जो मनुष्य ऋतु के अनुसार अर्थात् किस ऋतु में कौन सा आहार-विहार अनुकूल होता है और कौन सा प्रतिकूल, इन सब बातों को ठीक-ठीक जानकर उसके अनुसार अपनी ऋतुचर्या अपनाता है, उसी मनुष्य के अशित, पीत, लीढ़ तथा खादित चतुर्विद आहार से शरीर में बल-वर्ण की अभिवृद्धि होती रहती है।
ऋतु विभाग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष को छः भागों में विभाजित किया गया है, जिन्हें छः ऋतुएँ कहा जाता है। इन छः ऋतुओं को दो प्रमुख कालों में समाहित किया गया है। वे दो काल है- प्रथम आदान काल और द्वितीय विसर्ग काल। प्रथम आदान काल में सूर्य उत्तर दिशा की ओर गति करता हुआ दिखता है, अतः उसे उतरायण काल भी कहते हैं। द्वितीय विसर्ग काल में सूर्य की गति दक्षिण दिशा की ओर से होती दिखती है, अतः इसे दक्षिणायण भी कहते हैं।
1. आदान काल का परिचय- इस काल में माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख, ज्येष्ठ-आषाढ़ मास होते हैं। शिशिर, बसन्त और ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। सूर्य उतरायण होता है। यह काल अग्निगुण प्रधान अर्थात आग्नेय होता है। वायु अत्यन्त रुक्ष बहती है। चन्द्रमा का बल क्षीण होता है तथा सूर्य का बल अधिक रहता है। सूर्य तथा वायु सांसारिक वस्तुओं का शोषण करते हैं एवं रुक्ष, तिक्त, कषाय व कटु रसों की वृद्धि होती है। इस काल में क्रमशः दुर्बलता आती है।
2. विसर्ग काल का परिचय- इस काल में श्रावण-भाद्रपद, आश्विन-कार्तिक, मार्गशीर्ष-पौष मास होते हैं। वर्षा, शरद और ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। सूर्य दक्षिणायन होता है। यह काल सौम्य अर्थात् शीत गुणप्रधान होता है और वायु में रुक्षता की अधिकता नहीं होती है। चन्द्रमा का बल अधिक रहता है एवं सूर्य का बल क्षीण रहता है। चन्द्रमा सांसारिक वस्तुओं को अपनी शीतल चाँदनी से तृप्त करता रहता है। इस काल में स्निग्ध, अम्ल, मधुर तथा लवण रसों की वृद्धि होती है एवं क्रमशः बल की प्राप्ति होती रहती है। तात्पर्य यह है कि आदान काल उष्ण होता है, क्योंकि इस समय सूर्य की उष्ण एवं तीक्ष्ण किरणें सीधी भूमण्डल पर पड़ती हैं। उनके सम्पर्क से वायु भी रुक्ष एवं उष्ण हो जाता है और वह भूमण्डल के स्थावर-जांगम प्राणियों को सुखाने लगता है अर्थात् चन्द्रमा जितना उनको आर्द्र करता है, उससे अधिक वायु सुखा डालता है। फलस्वरूप औषधियों में तिक्त आदि रस प्रबल हो जाते हैं और उनका उपभोग करने वाले प्राणी भी दुर्बल हो जाते हैं या होते जाते हैं।
इसी प्रकार विसर्ग काल आदान काल की अपेक्षा शीतल होता है और उनमें बादल छाये हुए तथा वर्षा हो जाने के कारण वायु शीतल, आर्द्र और नमीयुक्त हो जाता है तथा भूमण्डल का सन्ताप शान्त हो जाता है। चन्द्रमा की ओर से ओस के रूप में बरसने वाला अमृत पाकर विश्व के प्राणी पुष्ट एवं सबल होने लगते हैं।
इस काल चक्र के अनुसार इन दिनों अर्थात् नवम्बर-दिसम्बर माह में हेमन्त ऋतु आती है । इसमें मार्गशीर्ष-पौष माह की गणना की जाती है। तो आइये, इस अंक में आपको हेमन्त ऋतु की चर्या के सम्बन्ध में बतायेंगे, ताकि शरीर स्वस्थ रहे और हमारे शरीर में किसी प्रकार से दोषों में विषमता ना आये।
हेमन्त ऋतुचर्या- हेमन्त ऋतु में शीतल वायु के स्वाभाविक स्पर्श होने से बलवान पुरुषों की बहुत दिनों तक रुकावट को प्राप्त जठराग्नि शक्तिशाली व प्रबल हो जाती है और वह बढ़ी हुई जठराग्नि भारी एवं गरिष्ठ भोजन को भी पचाने में सक्षम हो जाती है। शरीर पर शीतऋतु का प्रभाव पड़ने से शिराओं के मुख भागों में संकोचन क्रिया हो जाती है, जिससे शारीरिक उष्मा बाहर नहीं निकल पाती। इस प्रकार शारीरिक शक्ति सम्पन्न मनुष्यों की जठराग्नि और अधिक प्रबल हो जाती है। वह बलवान जठराग्नि जब आहार रूपी उचित ईंधन को प्राप्त नहीं करती, तब वह बढ़ी हुई अग्नि शरीर में स्थित रस धातु का विनाश कर देती है, फलस्वरूप वायु का प्रकोप हो जाता है।
आहार- इसलिए हेमन्त ऋतु में स्निग्ध घी, तैल आदि से युक्त, अम्ल तथा लवण रस युक्त भोज्य प्रदार्थों का एवं दूध से बने पदार्थों का निरन्तर सेवन करना चाहिए। हेमन्त ऋतु में दूध तथा उससे बनने वाले पदार्थ, ईंख से बनने वाले पदार्थ गुड़, खाण्ड आदि, तैल, घृत, नये चावलों का भात, उड़द की दाल एवं उष्ण जल का सेवन करने वाले मनुष्यों की आयु क्षीण नहीं होती अर्थात् वे दीर्घायु तथा स्वस्थ रहते हैं।
विहार- इस ऋतु में प्रत्येक दिन प्रातः काल तेल की मालिश करे एवं स्निग्ध पदार्थों से पूरे शरीर पर उबटन लगाये। शिर में तेल लगाना चाहिये। कभी-कभी पूरे शरीर से पसीना निकल जाये, इस प्रकार से स्वेदन करना चाहिए। धूप का सेवन करें। गरम मकान या तहखाने में ही निवास करना चाहिए, ताकि शीत न लगे।शीतकाल में वाहन, शयन कक्ष, बैठक कक्ष अथवा भोजन कक्ष चारों ओर से घिरा या ढका हुआ होना चाहिये। शय्या आदि पर ओढ़ने के कम्बल, रजाई हों तथा गरम वस्त्रों को धारण करना चाहिए। यह समय आनन्द प्राप्त करने का है। अतः सभी प्रकार के सुख भोगों की पूर्ति, मात्रा और नियम के अनुसार इस हेमन्त ऋतु में की जा सकती है। लेकिन यह चर्या केवल स्वस्थों के लिए ही है।
परहेज (त्याज्य आहार-विहार) - इस ऋतु में लघु (शीग्र पचने वाले) तथा वातवर्धक अन्नपान का सेवन नहीं करना चाहिये। हवा के तेज झौंके के सामने न रहें, भूखे न रहें अथवा थोड़ा भोजन ना करें। शीतल जल में चीनी मिलाकर घोले हुए सत्तू का सेवन नहीं करें। - डॉ. धर्मेन्द शर्मा एमडी
वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।
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