ओ3म् वैश्वदेवीं वर्चस आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः।
अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमाः सर्ववीरा मदेम॥ (अथर्ववेद 12.2.28)
शब्दार्थ- (वर्चसे) ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिए (वैश्वदेवीम्) सबका कल्याण करने वाली, प्रभु-प्रदत्त वेदवाणी का (आ रभध्वम्) आरम्भ करो। उसके स्वाध्याय से (शुद्धाः) शुद्ध, मलरहित, (शुचयः) मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र और (पावकः) अग्नि के समान पवित्रकारक (भवन्तः) होते हुए (दुरितानि पदानि) बुरे चाल-चलनों को, बुरे आचार और व्यवहारों को (अतिक्रामन्तः) पाप करते हुए, छोड़ते हुए (सर्ववीराः) सामर्थ्यवान् प्राणों से सम्पन्न होकर, सब के सब वीर्यवान् होकर हम (शतम् हिमाः) सौ वर्ष तक (मदेम) हर्ष और आनन्द से जीवन व्यतीत करें।
भावार्थ-
1. प्रत्येक मनुष्य को बल, वीर्य और प्राणशक्ति से युक्त होकर कम से कम सौ वर्ष तक हर्ष और आनन्द से युक्त जीवन व्यतीत करना चाहिए।
2. इसके लिए बुरे चाल-चलनों को, दुष्टाचार और दुष्ट व्यवहार को सर्वथा छोड़ देना चाहिए। ‘दुरित’ पद में आयु को कम करने वाले सभी दुर्गुणों यथा अधिक या न्यून भोजन, व्यायाम न करना, शरीर को स्वच्छ न रखना, मैले वस्त्र धारण करना आदि का समावेश हो जाता है।
3. बुरे चाल-चलनों को छोड़ने के लिए स्वयं मन, वाणी और कर्म से शुद्ध पवित्र और निर्मल बनो। अपने सम्पर्क में आने वालों को भी शुद्ध और पवित्र बनाओ।
4. शुद्ध-पवित्र बनने के लिए प्रभु प्रदत्त वेद का स्वाध्याय करो। वेद के स्वाध्याय से आपको शुद्ध, पवित्र रहने और दीर्घायु प्राप्त करने का ठीक ज्ञान प्राप्त होगा। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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