प्रत्येक कार्य एवं संगठन किसी नायक द्वारा ही आगे बढता है। अतः प्रत्येक परिवार, संस्था, संगठन का एक नेता, नियामक होता है। ऐसे ही विश्व में कार्य कर रहे सूर्य-चन्द्र, जल-वायु आदि प्राकृतिक तत्त्वों का भी कोई एक नायक है। ये सारे प्राकृतिक पदार्थ और विश्व के सारे प्राणी उसी की ही व्यवस्था में बन्धे हुए अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। तभी तो वेद (यजुर्वेद 13.4, ऋग्वेद 10.121.1) कहता है- भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। इस सारे विश्व के नियामक परमेश्वर के प्रत्यक्ष नियमों को मानना और उसकी इस व्यवस्था के अनुसार हमारा जिससे जो सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध को सम्बन्ध के अनुरूप सचाई के साथ निभाना, पालना एक यथार्थ बात है।
विविध नाम- सारे संसार का संचालन करने वाली सत्ता का वेद ने केवल एक नाम से नाम निर्देश नहीं किया है। अपितु हजारों मन्त्रों में अनेक नामों से इसका चित्रण मिलता है। वेद स्वयं इसका संकेत करते हुए कहता है कि इस संज्ञा का संज्ञापन, नामांकन विविध नामों, शब्दों से किया गया है। जैसे कि कहा गया है-
ओ3म् इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ (ऋग्वेद 1.164.26 अर्थववेद 9.10.26)
मन्त्र के अनुरूप अर्थ- इन्द्र को, मित्र को, वरुण को, अग्नि को कहते हैं कि वह दिव्य, सुपर्ण और गरुत्मान है। अनेक नामों वाले एक तत्व अग्नि-यम-मातारिश्वा को ही विप्र बहुत तरह से कहते हैं। मन्त्र में जो-जो शब्द (इन्द्र आदि) द्वितीया विभक्ति में हैं, उनके वाच्य को दिव्य, सुपर्ण और गरुत्मान् भी कहते हैं। अर्थात इन्द्र आदि नाम वाला ही दिव्य, सुपर्ण और गरुत्मान जैसे नाम वाला भी है।
शब्दार्थ- विप्राः = समझदार, विशेष ज्ञान वाले एकम् सत्= एक को ही बहुधा= बहुत प्रकार से, बहुत सारे शब्दों से वदन्ति= पुकारते हैं, कहते हैं। जैसे कि उस एक तत्व, रूप वाले इन्द्रम्= इन्द्र= ऐश्वर्यवान, राजा रूप को, मित्रम् = मित्र=स्नेहयुक्त को वरुणम् = वरुण = वरणीय, श्रेष्ठ को, अग्निम् = अग्नि = अग्रणी प्रकाशस्वरूप को आहुः =बुलाते हैं। अथ = और अग्निम् = अग्नि को यमम् = यम (=सबको यमन = नियन्त्रण में रखने वाले) को मातरिश्वानम् = मातरिश्वा = आकाश, अन्तरिक्ष में विचरने-रहने वाले को ही आहुः = कहते हैं कि स उ = वह ही दिव्यः = दिव्य, चमकीला, प्रकाश युक्त, अनोखा सुपर्णः = सुपर्ण = अच्छे पालन रूपी पर्ण वाला, उड़ान जैसे आगे बढ़ने के कार्य करने को वाला, गरुत्मान्= गुरु-आत्मा = गौरवशाली, महान स्वरूप वाला है। अर्थात इन नामों वाला भी वह है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह अनेक नाम वाला है।
व्याख्या- इस मन्त्र में तीन क्रियावाचक शब्द हैं। यहाँ दो बार आहुः है, तो एक बार वदन्ति है। यहाँ अग्निम् नामपद भी दो बार आया है। अतः अनेकों ने एक को विशेष्य पद और दूसरे को विशेषण रूप में माना है। मन्त्र का तीसरा चरण स्पष्ट है। शेष पाद अपने-अपने स्थान से इधर-उधर करने पर ही अर्थ योजना में जचाए जा सकते हैं। इसी दृष्टि से शब्दार्थ में यह क्रम अपनाया है। आहुः और वदन्ति बहुवचन की क्रिया जहाँ विप्राः के साथ संगत होती है, वहाँ दिव्य- सुपर्ण-गरुत्मान् के साथ भी बहुत्व दर्शाती है। इस मन्त्र के तीसरे चरण से मिलता हुआ एक और मन्त्र है- सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्त बहुधा कल्पयन्ति। (ऋग्वेद 10.114.5) अर्थात् ज्ञानी, कवि एक सत्ता, रूप वाले सुपर्ण को अनेक वचनों = शब्दों, नामों से प्रस्तुत करते हैं।
एकं सत् एकं सन्तम्। पूर्व मन्त्र के एकं सत् शब्द और इस मन्त्र के एकं सन्तं शब्द भी विशेष ध्यान देने योग्य हैं। दोनों का भाव एक ही है कि एक को ही अर्थात् जिसकी सत्ता एक रूप में ही है। एक होने से ही वह सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ आदि गुणयुक्त सिद्ध होता है। अन्यथा एक से अधिक रूप में होने पर सर्वव्यापक आदि शब्द, गुण चरितार्थ नहीं होंगे।
वेद के सैकड़ों मन्त्रों में ईश्वर को एक ही कहा है। उदाहरण के लिए कुछ मन्त्रांश यहाँ उपस्थित हैं, जैसे कि-
य एक इत् तमुष्टुहि। (ऋग्वेद 6.45.16)
शब्दार्थ- यः= जो एकः इत् = एक ही है तम् = उसका उ = ही स्तुहि = स्तवन, कीर्तन, भजन कर।
दिव्या गन्धर्वो भुवनस्य यस्पति।
एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः॥ (अथर्ववेद 2.2.1)
शब्दार्थ- यः= जो भुवनस्य = इस उत्पन्न होने वाले लोक-लोकान्तरों का पतिः= पालक, स्वामी है तथा दिव्यः= अनोखा, प्रकाशयुक्त गन्धर्वः = गौर शब्द से पुकारे जाने वालों का धारक है। ऐसा वही एक एव = एक ही विक्षु = प्रजाओं में, प्रजाओं के लिए नमस्यः= नमन के योग्य, वन्दनीय, आदर-सत्कार-पूजा-अर्चना-उपासना के योग्य है और ईड्यः = स्तुति, कथन, गायन के योग्य है।
भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यः सुशेवः। (अथर्ववेद 2.2.2)
इस मन्त्रांश में एक सुशेव शब्द को छोड़कर शेष पहले जैसे ही हैं सुशेवः= सुखस्वरूप, सुखदाता। अतः वही एक परम तत्व ही सभी के द्वारा मान योग्य है।
यो देवेष्वधि देव एक आसीत्। (ऋग्वेद 10.121.8)
शब्दार्थ- यः= जो देवेषु = सूर्य-चन्द्र आदि विविध देवों में से एकः= एक अधि देवः = विशेष अधिकारयुक्त देव आसीत् = अधिष्ठाता रूप में पूर्व में भी विराजमान था और आज भी साधिकार उपस्थित है। वही परम सत्ता एक होती हुई ही अनेक नामों से पुकारी जाती है। ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 121 वें सूक्त के अनेक मन्त्रों में परमदेव को एक ही कहा गया है।
वेद के शब्द प्रकृति (धातु, प्रथम मूल अंश) + प्रत्यय (साथ जुड़ा अंश) से बनने के कारण इनके अनुरूप ही अपने अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं। इसी प्रक्रिया के आधार पर ही महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में अग्नि, इन्द्र आदि एक सौ आठ नामों का ईश्वर परक अर्थ भी दर्शाया है। यह सारा विवेचन वहाँ व्याकरण-निरूक्त प्रक्रिया के अनुरूप ही स्पष्ट किया गया है। यह तथ्य केवल उन्हीं मन्त्रों में ही वर्णित नहीं हुआ है, अपितु वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों, मनुस्मृति आदि अन्य ग्रन्थों में भी समझाया गया है। इसी दृष्टि से यजुर्वेद (32.1) का एक मन्त्र है-
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः ॥
भावार्थ- वही तत्व ही अग्नि, वही आदित्य, वही वायु और वही चन्द्रमा, वह ही शुक्र, वह ही ब्रह्म, वह ही आपः तथा वह ही प्रजापति नाम वाला है।
व्याख्या सहित शब्दार्थ- तत् एव अग्निः= वह प्रसिद्ध, पूर्व प्रतिपादित ही अग्नि है, तद् आदित्यः = वह आदित्य है और अदिति से आदित्य बनता है। अदिति = अखण्डित, अविनाशी, नित्य, सदा एकसा रहने अर्थ में आता है। ये सब शब्द, नाम परमात्मा के लिए भी आते हैं। इसी ओर ध्यान दिलाने के लिए सबके साथ तत् सर्वनाम का प्रयोग किया गया है । इसी को और पुष्ट करने के लिए उ और एव आए हैं।
इस सारे विवेचन का सारांश यही है कि वेद में यत्र-तत्र अग्नि, इन्द्र आदि के वर्णनों में जो गुण, विशेषण, कर्म दर्शाए गए हैं, वे परमेश्वर में ही चरितार्थ होते हैं।वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 7 | Explanation of Vedas | मानव निर्माण की वैदिक योजना एवं जीवन में सुखी रहने के उपाय