ओ3म् हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ (ऋग्वेद 10.121.1, यजुर्वेद 13.4)
अन्वय- अग्रे हिरण्यगर्भ: समवर्तत। भूतस्य जात: एक: पति: आसीत्। स पृथिवीं उत इमां द्यां दाधार। कस्मै (एकस्मै) देवाय हविषा विधेम।
अर्थ- (अग्रे) पहले अर्थात् सृष्टि की रचना से पूर्व (हिरण्यगर्भ:)1 प्रकाश-युक्त पदार्थों के बीजरूप को अपने गर्भ में रखने वाला या धारण करने वाला (सम् अवर्तत) था। वह (भूतस्य) उत्पन्न हुई सृष्टि का (एक:) अकेला, अद्वितीय (जात:) स्वयंसिद्ध, स्पष्ट (पति:) स्वामी (आसीत्) था। (स) उसी परमात्मा ने (पृथिवीम्) इस पृथिवी को (उत्) और (इमाम् द्याम्) इस द्युलोक को (दाधार) धारण किया हुआ है (कस्मै=एकस्मै) उसी एक परमात्मा को (हविषा) हवि द्वारा (विधेम) हम धारण करें।
व्याख्या- सृष्टि पर दृष्टि डालते ही बुद्धिमान् पुरुष के मन में यह प्रश्न उठता है कि यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हो गई, किसने उत्पन्न की और उत्पत्ति से पूर्व इसकी क्या अवस्था थी? यह प्रश्न न केवल नैसर्गिक है अपितु आवश्यक है। किसी वस्तु के प्रयोग से पहले उसकी स्थिति और प्रकृति का जानना आवश्यक है। घोंसला बनाने से पहले चिड़ियाँ भी जाँच लेती हैं कि कौन-सा स्थान सुदृढ होगा।
क्या सृष्टि स्थायी और एकरस है? नहीं। तो क्या कोई ऐसा काल रहा होगा जब इसकी उत्पत्ति हुई? अवश्य। तो क्या उस उत्पत्ति-काल से पहले यह थी? नहीं। अगर होती तो उत्पत्ति का क्या अर्थ था? यदि नहीं थी तो क्या उसका कारण था? अवश्य। परन्तु इस विषय में मत-मतान्तरों में बहुत भेद है। कुछ तो कहते हैं कि सृष्टि से पहले कुछ न था, शून्य से उत्पन्न हो गई। जैसे बीज गलकर जब अपने अस्तित्व को शून्य बना देता है तो उससे वृृक्ष उत्पन्न हो जाता है। वेदमन्त्र इसका खण्डन करता है। उपनिषद् कहती है- कथं असत: सद् जायेत । (असत् से सत् कैसे उत्पन्न होगा?) यदि शून्य से ही कोई चीज बन जाए तो साध्य के लिए साधन की आवश्यकता न हो। शून्य तो हर किसान के पास है। शून्य को खरीदने के लिए श्रम या पैसे की जरूरत नहीं। आलसियों और निकम्मों के पास भी शून्य होता है। फिर क्या आवश्यकता है कि गेहूँ उत्पन्न करने की इच्छा वाला गेहूँ का ही बीज बोये और चने का इच्छुक चने का ही बीज! वेदान्तदर्शन में व्यास मुनि ने एक सूत्र लिखा है-
उदासीनानामपि चैवं सिद्धि:। (वेदान्त.2-2-27) अर्थात् यदि अभाव से भाव की उत्पत्ति हो जाए तो ‘अभाव‘ तो सभी को प्राप्त है। परिश्रम ‘भाव‘ के लिए करना पड़ता है, अभाव के लिए नहीं। दस रुपये पचास रुपये के बराबर नहीं होते। अत: जो आदमी दस रुपये के स्थान में पचास रूपये प्राप्त करना चाहता है उसे अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। परन्तु दस रुपये का अभाव और पचास रुपये का अभाव और लाख रुपये का अभाव बराबर है। 10 = 50 यह गलत है। सृष्टि-क्रम इसका पोषक नहीं है। हर कार्य के लिए कारण चाहिए और निश्चित कारण चाहिए। बर्फ पानी से बनेगी, रेत से नहीं। इसलिए वेद ने कहा ‘हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे‘। सृष्टि के पहले शून्य नहीं था। ‘हिरण्यगर्भ:‘ था। इसी को आगे ‘भूतस्य पति:‘ कहा है। हिरण्यगर्भ किसको कहते हैं? ‘हिरण्य‘ का अर्थ है ‘सोना‘। गर्भ का अर्थ है ‘अण्डा‘। ‘हिरण्यगर्भ‘ का अर्थ हुआ ‘सोने का अण्डा‘। पुराण आदि ग्रन्थों में जैसे इन्द्र, गणेश या महादेव आदि शब्दों के सम्बन्ध में गप्प-कथाएँ प्रसिद्ध हो गई हैं, इसी प्रकार ‘हिरण्यगर्भ‘ के विषय में भी कपोल-कल्पित गप्पे हैं। प्रजापति का सोने के अण्डे से उत्पन्न होना पुराणों की गप्प है। क्या सृष्टि से पहले सोना था और सोने का अण्डा कैसे बना? ‘हिरण्यगर्भ‘ के विषय में पुराणों की गाथाओं पर कुछ दार्शनिकों ने सूक्ष्म कल्पनाएँ की और वेदान्तियों ने सूत्रात्मा या सूक्ष्म शरीर वाले प्राणात्मा को प्रजापति कहकर पुकारा और उससे सृष्टि की उत्पत्ति की। इनके भिन्न-भिन्न विचार यहाँ टिप्पणी में दे दिये गए हैं, जिससे विचारशील विचार कर सकें।
जैसा कहा जा चुका है कि हर कार्य के लिए नियत कारण चाहिए। प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं- उपादान, निमित्त और साधारण। साधारण कारण का अर्थ यह है कि वह सब कार्यों में सामान्य हो, विशेष न हो, जैसे काल और देश। कोई कार्य बिना देश या काल के सम्भव नहीं। परन्तु एक ही देश और एक ही काल में लाखों कार्य होते हैं। देश और काल उन कार्यों में कोई विशेषता उत्पन्न नहीं करते। दूसरा निमित्त कारण है जैेसे घड़े का कुम्हार या अंगूठी का सुनार। परन्तु केवल कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता। घड़े के निर्माण के लिए ‘मिट्टी‘ (उपादान कारण) चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि से पहले केवल एक ईश्वर या खुदा था और कुछ न था। उसी ने कहा-‘कुन् (हो जा)‘ और सृष्टि उठ खड़ी हुई।
वेदमन्त्र में यह नहीं कहा कि केवल प्रजापति ने इच्छामात्र से भूत या जगत् उत्पन्न कर दिया। उसके लिए एक विशेष नाम दिया है हिरण्यगर्भ। महर्षि दयानन्द ने इसका अर्थ किया है वह सत्ता जिसके गर्भ में प्रकाशक पदार्थ बीज रूप में थे। ‘गर्भ‘ ‘गृह‘ का ही रूपान्तर है। जैसे बच्चा पिता और माता के शरीर में गर्भरूप से विद्यमान होता है, वही उत्पत्ति या जन्म के समय ‘प्रजा‘ (सन्तान) के रूप में आविर्भूत होता है। प्रजा के उत्पन्न होने से पिता ‘प्रजापति‘ हो जाता है। पिता स्वयं पुत्र नहीं होता। यदि पिता के गर्भ में पुत्र का आत्मा न आता तो न प्रजा होती न प्रजापति। इसी प्रकार प्रजापति के गर्भ में सृष्टि का बीजरूप विद्यमान था अर्थात् सृष्टि के पहले ‘हिरण्यगर्भ‘ था। बिना उपादान के केवल निमित्त से उत्पत्ति मानने में भी ‘उदासीनानामपि चैवं सिद्धि‘ का आक्षेप बना रहता है। यदि सुनार बिना सामान के हर आभूषण बना सके तो वह सुनार न होगा, जादूगर होगा। सृष्टिक्रम में जादूगर का कोई स्थान नहीं हैं। जादूगर मूर्खों की आँख में धूल डालने के लिए होते हैं। परमात्मा ने बिना उपादान के न कभी सृष्टि बनाई, न आज बनाता है। आज भी ईश्वर की सृष्टि में पानी से भाप और भाप से बादल बनते हैं। रेत से बादल नहीं बनते और न बिना पानी के बनते हैं। ईश्वर आज भी वैसा ही सर्वशक्तिमान् है जैसा सृष्टि के पहले था।
इसीलिए वैशेषिक दर्शन में कहा है ‘कारणाभावात् कार्याभाव:‘ (वै.1-2-1)। उपादान कारण के बिना कार्य हो ही नहीं सकता। ‘हिरण्यगर्भ‘ कहने मात्र से सिद्ध हो गया कि जो सत्ता प्रजा के उत्पन्न करने के कारण प्रजापति कहलाई वह हिरण्यगर्भ थी अर्थात् ‘हिरण्य‘ या प्रकाश वाले पदार्थ बीजरूप में (अविकसित रूप में) उसके गर्भ में थे। ‘समवर्तत‘ का अर्थ है ‘विद्यमान‘ था (सत्ता वाला था, अभावरूप न था)। वह ‘भूतस्य जात: पति: आसीत्। वह भूतपति और सृष्टि-रूपी जगत् का पालक था। यहाँ ‘पति‘ का अर्थ है पालक या पिता। ‘प्रजापति‘ का अर्थ है ‘प्रजापिता‘। लौकिक समाज में पति और पिता में भेद होता है। परन्तु प्रजा का अर्थ तो सन्तान ही है, अत: ‘प्रजापति‘ का अर्थ होगा ‘प्रजापिता‘।
नवीन वेदान्तियों का कहना है कि केवल ब्रह्म से ही बिना उपादान या प्रकृति के ही सृष्टि उत्पन्न होती है। उसी की नकल ईसाई, मुसलमानों ने की है, कुछ भौंडे रूप से। नवीन वेदान्ती दार्शनिक थे, मुसलमान-ईसाई आदि अदार्शनिक। अत: जहाँ नवीन वेदान्तियों ने माया-अविद्या आदि की कल्पनाएँ की, वहाँ मुसलमान व ईसाइयों ने केवल खुदा की सर्वशक्तिमत्ता का आश्रय लेकर ही मान लिया कि ईश्वर सभी कुछ कर सकता है, परन्तु यह थी निराधार कल्पना। वेदान्तियों ने कहा कि ब्रह्म निमित्ताभिन्नोपादान कारण है। अर्थात् निमित्त कारण भी है और उपादान भी। इतना तो ठीक है कि ब्रह्म एक ऐसा निमित्त कारण है जो उपादान कारण से पृथक् या दूर नहीं है। उसके और उपादान के बीच में कोई व्यवधान नहीं है, परन्तु निमित्त और उपादान में अनन्यत्व (एकत्व) नहीं है। उपादान परिणामी होता है। निमित्त परिणामी नहीं होता। वह उपादान और उपादेय दोनों का पालक और पोषक होता है। उपादान भिन्न-भिन्न होते है। जिस सोने से अंगूठी बनी है उसी से उसी समय हार नहीं बन सकता, परन्तु सुनार वही हो सकता है।
ऐसे प्रजापति या भूतपति को एक कहा गया। ‘एक‘ शब्द पर विशेष बल है। वेद एक-ईश्वरवादी है, अनेक ईश्वरवादी नहीं। अनेक ईश्वरों की कल्पना पौराणिक है और इसी कल्पना के प्रतिवाद-स्वरूप मुसलमान और ईसाई लोगों की कल्पना है कि एक-ईश्वरवाद के जन्मदाता वही हैं। वेद इस कल्पना का खण्डन करता है। एक-ईश्वरवाद का मूल तो वेद ही है। सृष्टि को अंग्रेजी में ‘यूनीवर्स‘ कहा है अर्थात् समस्त सृष्टि एक है। इसके सभी कानून एक हैं, अनेक नहींं। दो और दो मिलकर हर जगह और हर काल में चार ही होंगे। यदि ऐसा न होता तो वह यूनीवर्स न होकर कहलाती। उपादान भिन्न होते हुए भी ‘कर्त्ता‘ एक ही है। वह न केवल सृष्टि बनाता है अपितु उससे अलग भी नहीं होता। यह प्रभु की विशेषता है। कुम्हार मिट्टी से अलग था, घड़ा बनाकर अलग हो जाता है। वह उत्पादक है, पालक नहीं। इसीलिए वह भूतों का पति नहीं। ईश्वर पति है, अर्थात् जिस सृष्टि को उसने रचा है उसको रचकर वह कहीं अलग नहीं जा बैठा और न उसका पालन छोड़ दिया है। जो सृष्टि बीजरूप में उसके गर्भ में भी, वह अब भी उसी के आधार पर ठहरी हुई है। स दाधार पृथिवीं उत इमां द्याम्। वह आज भी इन सबको धारण किये हुए है।
कस्मै देवाय हविषा विधेम। यहाँ ‘कस्मै‘ का अर्थ है ‘एकस्मै।‘ वेद में ‘ए‘ शब्द का लोप हो गया है, अर्थात् हम उसी एक देव की उपासना करें। किसी दूसरे को अपना ईश्वर न मानें।
‘कस्मै देवाय हविषा विधेम‘ में ‘कस्मै‘ के प्राय: तीन अर्थ किये गये हैं। तीनों अर्थ ही व्याकरण के अनुसार समीचीन हैं। परन्तु प्रकरण के विचार से हमें एक सबसे अच्छा जँचा। उससे बहुत कम लोग परिचित हैं। इसलिए यहाँ कुछ विस्तार से लिखा जा रहा है। तीनों अर्थों पर विचार कीजिए-
(1) ‘कस्मै‘ शब्द ‘किम्‘ सर्वनाम का चतुर्थी एकवचन है। ‘किम्‘ प्रश्न-वाचक है। कस्मै देवाय हविषा विधेम का अर्थ हुआ ‘‘किस देव की उपासना की जाए?‘‘ यह वाक्य ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त में दस ऋचाओं में से पहली नौ ऋचाओं के अन्त में आया है। इस पक्ष के लोगों का कहना है कि अन्त के वाक्य में प्रश्न उठाया कि किसकी उपासना की जाए? और मन्त्रों के पूर्व-भाग में उत्तर दिया अर्थात् उपास्य देव के लक्षण बताए। यह बात सर्वथा अनुचित तो नहीं है। वेदों में ऐसे प्रश्नों की शैली विद्यमान है2, परन्तु सभी मन्त्रों में लगातार प्रश्नों को दुहराना कुछ कम जँचता है। यदि ‘कस्मै‘ के साथ ‘चित्‘ लगाकर ‘कस्मैचित्‘ कर दिया जाये तो ‘चित्‘ अनिश्चितता का बोधक होने से सर्वथा अमान्य हो जाता है।
(2) ‘क‘ का अर्थ है सुखस्वरूप। ‘क‘ अकारान्त संज्ञा है, राम के समान। ‘क‘ का चतुर्थी ‘काय‘ होना चाहिए। वेद में बहुल होने से ‘कस्मै‘ रूप भी बन गया अर्थात् सुखस्वरूप ईश्वर की हम उपासना करें। निरुक्त और शतपथ दोनों इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। ‘क‘ प्रजापति का नाम भी है। परन्तु अकारान्त संज्ञा के चतुर्थी विभक्ति में ‘स्मै‘ आदेश के उदाहरण वेद में अन्यत्र पाये नहीं जाते। ईश्वर के शुभगुण तो अनन्त हैं। ‘सुखस्वरूप‘ भी एक विशेषण है। परन्तु इसे बार-बार हुहराया क्यों गया? आक्षेप अपरिहार्य तो नहीं है, अत: यह व्याख्या अनुचित नहीं कही जा सकती। फिर भी ‘प्रकरण‘ पूर्णरूपेण सन्तोष-प्रद नहीं है।
(3) शबर स्वामी ने पूर्वमीमांसा के भाष्य में (अध्याय 10, पाद 3, सूत्र 13-17) ‘हिरण्यगर्भ‘3 इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए उपर्युक्त अर्थ के साथ एक अर्थ यह भी किया है कि ‘कस्मै देवाय‘ का अर्थ है ‘एकस्मै‘। यहाँ छांदस ‘ए‘ लोप हो गया है। वेद में इस प्रकार के लोपों के उदाहरण4 बहुत मिलेंगे। ‘एकस्मै देवाय‘ में कोई व्याकरण की खींचातानी भी नहीं, क्योंकि ‘एक‘ सर्वनाम है और अर्थ यह हुआ कि केवल एक ईश्वर की ही उपासना है, कई देवी-देवताओं की नहीं। इस अर्थ का गौरव इस सूक्त के कई और शब्दों से विदित है। सूक्त के अन्त का मन्त्र है ‘प्रजापते न त्वद्‘ इति। इसमें ‘न अन्य:‘ ऐसा शब्द आया है, ‘कोई और नहीं‘, अर्थात् प्रजापति के एकत्व पर बल है। इस सूक्त के अन्य मन्त्रों में भी ‘एक‘ शब्द कई बार दुहराया गया है। मन्त्रों के पहले चरणों में सूर्य आदि ‘हिरण्यों‘ अर्थात् प्रकाशवाले पदार्थों के नाम गिनाये हैं, जिनको उपास्य देव नहीं माना। इस विशेषता को दिखलाने के लिए भी ‘एकस्मै देवाय‘ कहना उचिततम प्रतीत होता है। साधारण पुरुषों के हितार्थ भी यही व्याख्या अधिक उपयुक्त है, क्योंकि प्राय: अविद्यावश लोग कई ईश्वरों को मान बैठते हैं और सुधारक उपदेष्टाओं के निरन्तर परिश्रम करने पर भी यह बहु-ईश्वरवाद का रोग बार-बार लौट आता है। अत: वेद में अति प्राचीनकाल से इस पर बल दिया जाना सर्वथा उचित ही है। एक ईश्वरवाद वेद का मुख्य और मौलिक सिद्धान्त है।
‘हविषा‘ (तृतीयान्त)। हविष ‘हु‘ धातु से बना है। उपासना की समस्त सामग्री का नाम ‘हवि:‘ है। भौतिक हो या अभौतिक, शारीरिक हो या मानसिक। प्रजापति की उपासना मन, वचन और कर्म तीनों साधनों द्वारा होनी चाहिए। हमारा मन उपास्यदेव के गुणों के मनन करने में लगा हो। वाणी से मन्त्रों को बोलें और कर्म शुभ करें। इनमें से बहुत-से कर्मों का उल्लेख मन्त्रों के कई वाक्यों में आया है। इस प्रकार मन्त्र में इतनी बातें दी हुई हैं-
(1) सृष्टि के पूर्व ईश्वर था।
(2) ईश्वर हिरण्यगर्भ अर्थात् उपादान से युक्त था।
(3) उसने सृष्टि बनाई और अब भी धारण कर रहा है।
(4) वह एक ही है, कई नहीं।
(5) उसी की उपासना करनी चाहिए, अन्य किसी की नहीं।
टिप्पणियाँ-
1. हिरण्याक्ष: (ऋ.1-35-8)हितरमणीयचक्षुर्युक्त:। (सायण)
हिरण्यकेश:(ऋ.1-79-1) हितरमणीया: केशस्थानीया ज्वाला यस्य स: तथोक्त। (सायण)
हिरण्यकर्ण: (ऋ. 1-122-14) हिरण्यविकार-कुण्डलाद्युपेतकर्ण:। (सायण)
हिरण्यगर्भ: (यजु. 13-4) यो हिरण्यगर्भाख्य: पुरुष:। (उब्बट)
हिरण्ये हिरण्यपुरुषरूपे। ब्रह्माण्डे गर्भरूपेण स्थित:। (महीधर:) (ऋ.10-121-1) हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूत: प्रजापति: (सायण) अथवा हिरण्मयोऽण्डो गर्भवद् यस्योदरे वर्तते सोऽसौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ इत्युच्यते (सायण)
स्वामी दयानन्द-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास-
’’ज्योतिर्वै हिरण्यं, तेजो वै हिरण्यं इति ऐतरेये च शतपथे ब्राह्मणे’’ ’’यो हिरण्यानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्ति निमित्तं अधिकरणं स हिरण्यगर्भ:।’’ सप्तम समुल्लास-जो सृष्टि के पूर्व सब सूर्य्यादि तेजवाले लोकों का उत्पत्ति-स्थान, आधार।
2. ऋग्वेद 6-17-15 तथा ऋग्वेद 10-54-3
3. कस्मै देवाय हविषा विधेम, इति। एकस्मै देवायेत्यर्थ:। एकारलोपेनैतच्छब्दविज्ञानादर्थप्रयत्यो भवति। ( जैमिनि-सूत्र 10-3-15 पर शाबरभाष्यम्)
4. प्रेणा=प्रेरणा। मकार का छान्दस लोप। (ऋग्वेद 10-71-1) परि=उपरि। तमसस्परि। ’उ’ का छान्दस लोप। (ऋग्वेद 1-50-10) पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- जनवरी 2014)