभ तथा अनुकरणीय कर्म करने योग्य बनेगा। ऐसा व्यक्ति लोगों की प्रशंसा का पात्र बन जाता है। वह सभी के लिए वन्दनीय हो जाता है। लोग उसके पास बैठकर उसे अपना दुःख-दर्द सुनाते हैं। इस प्रकार वह अशरणों की शरण बन जाता है। ऐसा व्यक्ति सभी के लिए आदरणीय होता है। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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