अर्जुन तो ज्ञानी था ही, फिर उसे भगवान् कृष्ण ने गीता का ज्ञान क्यों दिया? ज्ञानवान होते हुए भी वह स्वधर्म अर्थात् क्षात्र-धर्म को पाप कर्म समझ रहा था और युद्ध करने से विमुख हो गया था। निश्चित ही अर्जुन किसी मान्यता से प्रभावित हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसने युद्ध न करने का निश्चय प्रकट किया होगा। निश्चित ही वह किसी तत्कालीन मान्यता से प्रभावित हो गया होगा, जिसके अनुसार ज्ञान को तो महत्व दिया गया होगा, परन्तु उसमें कर्म की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं किया गया था।
इतिहास के गहन चिन्तकों के सन्दर्भ से पता चलता है कि महाभारत से पूर्व वैदिक चिन्तन धारा लगभग समाप्त हो चुकी थी तथा उसके स्थान पर विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं का जन्म हो चुका था। आत्मा के सच्चे स्वरूप के विषय में उस युग के विचारकों के भिन्न-भिन्न मतों का उलझा हुआ स्वरूप ही दिखाई देता है। इनमें प्रमुख रूप से प्रज्ञावादी, नियतिवादी, भूतवादी, योनिवादी, स्वभाववादी, यदृच्छावादी, सदसद्वादी आदि मत प्रचलित हो गए थे। धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणाचार्य जिस प्रकार इनमें से किन्हीं-किन्हीं मतवाद से प्रभावित थे, उसी प्रकार अर्जुन भी किसी मत सेप्रभावित होकर अपने स्वधर्म को पापकर्म मान रहा था। दूसरी ओर दुर्योधन अपने ही भाइयों का स्वार्थवश विरोध कर रहा था, इतना ही नहीं उसे नारी के वस्त्र हरण करना भी अनुचित नहीं लगता था। यह सब कुछ गड़बड़-घोटाला वैदिक धर्म के प्रचार के विलुप्त हो जाने का ही परिणाम था। इन्हीं तत्कालीन सन्दर्भों के आधार पर वर्तमान स्थिति का अध्ययन करना आवश्यक प्रतीत होता है। अवलोकन करने से पता चलता है कि वर्तमान तो और भी विकृत और भयावह है। धर्म का नाम लेकर तथा मानवीय मूल्यों की स्थापना का नाम लेकर अनेक मत-मतान्तरों का जंजाल दिखाई दे रहा है। सभी अपने को परम सत्य का ठेकेदार बतला रहे हैं, परन्तु वास्तविकता में सभी सत्य एक दूसरे से टकरा रहे हैं। इस समस्त मतवादों के बाद भी मानवता के आधारमूल्यों का कहीं पता नहीं है। सभी अपने को दूसरे से श्रेष्ठ बतलाने का अहं पाले हुए हैं। सत्य के स्थान पर असत्य, अहिंसा के स्थान पर हिंसा दिखाई दे रही है। सेवा, त्याग, प्रेम आदि लुप्त हो गए हैं। कहाँ है नारी जाति का सम्मान! जितना-जितना इन मतवादों का प्रचार बढ़ता जा रहा है, उतना-उतना ही मानवता के विपरीत भ्रष्टाचार, मिलावट, धोखा, लूट, चोरी, डाके, रिश्वतखोरी आदि की बिभत्स घटनाएँ बढ़ती जा रहीं हैं।
एक अहिंसावादी खाद्य पदार्थों में मिलावट कर रहा है, तो सत्यवादी गंगाजल उठाकर झूठ बोल रहा है। सेवा के स्थान पर गरीबों को लूटा जा रहा है। बन्धुत्ववादी अपने ही भाइयों पर प्रहार कर रहा है। हैं न सभी दुर्योधन की सेना के सैनिक! इनमें सभी तो हैं - भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य जो अपने ही सामने निरपराध द्रौपदी के चीरहरण के दृश्य देख रहे हैं। कहाँ है वह चरित्र जिसमें मातृभूमि, मातृसंस्कृति, मानवीय सभ्यता के लिए मर मिटने की भावना निहित थी। हैं न महाभारतकालीन स्थिति के दृश्य! कौन हैं वे जो इन विषमताओं से टकराने का संकल्प ले सकें? हम महाभारत युद्ध के पूर्व के अर्जुन कब तक बने बैठे रहेंगे। आज हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसने अर्जुन को अपने उत्तरदायित्व का स्मरण करा दिया थी, जिसने अर्जुन को उस मान्यता से मुक्ति दिलाई थी, जिसके अनुसार वह अपने स्वाभाविक उत्तरदायित्व को पापकर्म मान रहा था। आज उसी शिक्षा की आवश्यकता है जो हमें महाभारत का योद्धा अर्जुन बना सके। मानवीय, राष्ट्रीय, सामाजिक उत्तरदायित्वों की प्रेरक समझ व शक्ति का संचार कर सके। कहा था न कृष्ण ने गीता में- सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अतः आवश्यकता है गीतोपदेश की जिसको जानकर हृदय के स्वर मुखरित होते हैं- हे भारत! गीता प्रकाश में लौट आ। - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी
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