विशेष :

हिंसा मत करो

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ओ3म् मा स्रेधत सोमिनो दक्षता महे कृणुध्वं राय आतुजे।
तरणिरिज्जयति क्षेति पुष्यति न देवासः कवत्नवे॥ (ऋग्वेद 7.32.9)

शब्दार्थ- हे ऐश्‍वर्यशाली लोगो ! (मा स्रेधत) हिंसा मत करो (महे) वृद्धि के लिए (दक्षत) सदा यत्न करते रहो। (आतुजे राये) सर्वतो महान् अध्यात्म ऐश्‍वर्य के लिए (कृणुध्वम्) कठोर साधना करो। (तरणिः इत्) नौका के समान संकट को पार करने वाला पुरुषार्थी मनुष्य ही (जयति) विजय प्राप्त करता है (क्षेति) बसता और बसाता है (पुष्यति) पुष्ट और समृद्ध होता है, फलता और फूलता है। (देवासः) दिव्यगुण (कवत्नवे) दुराचार के लिए (न) नहीं होते।

भावार्थ- मन्त्र में जीवन को उन्नति-पथ की ओर ले जाने वाली कई सुन्दर शिक्षाएं हैं-
1. हे शान्ति चाहने वाला लोगो ! परस्पर हिंसा और मार-काट मत करो। एक-दूसरे का घात-पात कर अपने देश को नष्ट मत करो।
2. एक-दूसरे की वृद्धि के लिए, भलाई और कल्याण के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए।
3. ‘ब्रह्मतेजो बलं बलम्’ (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 56.33) ब्रह्मतेज ही वास्तविक बल है। उस आध्यात्मिक बल और ऐश्‍वर्य की प्राप्ति के लिए कठोर साधना करो।
4. जो दूसरों को तारने वाले हैं, परोपकार करने वाले हैं, उजड़ों को बसाने वाले हैं, वे ही संसार में विजय प्राप्त करते हैं, वे ही समृद्ध होते हैं, फलते और फूलते हैं।
5. दिव्य-गुणों को प्राप्त कर सदाचार में ही प्रवृत्त रहना चाहिए, दुराचारी और लम्पट नहीं बनना चाहिए। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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