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ईश्‍वरीय भाव ही ऐश्‍वर्य हैं

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ईश्‍वरीय भाव ही ऐश्‍वर्य कहलाते हैं। अब ये भाव किसी हृदय के श्रृंगार बन जाते हैं, तभी वह सही अर्थों में ऐश्‍वर्य-सम्पन्न माना जा सकता है। जब ये ही भाव मस्तिष्क की ज्ञानशक्ति से सम्पन्न होकर कर्म में ढलने लगते हैं, तो वह व्यक्ति कर्मयोगी बन जाता है। ऐसे ही एक कर्मयोगी का आविर्भाव दिवस इस वर्ष 20 अप्रैल को है । उस कर्मयोगी का नाम है सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य। इस कर्मयोगी के कृतित्व का जन्म उस समय में होता है, जब सिकन्दर अपने विश्‍वविजय के अभियान पर ईरान, इराक, अफगानिस्तान को रौंदता हुआ भारत की ओर आगे बढ़ा। उसने तक्षशिला को जीतने के बाद आसपास के क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया था। इसके बाद वह अपने देश को लौट गया अवश्य, किन्तु इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत छिन्न-भिन्न शक्ति है। वह छोटे-छोटे राज्यों और जनपदों में विभाजित है। उनमें एकता नहीं है। भारत में मिलजुलकर विदेशी आक्रमण का सामना करने का सामर्थ्य नहीं है। सभी राज्य अपने-अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे से टकरा रहे हैं। इस स्थिति को तक्षशिला गुरुकुल के दंडनीति शस्त्र (राजनीति) के विभाग प्रमुख आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की मर्मभेदी दृष्टि ने भांप लिया और माना कि भविष्य में होने वाले किसी भी आक्रमण का सामना करने में भारत समर्थ नहीं है। उन्होंने उस कर्मयोगी व्यक्तित्व की खोज करना प्रारंभ किया जो भारत को एकता के सूत्र में बांध सके और किसी भी विदेशी आक्रमण का सामना कर सके। उस महापुरुष के लिए यह कहा जा सकता है कि- एक ओर वैदिक ऋषि थे वे, और कृष्ण से थे ज्ञानी । अन्ततः वे भारत को सुसंगठित करने और उसमें आत्मगौरव जगाने के अभियान पर निकल पड़े। इस अभियान में मगध सम्राट नन्द से सहयोग मिलने के स्थान पर भारी अपमान मिला। वे निराश नहीं हुए और प्रतिज्ञाबद्ध होकर बोले- शिखा बंधेगी उसी समय, जब नन्दवंश का होगा नाश। अभियान आगे बढ़ा।

परम सौभाग्य की बात थी कि ऐसे समय में नवप्रभात की रक्तवर्ण किरण के समान ओजस्वी-तेजस्वी-मनस्वी एक नवयुवक उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। चन्द्रगुप्त था नाम युवा का, मौर्य वंश का राजकुंवर। मन में ऐसा स्वप्न लिए था, जैसा था रखते गुरुवर॥ आचार्य के मन का संकल्प सामने उपस्थित हो गया। उसको मूर्त रुप देने का समय आ गया था। उन्हें एक साथ विश्‍वामित्र, वशिष्ठ और राम का स्मरण हो आया और योगेश्‍वर श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दी गई शिक्षा मन-मस्तिष्क में गूंजने लगी। शिक्षण प्रारंभ हुआा। शीत ऋतु की शीतलता क्रमशः समाप्त होकर अप्रैल की उष्णता बढ़ने लगी। सूर्य की तेजस्विता चन्द्रगुप्त में अवतरित होने लगी। जिस प्रकार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख स्वीकार किया था कि ‘प्रभु मुझे स्मृति प्राप्त हो गई है। अब तो जैसा आप कहेंगे वैसा ही करूँगा।’ चन्द्रगुप्त ने आचार्यश्री से निवेदन किया कि- आप मुझे अपने संकल्पों का साधन बना लीजिए।

गुरु-शिष्य की उस महान ज्योति ने सम्पूर्ण भारत को प्रकाशित कर दिया। सम्पूर्ण भारत न केवल बंधी मुट्ठी की तरह एकता के सूत्र में बंध गया, बल्कि राष्ट्र और राष्ट्रीयता के लिए सम्पूर्ण के समर्पण का भाव जाग्रत हो गया। सुसंगठित राष्ट्रभक्ति के रुप में भारत मस्तक ऊँचा कर खड़ा हो गया था। उसी समय यूनान का क्रूर योद्धा सेल्यूकस विशाल सेना लेकर भारत की विराट शक्ति से आ टकराया। किन्तु वह अपना अस्तित्व ही खो बैठा। पराजित यूनान ने भारत के साथ संधि की, जिसके प्रतिफलस्वरूप हमने उत्तर में उस सीमा को पा लिया था, जिसे आगे के कोई भी शासक पा नहीं सके थे। उस समय भारत अपने पूर्ण यौवन पर आ चुका था।

चन्द्रगुप्त के समक्ष सम्राट का पदभार संभालने का प्रस्ताव आने पर उसका उत्तर था- “गुरुदेव आपकी शिक्षा-दीक्षा ने मुझे ‘क्षात्र-धर्म’ का पाठ पढ़ाया है। आततायियों से देश की रक्षा करना मेरा धर्म है। यह मेरा सर्वप्रथम उत्तरदायित्व है।’’ इस कथन पर साधुवाद देते हुए आचार्य ने कहा- “इसी के साथ तुम्हें सम्राट बनकर सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ आर्यत्व की पुनर्स्थापना भी करनी है।’’ चन्द्रगुप्त ने इस आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए भारत को महान् चरित्रवान राष्ट्र के रूप में उभार दिया था, जिसकी प्रशंसा में चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी यात्रा के विवरण में लिखा है- “चन्द्रगुप्त के शासनकाल में भारतीयों का चरित्र महानता के शिखर पर दिखाई दिया। लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे। यदि कोई स्त्री बेहोशी की अवस्था में चौराहे पर गिर पड़े तो हवा की भी मजाल नहीं थी कि वह उसके वस्त्र हटा सके।“

सम्राट चन्द्रगुप्त में हमें मातृसंस्कृति और मातृभूमि की रक्षा के एक साथ दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति और भारतभूमि पर मंडराते खतरों को देखते हुए वर्तमान स्थिति में महामति सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अनुकरणीय पात्र हैं। अप्रैल का महिना भगवान सूर्य के प्रखर ताप का समय है। वे अपनी पूर्ण ऊर्जा एवं ओजस्विता के साथ अवतरित होते हैं । चन्द्रगुप्त इसी ऊर्जा के अवतार थे। वही ऊर्जा हम भारतीयों में प्रखर रुप से विकसित हो, ऐसी सूर्य देव से प्रार्थना है। ईश्‍वरीय भाव ही सच्चा ऐश्‍वर्य है। धियो यो नः प्रचोदयात्। - जगदीश दुर्गेश जोशी

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