ओ3म् इन्द्र मृळ मह्यं जीवातुमिच्छ चोदय धियमयसो न धाराम् ।
यत् किंचाहं त्वायुरिदं वदामि तज्जुषस्व कृधि मा देववन्तम् ॥ (ऋग्वेद 6.47.10)
अन्वय- हे इन्द्र ! मृळ। मह्यं जीवातुम् इच्छ ! अयस: धारां न धियं चोदय। त्वायु: अहं यत् किं च इदं वदामि, तत् जुषस्व। मा (माम्) देववन्तं कृधि॥
अर्थ- हे (इन्द्र) सर्वशक्तिमन् ईश्वर ! (मृळ) कृपा करो। (मह्यम्) मेरे लिए (जीवातुम्) जीविका को (इच्छ) दीजिए। (अयस: धाराम् न) तलवार की धार के समान (धियम्) बुद्धि को (चोदय) तीक्ष्ण बनाइये। (त्वायु:) तुझको मन से चाहनेवाला (अहम्) मैं (यत् किं च) जो कुछ भी (इदम् इदानीम्) यहाँ, इस जीवन में (वदामि) माँगूं, निवेदन करूँ (तत्) उसको (जुषस्व) दीजिए। (मा-माम्) मुझे (देववन्तम्) देवों के दिव्य गुणों से युक्त (कृधि) कीजिए।
व्याख्या- इस मन्त्र में सबसे मुख्य शब्द ‘जीवातुम्‘ है। इसको हम समस्त मन्त्र का प्राण कह सकते हैं। अन्य सब शब्द इसी शब्द के उपव्याख्यान मात्र हैं। ‘जीवातुम्‘ का अर्थ है जीविका या रोजी। रोजी में वे सब साधन सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा हम अपने जीवन को ठीक और काम के योग्य रख सकते हैं। जीवन को ठीक रखने के लिए भोजन, वस्त्र, मकान, औषधियाँ चाहिएँ। जी बहलाने के लिए इष्ट-मित्र और स्नेही चाहिएँ। शत्रुओं के आक्रमणों को रोकने के लिए संरक्षक चाहिएँ। यशोलाभ के लिए कुछ प्रशंसक भी चाहिएँ। ये हैं जीवन को स्वस्थ रखने के साधन। परन्तु स्वस्थ जीवन का कुछ उपयोग भी तो हो, क्योंकि स्वस्थ जीवन का भी तो कुछ उद्देश्य आवश्यक है। रथ सुन्दर है, सुदृढ है, परन्तु कहीं यात्रा नहीं करनी तो ऐसे रथ का कोई क्या करेगा? हर चीज के तीन गुण परमावश्यक हैं- (1) उपयोग (Utility), (2) दृढता (Durability), (3) सौन्दर्य (Beauty) । इसमें सबसे मुख्य है उपयोग। यदि सुदृढ और सुन्दर वस्तु का कोई उपयोग नहीं तो वह सर्वथा बेकार है। उपयोग से दूसरे नम्बर पर दृढता है। उपयोग हो ही तब सकता है जब वस्तु कुछ देर ठहरी रह सके। सौन्दर्य तीसरे नम्बर पर है, क्योंकि सौन्दर्य सापेक्षिक है और उपयोग न होने से सुन्दर-से-सुन्दर वस्तु भी कुरूप प्रतीत होने लगती है। एक अत्यन्त कुरुप परन्तु आज्ञाकारी और सेवा करनेवाले पुत्र को लोग अधिक चाहते हैं, उस पुत्र की अपेक्षा जो बहुत सुन्दर है परन्तु माता-पिता को कष्ट दिया करता है। इस मन्त्र में जीवन के साधन और उपयोग दोनों की ओर संकेत किया गया है।
‘इन्द्र‘ परमात्मा का नाम है। ऐश्वर्यवान् को इन्द्र कहते हैं। ‘इदि परमैश्वर्ये‘ इस धातु से ‘रन्‘ प्रत्यय करने से ‘इन्द्र‘ शब्द सिद्ध होता है। य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्र: परमेश्वर:। जो अखिल ऐश्वर्य-युक्त है । इससे उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र‘ है। (देखो सत्यार्थ-प्रकाश, समुल्लास प्रथम)
उपासक के लिए यह उचित ही है कि अपने लिए जीविका माँगते हुए वह ईश्वर को ‘इन्द्र‘ नाम से सम्बोधित करे। ‘मृळ‘ का अर्थ है ‘प्रसन्न हूजिए, कृपा कीजिए।‘ प्रार्थी आदेश नहीं चाहता, कृपा चाहता है अर्थात् जो चीज वह माँगता है उसे वह बहुत प्यारी समझता है। हम उसी वस्तु की मांग करते हैं, जो बहुत प्यारी लगती है। ‘जीवन‘ से प्यारा मनुष्य के लिए है भी क्या? मनुष्य अपने जीवन को बचाने के लिए धन, दौलत, रिश्तेदार, यहाँ तक कि यश का भी परित्याग कर देते हैं। परमात्मा ने जब हमको जीवन दिया तो साथ ही जीवन के लिए प्रेम भी दिया। यह जीवन-प्रेम सब प्राणियों में पाया जाता है और इसी आधार पर हर प्राणी अपने जीवन की रक्षा करने में तत्पर रहता है तथा जहाँ-कहीं अपने को अशक्त पाता है वहाँ परमात्मा से प्रार्थना करता है। इस मन्त्र में दी हुई प्रार्थना इसी भाव की सूचक है।
हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जीवन दिया है तो जीविका भी आप ही दीजिए। यदि आपकी इच्छा मुझे उत्पन्न करने की न होती तो आप मुझे उत्पन्न न करते। जब जीवन दिया तो जीवन को स्वस्थ रखने के साधन भी दीजिए। इन साधनों में सबसे पहला साधन यह है कि मैं अपने जीवन से प्रेम करूँ। इसको ठीक रखने की इच्छा मुझमें उत्पन्न और बलवती हो। जीवन परमात्मा की सबसे बड़ी देन है, इसकी हमको कद्र करनी चाहिए।
यों तो सभी जीते रहना चाहते हैं, परन्तु सभी जीवन को स्वस्थ रखने का यत्न नहीं करते, न उनमें इच्छा ही होती है। उर्दू के प्रसिद्ध शायर ‘गालिब‘ का एक पद है-
नहीं गम, मुफ्त जाँ, गर हाथ से जाए।
न मैं अत्तार से लूँगा दवा कर्ज ॥
यहाँ कवि का तात्पर्य यह है कि हमको जीवन तो मुफ्त मिल गया है, इसके लिए मूल्य चुकाना नहीं पड़ा। जो चीज मुफ्त मिले उसकी कद्र भी कोई नहीं करता। परन्तु यह वैदिक शिक्षा नहीं है। हमारे ‘जीवन‘ में ईश्वर की कृपा तो है ही, परन्तु साथ ही हमारी भी जन्म-जन्मान्तर की कमाई है। इसलिए सबसे प्रथम चीज यह है कि हमारे हृदय में जीवन के लिए मान और प्रेम होना चाहिए और हमारी हर क्रिया से यह प्रकट होना चाहिए कि हम जीवन को ठीक रखने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। जीवन बहुमूल्य पदार्थ है। यदि उसको त्यागना भी पड़े तो केवल उसी वस्तु के लिए जो जीवन से भी अधिक मूल्यवान् है। देश और जाति का नेता कभी-कभी अपने जीवन को संकट में डाल देता है, परन्तु उसी समय जब वह बहुत-से जीवनों की रक्षा के लिए एक जीवन को दे डालना आवश्यक समझता है। जो निष्प्रयोजन जीवन को नष्ट कर देते हैं, वे पाप करते हैं। आत्मघात सबसे बड़ा पाप है। समस्त प्रकार की हत्याओं से बड़ी आत्महत्या है।
ऐसे बहुमूल्य जीवन को सुरक्षित रखना सुगम नहीं है। मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं। कुछ बाधाएँ बाधाओं के रूप में आती हैं और कुछ प्रलोभनों के रूप में। जो शत्रु शत्रु बनकर सामने आता है उससे रक्षा करना सुगम है, परन्तु जो मित्र बनकर आता है उससे बचना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह शत्रु को मित्र और मित्र को शत्रु समझ बैठता है।
हश्र क्या उस मरीज का होगा।
जहर को जो दवा समझता है ॥
आप तनिक मनुष्य-जीवन पर दृष्टि डालें, उनकी विफलता और सफलता का परिगणन करें। आपको ज्ञात होगा कि अधिकतर मनुष्य इसीलिए क्लेश उठाता है कि वह शत्रुओं को मित्र और विष को अमृत समझता है। योगदर्शन में अविद्या को सभी अन्य क्लेशों का क्षेत्र बताया है। मित्र कहलाने वाले शत्रुओं से बचने के लिए सतर्क होने की आवश्यकता है। सतर्क होने के लिए ‘तर्क‘ चाहिए। न्याय दर्शन में मुक्ति के सोलह साधन बताए हैं, उनमें से एक ‘तर्क‘ भी है। तर्क के लिए चाहिए तीक्ष्ण बुद्धि। इस मन्त्र में इसीलिए कहा गया है- चोदय धियमयसो न धाराम्। यहाँ ‘न‘ का अर्थ है ‘इव‘ या समान। वेद में ‘न‘ शब्द का यह प्रयोग बहुत मिलेगा। ‘‘हे प्रभो! हमारी बुद्धि को तलवार की धार के समान पैनी और तीक्ष्ण बनाइए।‘‘ इस प्रार्थना से बुद्धि की उत्कृष्टता और बहुमूल्यता प्रकट होती है। जीवन में तो बहुत-सी चीजें शामिल हैं- नाक, कान, आँख आदि। परन्तु इनसे भी अधिक मूल्यवान् बुद्धि है-
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्।
जिसके बुद्धि नहीं वह तो निर्बलों से भी निर्बल है। एक पतला-दुबला मनुष्य अपनी बुद्धि की सहायता से बड़े-बड़े शेरों को पकड़कर बन्दरों की तरह नाच नचाता है। महात्मा गाँधी ने अपनी बुद्धि के बल से संसार की सबसे बड़ी और शक्तिशाली ब्रिटिश हुकूमत को परास्त कर दिया।
बहुधा दार्शनिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में बुद्धि की अवहेलना की गई है। धर्म के विषयों में बुद्धि को लगाना अश्रद्धा और अधार्मिकता का सूचक समझा जाता है। प्राय: धार्मिक सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने अनुयायियों को अपनी बुद्धि के प्रयोग से निरुत्साहित किया। बहुधा जब कोई बच्चा किसी विषय में तर्क करता है जो गुरुजन डाँट देते हैं-‘‘क्या तुम हमसे भी अधिक जानते हो?‘‘ बच्चे की तर्कशक्ति मारी जाती है। जब-जब धर्मगुरुओं और पैगम्बर लोगों के समक्ष जनता ने कोई प्रश्न उठाया तो उनको यही कहकर चुप कर दिया गया कि तुम क्या जानो, खुदा तुमसे ज्यादा जानता है। खुदा की बात में ननुनच नहीं करनी चाहिए। परन्तु वेद की यह शिक्षा नहीं है। यदि हम बुद्धि का प्रयोग न करें तो कैसे जान सकें कि अमुक आचार्य माननीय है और अमुक तिरस्करणीय ! अमुक पैगम्बर सच्चा है और अमुक झूठा ! सभी सम्प्रदाय आपने आचार्य को सच्चा और दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों को झूठा समझते हैं। हमारे पास कौन-सी कसौटी है सिवाय बुद्धि के जिससे हम जान सकें कि अमुक मत मन्तव्य है और अमुक अमन्तव्य ! इसीलिए मनु ने धर्म के दश लक्षणों में एक ‘धी‘ को भी सम्मिलित किया है। ‘धी‘ अर्थात् बुद्धि के बिना तो धर्म के शेष नौ लक्षण व्यर्थ-से सिद्ध होते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि मनुष्य अल्प है। उसकी बुद्धि छोटी है, अत: वह काम पड़ने पर धोखा दे जाती है। यह ठीक है कि सबकी बुद्धि एक-सी नहीं होती। सब चाकू भी तो एक-से पैने नहीं होते। लौकी काटने के चाकू से आप कलम नहीं बना सकते। कठोर वस्तुओं के लिए तेज चाकू चाहिए, परन्तु इससे बुद्धि की अवहेलना तो नहीं हुई। कल्पना कीजिए कि अपनी बुद्धि को आप अल्प समझकर इसका उपयोग छोड़ दें, तो दो हानियाँ होंगी। प्रथम तो आप नि:शस्त्र हो जाएँगे। आपके पास बुद्धि को छोडकर और था ही क्या? जो कुछ था उसे भी आप खो ही बैठे। अब आप अपना काम कैसे चलाएँगे? दूसरी सबसे बड़ी हानि यह होगी कि बुद्धि दिन-पर-दिन और भी कुण्ठित होने लगेगी और आप मनुष्य के स्तर को छोडकर भेड के स्तर को पहुँच जाएँगे। जिस कुंजी (घशू) का प्रयोग न किया जाए उसको जंग लग जाता है। इसी प्रकार जो लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग छोड देेते हैं, वे अपनी बुद्धि को सर्वथा कुंठित कर देते हैं। यह तो ऐसी स्पष्ट बात है कि आप इसका परीक्षण अपने या दूसरों के ऊपर सुगमता से कर सकते हैं। इसीलिए विद्यालयों में जो पाठ्य-विषय या पाठ्य-पुस्तकें नियत की जाती हैं, उनमें ध्यान रखा जाता है कि पढनेवालों की बुद्धि का विकास अधिक-से-अधिक हो। हर एक की बुद्धि पैनी नहीं होती। परन्तु पैनी करते-करते अधिक पैनी हो जाती है और प्रयोग छोड़ देने से पैनी-से-पैनी बुद्धि कुंठित हो जाती है । अत: धर्म का सबसे बड़ा शत्रु वह है जो अपना धर्म चलाने के हेतु धर्म के नाम पर तर्क और बुद्धि की अवहेलना करता है। तर्क को विशुद्ध बनाना और बात है और तर्क की अवहेलना दूसरी बात। तर्क में विशुद्धता भी तर्क के प्रयोग से ही आती है। निरुक्तकार ने तर्क को इसीलिए ऋषि कहा और इस वेदमन्त्र में बुद्धि की तलवार की धार से इसीलिए उपमा दी गई।
संसार में देखा जाता है कि बाजार में शाक-भाजी बेचनेवाले से लेकर मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले गुरूओं तक सभी हमारी आँखो में धूल डालने का यत्न करते हैं। नारंगी बेचनेवाला मीठी नारंगियों में खट्टी मिला देता है। सम्प्रदायों का चालाक प्रवर्तक कल्पित स्वर्ग का ऐसा मित्र हमारे सामने रखता है कि हम मुग्ध होकर अपना तन-मन-धन सब गुरु जी के अर्पण कर देते हैं। जैसे मीठी नारंगी की जाँच बुद्धि से होगी, उसी प्रकार सच्चे स्वर्ग की पहचान भी तो बुद्धि से ही हो सकेगी। अत: वैदिक सिद्धान्त यह है कि अपनी बुद्धि का सदा प्रयोग करते रहो और जब तक बुद्धि से यह सिद्ध न हो जाए तब तक किसी की बात मत मानो। न्याय-दर्शन में महामुनि गोतम ने धोखेबाजों के कुतर्कों से बचने के लिए बहुत-सी बहुमूल्य कसौटियाँ दी हैं, जिनके प्रयोग से हमारी बुद्धि तलवार से भी पैनी हो सकती है और हम न केवल जीविका प्राप्त करने अपितु जीवनोद्देश्य की पूर्ति में भी सफल हो सकते हैं।
अगले चरण में ‘अहम्‘ का एक विशेषण आया है ‘त्वायु‘। ‘त्वायु:‘ का अर्थ है तुझे चाहने या प्यार करनेवाला। प्रार्थी ईश्वर को प्यार करता है। उसकी प्राप्ति के लिए मन से कामना करता है। वह आस्तिक है। ‘इन्द्र‘ का भक्त है। ‘अनिन्द्र‘ या नास्तिक नहीं है। ईश्वर का प्यारा किसी ऐसी वस्तु की कामना कर ही नहीं सकता जो ईश्वर को प्रिय न हो या उसको उचित न जान पड़े। उपासक की कामनाएँ उपास्यदेव की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिएँ। इच्छा उपासक की नहीं अपितु उपास्य की है। राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रजा हो। आग्रह का कोई प्रश्न ही नहीं। अपनी इच्छाओं को अपने प्यारे के सिर पर थोपना या थोपने का विचार करना ‘प्रेम‘ का दुरुपयोग है। प्राय: हम मतमतान्तरों की गाथाओं में इस प्रकार की प्रार्थनाओं का उल्लेख पाते हैं, जब उपासक अड़ जाता है। कहते हैं कि तुलसीदास कृष्ण-मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति के सामने अड़ गये और कहने लगे कि तुलसी मस्तक तब झुके धनुषबाण लो हाथ। क्या जाने यह घटना ऐतिहासिक है या कल्पनामात्र है। परन्तु इसकी पीठ पर जो भावना है, वह अवैदिक है। भक्त अड़ता नहीं, उपास्य से प्यार करता और उसी के स्वभाव के अनुकूल अपना स्वभाव बनाता है। वेदमन्त्र में बड़े सौन्दर्य के साथ कहा है-यत् किं च अहं त्वायु: इदं वदामि तत् जुषस्व। आपके प्रेम में मग्न होकर जो कुछ मैं प्रार्थना करुँ, उसको स्वीकार कीजिए।
न यह चाहता हूँ, न वह चाहता हूँ।
फकत अपने रब की रजा चाहता हूँ॥
अन्तिम पद है ‘कृधि मा देववन्तम्‘ यह जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। जीविका माँगी इसलिए कि जीवन सुरक्षित रहे। अन्य कामनाएँ माँगी जो उपासक को उपासक होने के नाते माँगनी चाहिएँ, परन्तु इन सब कामनाओं का भी एक ध्येय है, अर्थात् ‘मुझे देव बनाइए।‘ मनुष्य मनुष्य-रूप में उत्पन्न होता है और देव बनना चाहता है।
खुदा की है यह इबादत, खुदा-सा बन जाऊँ।
उपनिषद् कहती है-ब्रह्मविद् ब्रह्म एव भवति। ब्रह्म का उपासक ब्रह्म ही हो जाता है। ‘एव‘ का अर्थ है ‘इव‘। लगभग वैसा ही। लोहे के गोले में आग से सम्पर्क करते हुए यदि गर्मी न आए तो आग का सम्पर्क ही व्यर्थ है। भगवान् की उपासना करके यदि भगवान् के गुण अपने में न आएँ तो ऐसी उपासना से क्या लाभ? इसलिए उपासक में ‘देववन्तम्‘ बनने की इच्छा होनी चाहिए और उसी के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
लोग ईश्वर से ऐसी चीजें माँगते हैं, जिनसे उनमें देवत्व तो दूर रहा मानवता भी नहीं रहने पाती। हम चाहते हैं कि हमारा उपास्यदेव हमारे पापों के बदले हमको उपासना के बल पर शुभ फल दे। यह वैदिक प्रार्थना नहीं है।
इस वेदमन्त्र में सारांशत: इतनी बातें दी हैं-
(1) जीवन प्यारी चीज है, इसके लिए जीविका की प्रार्थना करनी चाहिए।
(2) बिना बुद्धि के जीवन-यात्रा असम्भव है, अत: बुद्धि की तीक्ष्णता आवश्यक है।
(3) उपासक को उपास्य से वही चीज माँगनी चाहिए जिससे उपासक का उपास्य से प्रेम प्रकट हो। भक्त को भगवान् के वश में होना चाहिए। भगवान् को भक्त के वश में बताना भक्ति नहीं, अभक्ति है।
(4) जीवन का उद्देश्य यह है कि मनुष्य नित्यप्रति मनुष्यता के साधारण स्तर से उठकर देवत्व की ओर पग बढाता जाए। यही परमपद है। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - मार्च 2014)