विशेष :

हमें कल्याण-पथ पर चलाइए

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ओ3म् त्वमग्ने गृहपतिस्त्वं होता नो अध्वरे ।
त्वं पोता विश्‍ववार प्रचेता यक्षि यासि च वार्यम्॥ (ऋग्वेद 7.16.5, सामवेद 61)

शब्दार्थ- (अग्ने) हे परमेश्‍वर ! (त्वम्) तू (गृहपति:) हमारे हृदय मन्दिर का स्वामी है (त्वम्) तू (न: अध्वरे) हमारे उपासना यज्ञ का (होता) ऋत्विक्, याजक है। (विश्‍ववार) हे वरण करने योग्य परमेश्‍वर! (त्वम् पोता) आप ही सबको पवित्र करने वाले हैं (प्रचेता:) आपका ज्ञान महान् है (यक्षि) आप हमारे जीवन यज्ञ में हमें कल्याण की ओर प्रेरित कीजिए क्योंकि आप सदाचार सम्पन्न (वार्यम्) वरणीय ज्ञानी भक्त को ही (यासि च) प्राप्त होते हो।

भावार्थ -
1. ईश्‍वर ही हमारे हृदय-मन्दिर का स्वामी है । अत: ईश्‍वर को सर्वाधिक मान और सम्मान देना चाहिए ।
2. हमने उपासना-यज्ञ आरम्भ किया है। उस उपासना-यज्ञ का याजक, उसे सम्पन्न कराने वाला प्रभु ही है। उसकी प्राप्ति पर ही यह यज्ञ सम्पूर्ण होगा।
3. वह ईश्‍वर वरणीय है, सबको पवित्र करने वाला है, महान् ज्ञानी है । अत: भक्त प्रार्थना करता है- प्रभो ! आप सबको पवित्र करने वाले हैं । अत: मुझे भी कल्याणपथ पर प्रेरित कीजिए। जो सदाचार-सम्पन्न है, जिसने अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल बना लिया है आप उसी का वरण करते हैं, उसी को दर्शन देते हैं, उसी को अपना कृपापात्र बनाते हैं। आप हमारे जीवन को सुपथ पर चलाइए, जिससे हम आपको प्राप्त कर सकें। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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