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अंग्रेजी भाषा की गुलामी कब तक ?

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हमें विदेशी अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुए पूरे 63 वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु हम अभी तक अपने को विदेशी भाषा अंग्रेजी की दासता से मुक्त नहीं कर पाए हैं। अंग्रेजी भाषा की मानसिक दासता हमें बुरी तरह से जकड़े हुए है तथा हम अंग्रेजी को अन्तरराष्ट्रीय व सबसे समृद्ध भाषा होने का भ्रम पाले हुए अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा अन्य प्रान्तीय भारतीय भाषाओं की घोर उपेक्षा करने में भी नहीं हिचकिचाते। 14 सितम्बर 1948 को राष्ट्रभाषा हिन्दी को भारत के कामकाज की भाषा घोषित किया गयाथा। हमारे स्वाधीनता संग्राम के दौरान महात्मा गान्धी, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन प्रभृति सभी विभूतियों ने देश के स्वाधीन होते ही अंग्रेजी की जगह हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद दिये जाने की उद्घोषणा की थी। देश के स्वाधीन होने के बाद अंग्रेजी भाषा की मानसिक दासता से ग्रसित प्रथम प्रधामन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दी को उपयुक्त स्थान दिलाए जाने में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए। कहा जाने लगा कि अंग्रेजी के बिना भारत ज्ञान-विज्ञान में पिछड़ जाएगा। उधर दक्षिण भारत के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने हिन्दी के विरोध में अभियान छेड़ डाला। राष्ट्रभाषा हिन्दी इनकी कुचालों में शिकार होने लगी।

उर्दू व हिन्दुस्तानी भाषा की आड़ में- हिन्दी भाषी राज्य यदि राष्ट्रभाषा के महत्व को समझकर अपने यहाँ तुरन्त हिन्दी को उपयुक्त स्थान दे देते तथा अंग्रेजी के मोह व दासता से मुक्ति पा जाते तो अन्य राज्यों को भी प्रेरित किया जा सकता था। किन्तु उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में मजहबी उन्मादी लोगों ने उर्दू व हिन्दुस्तानी भाषा की आड़ में हिन्दी के मार्ग में रोड़े बिछाने शुरू कर दिए। हिन्दी भाषा में उर्दू व अरबी के शब्द घुसेड़कर उसे विकृत किए जाने का षड्यन्त्र रचा गया। हिन्दुस्तानी भाषा के नाम पर एक पुस्तक के पाठ्यक्रम में ‘बादशाह दशरथ’, ‘शहजादा राम’, बेगम सीता’, ‘मौलाना बाल्मीकि’ जैसे शब्दों का समावेश किया गया जिसका टण्डन जी, निराला जी तथा पं. श्री नारायण चतुर्वेदी और किशोरीदास वाजपेयी आदि ने प्रबल विरोध कर हिन्दी को विकृत किए जाने के षड़्यन्त्र को असफल किया। हिन्दी भाषा राज्यों के लोगों को लगा कि अंग्रेजी भाषा इस देश से जाएगी नहीं। अतः उन्होंने उच्च नौकरियों के लालच में अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की प्राथमिकता देनी जारी रखी। अंग्रेजी भाषा का दबदबा बढ़ता गया तथा हमारी युवा पीढ़ी राष्ट्रभाषा हिन्दी की जगह विदेशी भाषा अंग्रेजी को प्रोत्साहन देने लगी। और तो और विवाह, मुण्डन संस्कार, नामकरण संस्कार, गृह प्रवेश जैसे सांस्कृतिक व धार्मिक संस्कारों के कार्यक्रमों के निमन्त्रण पत्र भी हिन्दी की जगह अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कराने में हम गौरव का अनुभव करने लगे। माता-पिता तथा परिवारजन अंग्रेजी के शब्द नहीं पढ़ सकते, वे भी समझने लगे कि अंग्रेजी में निमन्त्रण पत्र छपवाने से उनके परिवार की शान बढ़ेगी, लोगों पर रौब जमेगा। हिन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यापारी, दुकानदार तक अपनी फर्मों व दुकानों के नामपट्ट अंग्रेजी में लिखवाने में शान समझने लगे। फिर भला अहिन्दी भाषी राज्यों के लोगों से हम राष्ट्रभाषा हिन्दी को उचित स्थान दिये जाने की आशा कैसे कर सकते हैं ?

धार्मिकजन भी अंग्रेजी के गुलाम- भारत धर्मप्राण देश है। हमारे धर्म, संस्कृति व प्राचीन साहित्य का माध्यम संस्कृत तथा हिन्दी भाषा है। किन्तु हमारे अनेक सन्त-महात्मा व धर्माचार्य भी अंग्रेजी भाषा की मानसिक दासता के शिकार हैं। अनेक धर्माचार्यों के नाम से पूर्व ‘हिज होलीनेस’ लिखा जाने लगा है। कुछ तथाकथित धर्माचार्यों व कलियुगी योगियों ने तो मानो हिन्दी-संस्कृत की जगह पूरी तरह अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी खान-पान, अंग्रेजी की पाश्‍चात्य विकृतियों को ही अपनाने को अपने प्रभाव बढ़ाने का साधन मान लिया है। ये कथित योगी ही योग की जगह ‘योगा’, कृष्ण की जगह ‘कृष्णा’ जैसी भाषायी विकृति के लिए जिम्मेदार हैं। 1970 में मैं दिल्ली में हिन्दी संवाद समिति ‘हिन्दुस्थान समाचार’ में सेवारत था। रामलीला के दिन थे। दिल्ली की एक बड़ी रामलीला समिति के आयोजकों ने हमारे कार्यालय को प्रेस सम्मेलन का अंग्रेजी में निमन्त्रण पत्र भेजा। उसे पढ़ा तो लिखा था कि काकटेल पार्टी (शराब पार्टी) में भाग लें। मैंने एक धार्मिक समारोह का निमन्त्रण पत्र विदेशी भाषा में भेजे जाने तथा उसमें शराब पिलाए जाने के विरुद्ध समाचार प्रसारित कर दिया। देशभर के पत्रों में वह प्रमुखता से छपा। बाद में आयोजकों को क्षमा मांगनी पड़ी। मेरा कहने का आशय केवल यह है कि हमारे हिन्दी भाषी क्षेत्रों की धार्मिक व सामाजिक संस्थाएं भी विदेशी भाषा व विदेशी विकृतियों की दासता से ग्रसित हो चुकी हैं। फिर स्वदेशी व स्वाभाषी की पुनर्स्थापना की किससे आशा की जा सकती है!

नाम बदलने की साजिश- अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हमारे सांस्कृतिक व ऐतिहासिक स्वरूप को भी नष्ट किया जा रहा है। मध्यप्रदेश में 1857 के महान स्वाधीनता सेनानी तात्याटोपे का बहुत आदर है। वहाँ के कुछ राष्ट्रप्रेमियों ने वर्षों के प्रयास के बाद भोपाल व जबलपुर में ‘तात्याटोपे नगर’ की कालोनियां बसाईं। अंग्रेजी के मानसिक गुलामों ने तात्याटोपे नगर का नाम ‘टीटी नगर’ कर डाला। आज भोपाल जाएं तो टेम्पो, बस या रिक्शावाला आपको तात्यानगर पहुंचाने को तैयार नहीं होगा। टी.टी. नगर कहते ही वह समझ जाएगा कि आप कहाँ जाना चाहते हैं। दिल्ली के रामकृष्णपुरम् को ‘आर.के. पुरम्’ के नाम से जाना जाता है। महात्मा गान्धी मार्ग का नाम ‘एम. जी. रोड़’ कर दिया गया। भगवान श्री कृष्ण के उपासक माँ-बाप ने बेटे का नाम कृष्ण गोपाल अग्रवाल रखा, बेटे ने अंग्रेजी के मोह में के.जी. अग्रवाल लिखना शुरू कर दिया। माँ-बाप की नामकरण के पीछे की भावना लुप्त हो गई।

अब तो इस अंग्रेजी ने सन्तों को भी ‘सेन्ट’ बना डाला है। गाजियाबाद व दिल्ली में ‘सेन्ट विवेकानन्द स्कूल’ देखे जा सकते हैं। भविष्य में ‘सेन्ट तुलसीदास’ व ‘सेन्ट सूरदास’ तथा ‘सेन्ट कबीर’ भी देखने को मिल सकते हैं। यदि हिन्दुस्तानी भाषा के नाम पर ‘शहजादा राम’ व ‘बेगम सीता’ के चलन का शुरू में विरोध न होता तो ‘मदर पार्वती’ तथा ‘मदर अनुसूया’ का प्रचलन अंग्रेजीदाँ शुरू कर देते।

हिन्दी भाषी राज्यों के निवासियों को दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि वे अपने कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग बिल्कुल नहीं करेंगे। विवाह संस्कार तथा अन्य धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंग्रेजी में मिलने वाले निमन्त्रण का बहिष्कार करेंगे। मैंने 1970 में हिन्दी सेवी सांसद श्री प्रकाशवीर शास्त्री के समक्ष संकल्प लिया था कि अंग्रेजी में मिलने वाले किसी भी निमन्त्रण पत्र के कार्यक्रम में शामिल नहीं होऊंगा। मैं आज तक उसका पालन कर रहा हूँ। जब कोई निकट का रिश्तेदार भी अंग्रेजी में निमन्त्रण भेजता है तो उसे साफ आने से मना कर देता हूँ। मेरठ की साहित्यिक विभूति स्व. श्री विश्‍वम्भर सहाय प्रेमी जी के सुपुत्र श्री रत्न कुमार प्रेमी मेरठ में प्रेमी मुद्रणालय के संचालक थे। उन्होंने संकल्प लिया था कि वे अपने मुद्रणालय में सामाजिक व धार्मिक कार्यक्रमों के अंग्रेजी के निमन्त्रण पत्र नहीं छापेंगे। ग्राहक अंग्रेजी में निमन्त्रण पत्र छपवाने आता, वे मातृभाषा के प्रति उसका सम्मान जागृत कर, उसे हिन्दी में छपवाने को तैयार करते, दुराग्रह करने पर विनयपूर्वक कह देते- “मैं अंग्रेजी में नहीं छाप पाऊंगा।’’ आज रत्न कुमार प्रेमी जैसे हिन्दी पुरोधा की आवश्यकता है जो अंग्रेजी की मानसिक दासता को तोड़कर, तार-तारकर राष्ट्रभाषा के प्रति स्वाभिमान की भावना जागृत कर सके।

हमें अपने देशवासियों के इस भ्रम को तोड़ना होगा कि अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय भाषा है तथा उसके बिना भारतीय ज्ञान-विज्ञान में अधकचरे रह जाएंगे। जापान ने विज्ञान में अंग्रेजी के माध्यम से नहीं अपनी जापानी भाषा के माध्यम से प्रगति की। चीन, रूस, जर्मनी में अंग्रेजी कौन समझता है! इस्राइल जैसे छोटे से राष्ट्र ने अपनी मृतप्रायः भाषा हिब्रू को पुनर्जीवित कर उसके भण्डार को ज्ञान-विज्ञान से पूरित कर दिया। अंग्रेजी केवल अंग्रेजों या उनके गुलाम रहे देशों की ही भाषा रही है। भारत अंग्रेजों का गुलाम रहा इसलिए यहाँ के कुछ नौकरशाह अंग्रेजी को पालते-पोसते रहे हैं।
हमें हिन्दी दिवस के अवसर पर अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अपने दायित्व को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा। - शिव कुमार गोयल

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