वेद सब धर्मों का मूल है। इसी मूल से विश्व के समस्त धर्म-सम्प्रदायों का विकास हुआ है। कथन है- वेद है सब धर्मों का मूल, अन्य धर्म हैं इसी मूल के डाली पत्ते फूल। इसी मूल से विकसित भारतीय संस्कृति विशाल वृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है। आगे चलकर ‘वेद-विस्मृति’ काल में डाली अर्थात् शाखाओं को ही मूल मान लिया गया। परिणामतः सभी मत-सम्प्रदाय अपने को अलग-अलग मानने लगे। संघर्ष प्रारम्भ हो गए। वेद-विकसित भारतीय संस्कृति मानव संस्कृति के रूप में ‘विश्व-बन्धुत्ववाद’ की पक्षधर है। उदारचरित्र निर्मात्री इस संस्कृति में शिक्षित एवं दीक्षित व्यक्ति वसुधा के समस्त मानवों को एक कुटुम्ब के रूप में समझता रहता है। वर्तमान में भी यहाँ उदारता, सहिष्णुता एवं बन्धुत्वभाव के दर्शन होते हैं। यहाँ के निवासी अपने मत और सिद्धान्तों को शक्ति के बल से अन्यों को मनवाने में विश्वास नहीं रखते। उनका मानवतावादी दृष्टिकोण ही उनके उदार विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार की शक्ति है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि कोई अन्य अपने अमानवीय तथा अनुचित विचारों को अत्याचार और बर्बरता के बल से उन पर लादने और मनवाने का प्रयास करे। वह अपनी स्वतन्त्रता की रक्षार्थ उसका सामना पुरजोर ताकत से करता है। कालान्तर में यहाँ की उदारता तो बनी रही, परन्तु अमानवीय तथा स्वतन्त्रता छीनने के प्रयासों का सामना करना यहाँ का समाज भूल सा गया अथवा कमजोर पड़ गया, परिणाम इतिहास में निहित है।
महाभारत काल में वैदिक धर्म के स्थान पर अनेक मतवाद प्रचलित हो गए थे। अर्जुन इन्हीं में से किसी एक से प्रभावित हो गया था और वह स्वधर्म को पाप कर्म समझने लगा था। श्रीकृष्ण ने उसके इसी भ्रम को वेदज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर स्वधर्म में नियत किया था। श्रीकृष्ण जी के इस कथन में कि ’यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ जिस धर्म का संकेत किया गया है, वह वैदिक धर्म ही है। उस समय इस ज्ञान-धर्म के अभाव से अर्जुन अपने कर्त्तव्य धर्म के प्रति उदासीन हो गया था। उसी प्रकार की वर्तमान में भी स्थिति है। इसी मूल ज्ञान से दूर हो जाने का ही परिणाम है कि हम अपनी मातृसंस्कृति और मातृभूमि के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भूल बैठे हैं। वैदिक धर्म एक शक्ति स्रोत है। इसमें शिक्षित और दीक्षित व्यक्ति वह शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके सम्मुख कोई भी दुश्मन मातृभूमि की ओर आँखें उठाने का भी साहस नहीं कर सकता।
हम आर्य हैं, किन्तु हम नहीं जानते कि आर्यत्व क्या है? हम हिन्दू कहलाते हैं, किन्तु हिन्दुत्व क्या है, नहीं जानते। हम इतना भर जानते हैं कि हम जैन हैं, हम बौद्ध हैं, हम सनातनी हैं, हम वैष्णव हैं, हम सिख हैं, हम शैव हैं, कबीरपन्थी, दादूपन्थी या ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य या और कुछ जातियों में विभक्त अहं को पाले हुए एकात्मता शून्य विभक्त, अशक्त। इन्हीं सब मान्यताओं के साथ हमने स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा। परिणाम हमारे सामने हैं- भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, स्वाभिमान शून्य, उदासीन तथा टुकड़ों में बंटा हुआ खण्ड-खण्ड भारत। ये ही कारण हैं हमारे पतन के, बढ़ते आतंकवाद के। यदि हम अपने को जानना चाहते हैं, अपने विगत गौरव को पाना चाहते हैं, आर्यत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें वेदों की और ही लौटना होगा। ब्रह्माण्डव्यापी ऊर्जा की भाँति परमेश्वर द्वारा प्रदत्त वैदिक ज्ञान-विज्ञान को ग्रहण करना होगा। मनुस्मृति का निम्नानुसार वाक्य अनुकरणीय है- धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः। धर्म की मौलिकता को जानने की जिज्ञासा रखने वाले व्यक्ति के लिए वेद ही प्रमुख आधार है। भाव यह है कि धर्म का मौलिक रहस्य वेद में ही निहित है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त भेदभाव भुलाकर वेदों की ओर सत्य निष्ठा से लौटें तथा आर्यत्व, हिन्दुत्व और मानवता को जानकर भारत को जगद्गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करें। क्योंकि- वेद है सब धर्मों का मूल। अन्य धर्म हैं इस वेद ही के डाली पत्ते फूल। डाली को वृक्ष मानने की भूल सुधारकर मूल अर्थात् वेदों की ओर लौटें। यही सबसे बड़ा विवेक है। राष्ट्रकवि श्री गुप्तजी ने लिखा है-
मनुष्यमात्र बन्धु है यही बड़ा विवेक है, पुराणपुरुष स्वयम्भू पिता प्रसिद्ध एक है
फलानुसार अवश्य बाह्य भेद है, परन्तु अन्तरेक्य में प्रमाणभूत वेद है। - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी
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