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जल पर्यावरण (1)

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जल प्रकृति का वह संसाधन है, जो ब्राह्माण्ड में सृष्टि को बनाए रखने में एक अत्यावश्यक तथा महत्वपूर्ण घटक की भूमिका निभाता है। आज भौतिकवाद की चकाचौन्ध में मानव द्वारा जिस तीव्रता एवं क्रूरता से नदी, पर्वत, जंगल, औषधि-वनस्पति, जमीन, जीव-जन्तु आदि प्रकृति के अक्षय भण्डारों का दोहन किया जा रहा है,

उसी को ध्यान में रखते हुए अन्तरराष्ट्रीय संगठन, वैज्ञानिक तथा पर्यावरण विशेषज्ञ अब स्पष्ट घोषणा करने लगे हैं कि ‘पेयजल’ का संकट आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती होगा। आज संसार ऐसे संक्रमणकाल से गुजर रहा है, जहाँ मनुष्य उपयोगी एवं पेयजल के अस्तित्व को दूभर किए हुए है।

प्राचीन मनीषियों द्वारा जल की अत्यधिक उपादेयता एवं गुणों को ध्यान में रखते हुए ही इसके विभिन्न नाम दिए गए हैं। वैदिक कोश ‘निघण्टु’ में जल के एकसौ एक नामों का उल्लेख है- अर्णः, क्षोदः, क्षद्म, नभः, अम्भः, कबन्धम्, सलिलम्, वाः, वनम्, घृतम, मधु, पुरीषम्, पिप्पलम्, क्षीरम्, विषम्, रेतः, कशः, जन्म, बृबूकम्, बुसम्, तुग्र्या, बुर्बुरम्, सुक्षेम, धरूणम्, सुरा, अररिन्दानि, ध्वस्मन्वत्, जामि, आयुधानि, क्षपः, अहिः, अक्षरम्, स्रोत, तृप्ति, रसः, उदकम्, पयः, सरः, भेषजम्, सहः, शवः, यहः, ओजः, सुखम्, क्षत्रम्, आवयाः, शुभम्, यादुः, भूतम्, भुवनम्, भविष्यत्, आपः, महत्, व्योम, यशः, महः, सर्णीकम्, स्वृतीकम्, सतीनम्, गहनम्, गभीरम्, गम्भरम्, ईम, अन्नम्, हविः, सदम्, सदनम्, ऋतम्, योनिः, ऋतस्य योनिः, सत्यम्, नीरम्, रयिः, सत्, पूर्णम्, सर्वम्, अक्षितम्, बर्हिः, नाम, सर्पिः, अपः, पवित्रम्, अमृतम्, इन्दुः, हेम, स्वः, सर्गाः, शम्बरम्, अभ्वम्, वपुः, अम्बु, तोयम्, तूयम्, कृपीटम्, शुक्रम्, तेजः, स्वधा, वारि, जलम्, जलाषम्, इद्म।43 इनमें से अनेक नामों का उल्लेख यजुुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है।

जल तत्व सृष्टि का जीवन है। यह अपनी अनेक स्थितियों, परिवर्तनों एवं रूपों से विविध स्थानों में विश्‍व का पालन-पोषण कर रहा है। सृष्टि-निर्माण के मौलिक तत्व को जल, सलिल, अम्भस्, कुहक आदि शब्दों से भी अभिहित किया जाता है।44 यजुर्वेद में ‘सरिरं छन्दः’45 कहकर इस सरिस अर्थात् सलिल के छादन कर्म एवं छादन स्थिति की व्यापकता को ब्राह्माण्ड के चारों ओर भी इंगित किया गया है।

जल तत्व समस्त ब्रह्माण्ड को आवृत किए रहता है तथा इसी अम्भस् के आवरणों में से सृष्टि को जीवन तत्व प्राप्त होता रहता है। मातृ-गर्भ में जिस प्रकार शिशु के चारों और कलल-रस विद्यमान रहता है तथा उस कलल-रस से शिशु का संवर्धन एवं पोषण होता रहता है, उसी प्रकार इस महान् ब्रह्माण्ड के चारों ओर रजस् या कुहक स्थिति में जल विद्यमान रहता है।46

प्रकृति ने मानव को अनेक वरदान दिए हैं। इनमें स्वच्छ-निर्मल जल का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्राचीन काल में नदियों के किनारे मानव सभ्यता का विकास जल की महत्ता को प्रदर्शित करता है। नदियों को देवी तथा जल को देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। वर्तमान में भी यह प्रक्रिया जारी है। संसार के बड़े-बड़े नगर नदियों के किनारे फल-फूल रहे हैं।

वैदिक वाङ्मय में जल की बड़ी महिमा है। जल को जीवन कहा गया है। क्योंकि जल के बिना किसी भी तरह का जीवन सम्भव नहीं है। जल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है।

यजुर्वेद वाङ्मय में जलों के अन्दर अमृत तथा भेषज गुण बतलाए गए हैं-
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्।47
आप एता औषधयः।48
आपो वा औषधयः।49

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि जल औषधियों का रस है-
आपो ह वा औषधीनां रसः।50

अनेक स्थानों पर इसे अमृत कहा गया है-
अमृतमापः।51
अमृतं वा आपः।52

सृष्टि के प्रारम्भ में चारों तरफ जल ही जल था-
आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्।53
आपो ह वा इदमग्र सलिलमेवास।54

शतपथ ब्राह्मण में जलों को सबका जनक कहा गया है-
आपो वै जनयोऽद्भ्योहीदं सर्वं जायते।55

तैत्तिरीय आरण्यक में उल्लेख है कि जल समस्त लोकों का आधार है-
इमे वै लोका अप्सु प्रतिष्ठितः।56

तैत्तिरीय ब्राह्मण में जल को ‘प्राण’ कहा गया है-
प्राणा वा आपः।57

जल का अत्यधिक महत्व होने के कारण ही इसे ‘जीवन’ नाम दिया गया है। किन्तु यह जीवन, अमृत, औषध तथा प्राण आदि तभी कहा जा सकता है, जब यह शुद्ध हो। अशुद्ध जल मारक भी बन जाता है। ‘निघण्टु’ में जल के 101 नामों में जहाँ एक नाम ‘अमृत’ अर्थात् मृत्यु से बचाने वाला है, वहीं उसका नाम ‘विष’ भी है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध जल जीवन का साधन बनता है, तो अशुद्ध जल मृत्यु का। जहाँ पानी जीवन रक्षक है, वहीं अशुद्ध पेयजल घातक रोगों का कारण भी होता है। डायरिया, गैस्ट्रोएंटाइटिस, कालरा, पीलिया और डिसण्ट्री आदि बीमारियां पानी द्वारा ही फैलती हैं।58

सामान्यतया प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन कम से कम तीस से चालीस लीटर पानी का उपयोग अवश्य करता है। पीने के अतिरिक्त पानी नहाने, कपड़े धोने, भोजन बनाने तथा घर की साफ सफाई के लिए भी काम में लाया जाता है। इस प्रकार पानी जीवन का एक आवश्यक अंग है।

यजुर्वेद में जल को पवित्र करने वाला, अग्रगन्ता तथा यज्ञ एवं यजमान को आगे ले जाने वाला कहा गया है-
देवीरापो अग्रेगुवो अग्रेपुवोऽग्र इममद्य यज्ञं
नयताग्रे यज्ञपतिं सुधातुं यज्ञपतिं देवयुवम्॥59

जल सुख देने वाला तथा नीरोग करने वाला है-
इमा आपः शमु मे सन्तु देवीः॥60

शुद्ध जल आरोग्यदायक और शरीर को शक्ति देने वाले होते हैं, वृद्धि प्रदान करते हैं, कण्ठस्वर को ठीक करते हैं तथा दृष्टिशक्ति बढाते हैं-
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।61

जिस प्रकार, सन्तान का हित चाहने वाली माताएँ सन्तान को अमृत रूप दूध पिलाती हैं, वैसे ही शुद्ध जल भी अपना कल्याणकारी अमृत रस प्रदान करते हैं-
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः।
उशतीरिव मातरः।62

यह जल सबको तृप्त करने वाला, जनन कार्य में सहभागी तथा हितकारी है-
तस्मा अरं गमामः वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आप जनयथा च नः ॥63

निम्न मन्त्र में कामना की गई है कि शुद्ध जल हमारा अभीष्ट सिद्ध करने वाला, सबका कल्याण करने वाला, तृषा शान्त करने वाला हो तथा रोग निवारण और अनिष्ट दूर करने के लिए बहता रहे-
शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥64

शुद्ध जल माताओं के समान पवित्र करने वाले होते हैं। वे समस्त प्रकार के प्रदूषण को बहा ले जाते हैं। उनसे नीरोग होकर मनुष्य उद्यमी हो जाता है-
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व पुनन्तु।
विश्‍वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदादिभ्यः शुचिरा पूत एमि॥ 65

शुद्ध जलों में ऊर्जा, अमृत, तेज एवं पोषक रस का निवास होता है-
ऊर्जं वहन्तीरमृतं धृतं पयः कीलालं परिस्रुतम्॥ 66
(सन्दर्भ-विवरण अगले अंक में दिया जाएगा।)

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