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मृत्यु से निर्वांण तक

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अनवरत घटनायें घटित होती रहती हैं। घटनाओं का प्रत्येक मनुष्य पर भिन्न प्रभाव पड़ता है। आत्मा का स्वभाव जैसा रहेगा, उसी के अनुरूप उसका चिन्तन भी होगा।

बालक मूलशंकर ने बचपन में ही जब अपनी बहन एवं चाचा की मृत्यु को देखा तो इस घटना ने उनका जीवन ही बदल दिया। मृत्यु के प्रति उनमें जिज्ञासा हुई कि यदि एक दिन सबने ही मृत्यु को पाना है तो क्यों न मैं उस मृत्यु से बचने का प्रयास करुँ। इसके पश्‍चात् शिवलिंग पर चढ़ाये गए प्रसाद को चूहे द्वारा खाता देख जिज्ञासु मूलशंकर ने सोचा कि जो स्वयं ही अपनी रक्षा नहीं कर पा रहा है, वह हमारी रक्षा क्या करेगा? सच्चे शिव की खोज और मृत्यु को जीतने की जिज्ञासा लेकर बालक ने अपना घर-बार व सबकुछ छोड़ दिया।

जिज्ञासु बालक भटक-भटककर लोगों से मृत्यु से बचने का उपाय पूछता रहा। लोगों ने उसे योगाभ्यास का मार्ग बताया। उस समय के कई जाने-माने गुरुओं से बालक शुद्ध चैतन्य ने योग सीखा। बालक अब स्वामी दयानन्द बन चुका था। मन अशान्त था। ज्ञान प्राप्त करते हेतु अनेकों ग्रन्थों का स्वाध्याय किया। अन्त में गुरुवर विरजानन्द जी की कुटिया में पहुँचे। गुरु ने संस्कृत और वेदों के ज्ञान की स्वामी दयानन्द को दीक्षा दी। अपने प्रिय शिष्य से गुरु दक्षिणा में उन्होंने स्वामी जी को अहर्निश वेदों का प्रचार करने का आदेश दिया।

वह बालक मूलशंकर मृत्यु को जीतने चला था। अब वह स्वामी दयानन्द निर्भीक संन्यासी बन मृत्यु को हाथ में लेकर वैदिक धर्म का प्रचार करने निकल पड़ा।

एक तरफ अज्ञानता ने मृत्यु को जीतने की प्रेरणा दी तो दूसरी ओर वैदिक ज्ञान के प्रकाश ने उन्हें आलोकित कर मृत्यु को हाथ में लेकर निरन्तर वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये अपने आपको आहुत करने की प्रेरणा दी।

वैदिक धर्म के अनुरूप सामाजिक सुधारवाद, राष्ट्रवाद, अध्यात्मवाद के दीपक को लेकर वह प्रज्ज्वलित होता रहा। अपने योगाभ्यास से मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता उन्होंने पा ली थी, ऐसा सभी विद्वान कहते हैं। फिर भी मानव मात्र के कल्याण और उसे मोक्ष की ओर प्रवृत्त करने हेतु आजीवन उद्वेलित रहे। अपने मृतक बालक के शव को नदी में बहाने हेतु अपने शरीर का वस्त्र उढ़ाते हुए देख और फिर वही वस्त्र पुनः अपने शरीर को ढंकने के लिए उठाता देख और गौ माँ की दुर्दशा देख वे द्रवित हो पड़े थे। पराधीन राष्ट्र को स्वाधीन करने की प्रेरणा उन्होंने जगायी। पाखण्ड, अन्धविश्‍वास, अज्ञानता को दूर करने का निरन्तर प्रयत्न वे करते रहे।

दीपावली दीपों का त्यौहार है। कार्तिक अमावस्या की रात सबसे अधिक अन्धकारमय रात्रि होती है। उसी रात्रि के तिमिर को दूर करने के लिए यह दीपों का पर्व प्रतिवर्ष मनाया जाता है। दीपक स्वयं जलकर हमें प्रकाश देता है। इसी तरह अपने आपको प्रज्ज्वलित करते हुए 30 अक्टूबर 1983 ई. मंगलवार कार्तिक अमावस्या के दिन सायं 5 बजे ऋषि ने इस संसार से महाप्रयाण किया।

जो बालक मृत्यु को जीतने निकला था, उसने स्वामी दयानन्द बनकर स्वयं कहा ‘‘हे ईश्‍वर, तेरी इच्छा पूर्ण हो। तूने अच्छी लीला की’’ और ओ3म् का उच्चारण करते हुए मृत्यु का वरण किया।

ऋषि दयानन्द के प्रति ऋषि के अनुयायियों की सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी कि हम आज के दिन वेद मार्ग पर चलने का संकल्प लें। - संगीत आर्य (दिव्ययुग- नवंबर 2012)