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सास-ससुर के लिए साम्राज्ञी होती थी नववधू

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भारतीय तथा अभारतीय - सभी समाजों में नारी की अपेक्षा पुरुष प्रधान है। प्रकृति प्रदत्त शारीरिक बल के आधार पर वह अपने को नारी के जीवन का नियामक समझ बैठा और उसने नारी के लिए मनमाने विधान बना डाले किन्तु प्राचीन भारत में नारी सर्वगुण सम्पन्नता का पर्याय थी। प्रत्येक का उसके प्रति पूजनीय भाव था। विद्या, धन, पराक्रम, सौंदर्य तथा पावनता की प्रतिमूर्ति नारी क्रमशः सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, रति और गंगा कहलाई। लक्ष्मी के बिना विष्णु, पार्वती के बिना शिव, सीता के बिना राम, राधा के बिना कृष्ण अधूरे थे। वैदिक काल में नववधू ससुर, देवर, ननद, सास सबके लिए साम्राज्ञी शब्द से (अथर्व वेद १४/१४) प्रतिष्ठित थी। इस साम्राज्ञी शब्द से उसकी उच्च स्थिति का पता चलता था।

विशाल सभा में याज्ञवल्क्य से गार्गी के प्रश्नोत्तर का जिक्र आता है। इससे सिद्ध होता है कि उस समय पर्दा प्रथा न थी अन्यथा विशाल सभा में गार्गी कैसे उपस्थित होती ?

शतपथ ब्राम्हण में लिखा है कि याज्ञवल्क्य जब संन्यास लेने लगे तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों - मैत्रैयी और कल्यायनी से कहा कि 'आओ तुम्हारी सम्पत्ति का आपस में बंटवारा कर दूं। इससे सिद्ध होता है कि स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार था।

प्राचीन काल में स्त्रियां उच्च शिक्षा भी ग्रहण करती थीं। प्राचीन इतिहास में सुलभा का नाम प्रसिद्ध है। उसने यह प्रण किया था कि जो भी उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा, वह उसी से विवाह करेगी।

कई वेद मन्त्रों के अर्थ को स्पष्ट करने वाली स्त्री-ऋषिकाएं भी हुई हैं, जैसे लोपामुद्रा, श्रद्धा, सरमा, रोमशा, घोषा आदि।

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कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था। इसी समय यज्ञोपवीत भी किया जाता था। शिक्षा देने के समय को उपनयन काल कहा जाता था। लड़कों के समान लड़कियां भी ब्रम्हचर्यव्रत धारण करती थीं।

वैदिक काल में बालविवाह नहीं थे और कन्याओं को पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। ब्रम्ह्चर्याश्रम के सब नियमों को जिनमे शिक्षा प्राप्त करना प्रधान था, पूर्ण करके ही कन्या विवाह कर सकती थी।

धार्मिक क्षेत्र में स्त्री पुरुष के बराबर थी। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में यहां तक कि कन्यादान के समय भी माता की उपस्थिति आवश्यक थी। ईटा को अकेले कन्यादान करने का अधिकार नहीं था। राजसूय यज्ञ के समय राजा श्रीराम को परित्यक्ता सीता की स्वर्ण प्रतिमा रखनी पड़ी थी।

पुरुष शारीरिक रूप से शक्तिशाली था, अतः वह स्त्री की रक्षा का दायित्व अब तक सहर्ष वहन करता था किन्तु मध्य युग में उसने स्त्री की शारीरिक निर्बलता का लाभ उठा कर उसे अपने सारे अधिकारों से धीरे-धीरे वंचित करना आरम्भ कर दिया। अब तक गृहस्थाश्रम के कर्म स्त्री-पुरुष की सुविधानुसार बंटे हुए थे। पुरुष का कार्य धनोपार्जन करना था तो स्त्री का बच्चों का लालन-पालन एवं गृह के विभिन्न प्रबंध। अब पुरुष की दृष्टि ने पलटा खाया और वह स्त्री को आर्थिक रूप से भी अपने पर आश्रित समझने लगा। परिणामतः पुरुष ने अपने को स्त्री का पालनकर्ता समझ लिया और उस पर मनमाना शासन कर लगा। स्त्री विकास के सारे द्वार उसने बंद कर दिए। अपने स्वार्थ की पूर्ति में सहायक मनमाने बंधन उस पर लगा दिए। मध्य युग के पूर्वार्द्ध तक यहां मनु लिखते हैं स्त्रियां विश्वास करने योग्य नहीं, स्वतन्त्र रहें लायक नहीं, उसी मनुस्मृति में वे लिखते हैं, जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, उस स्थान पर देवता वास करते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि मध्ययुग के पूर्वार्द्ध में स्त्री की जो दुर्दशा होने से बची तह वह उत्तरार्द्ध तक आते-आते पराकाष्ठा पर पहुंच गई और मनु-स्मृति आदि ग्रन्थों में प्रक्षेपन करके यह सब किया गया। स्त्री की स्थिति यहां तक गिरा दी गई कि यदि कहा जाए कि वह मनुष्य की कोटि ही में नहीं रही, तो अत्युक्ति न होगी। पुरुष पत्नी के रहते अनेक शादियां कर सकता था। पत्नी को उसका विरोध करने का अधिकार नहीं था।

इस युग में स्त्री-शिक्षा समाप्त हो गई और दूध पीती बच्चियों के विवाह रचाए जाने लगे। फलस्वरूप विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी। विधवाएं वैधव्य की भयंकर यंत्रणाएँ सहन की अपेक्षा जीते-जी पति की चिता के साथ जल कर मुक्त होना बेहतर समझने लगीं। पहले सती-प्रथा स्त्री की स्वेच्छा पर आधारित थी बाद में उसका रूप बाधित हो गया। वैदिक काल में यह कुप्रथा नहीं थी।

१८ वीं शताब्दी के अंत तक स्त्री-शिक्षा क नाममात्र का महत्त्व महत्व दिया जाता था। तीन बड़े आंकड़ों से स्थिति को देखा जा सकता है - मुनरो के अनुसार सन १८२२ ई. में देशी प्राथमिक शालाओं में १ लाख ७८ हजार ६ सौ ३० लड़के शिक्षा पा रहे थे जबकि लड़कियां कुल ५ हजार ४ सौ ७० ही शिक्षा ग्रहण क्र रही थीं। बम्बई में सन १८२४-२५ ई. में कोई भी लड़की किसी स्कूल में नहीं पढ़ रही थी। एडम के अनुसार बंगाल में सन १८३५ ई. तक किसी भी लड़की की शिक्षा का कोई प्रश्न ही नहीं था। इसका विशेष कारण था कि शिक्षा का कोई प्रश्न ही नहीं था। इसका विशेष कारण था कि हिन्दू परिवारों में स्त्री-शिक्षा को लेकर अनेक अन्धविश्वास थे। उनकी एक मान्यता थी कि पढ़ी-लिखी लड़की विधवा हो जाएगी।

ब्रिटेन की पार्लियामेंट की ओर से सन १८१३ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी को स्त्री-शिक्षा के प्रयत्नों के प्रति आदेश भी हुए किन्तु रूढ़िगत भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के परिणामों को सोच कर इस ओर प्रयत्न नहीं हुए। सन १८५५४ ई. तक कुछ सुधारकों एवं मिशनरियों के प्रयत्नों से स्त्री-शिक्षा की ओर ध्यान दिया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल के मुखिया चार्ल्स वुड ने स्त्रियों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने का आदेश दिया। सन १८८१ ई. तक भी एक हजार लड़कों की तुलना में केवल ४६ लड़कियां शिक्षा ग्रहण कर रही थीं। आर्य समाज ने स्वामी श्रद्धानन्द और महात्मा हँसराज के नेतृत्व में नारी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया और अनेक कन्या गुरुकुल व स्कूल उनके समय में तथा बाद में स्थापित हुए।

उन्नीसवीं शताब्दी में बाल-विवाह एक परम्परा बन गया था। किन्तु ११ वर्षीय फूलमणि दासी की मृत्यु की घटना से विवाह की आयु १२ वर्ष कर दी गई। इस पर पुरातनपंथियों ने इसका घोर विरोध किया। आर्य समाज ने इस क्षेत्र में भी संघर्ष किया और शारदा विवाह एक्ट अस्तित्व में आया।

सन १८८४ में विधवाओं की दयनीय स्थिति के प्रति श्री बहरामजी मालाबारी ने सरकार का ध्यान आकृष्ट किया भी लेकिन इसके विरोध में सरकार को अनेक पत्र लिखे गए। जहां ऐसा दृष्टिकोण हो वहां स्त्री के प्रति सदभावना का क्या व्यवहार हो सकता था ? स्त्री को आदर्श के नाम पर दुर्दशा के गर्त में धकेल दिया गया। वह अनेक अत्याचार स्त्रीत्व के नाम पर सहती रहे और उफ तक न की। पत्नी को पति के मरने के पश्चात उसके नाम पर अपने जीवन का बलिदान करना आवश्यक था और पति एक स्त्री के रहते हुए भी अनेक विवाह कर सकता था। पति कोढ़ी हो, पागल हो, व्यभिचारी हो कित्नु पत्नी को उसकी सेवा करने से छुटकारा नहीं था।

सोलहवीं शताब्दी से चल कर बीसवीं शताब्दी तक पहुंचते-पहुंचते यूरोप की नारी अपनी स्थति के प्रति सजग हो गई थी। अपने अधिकारों के लिए सफ्रेजिस्ट मूवमंट करे की भी उसमे सामर्थ्य आ गई थी।

सबसे अधिक क्रान्ति गांधी जी के असहयोग आंदोलन में हुई जब स्त्री अपना पर्दा फाड़ कर पिकेटिंग करने के लिए कपडे की दुकानों पर जा खड़ी हुई। घर में केवल रोटी ही पकाती ही न रही वरन बम भी बनाने लगी। इस प्रकार इस आन्दोलन से दो लाभ हुए- प्रथम पुरुष का नारी के प्रति दृष्टिकोण बदला। पुरुष, जो अब तक स्त्री को अबला और रक्षणीया समझ रहा था उसने उसका सबल रूप देखा और स्त्री का स्वयं अपने प्रति दृष्टिकोण बदला और उसे अपनी शक्ति का आभास हुआ। वह सदियों की अपनी जर्जर अवस्था से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हुईं। परिणामतः सन १९६ ई. में बाल-विवाह निषेधक अधिनियम बना। सन १९४९ ई. में इस कानून के अनुसार लड़की की विवाह योग्य आयु १४ से १५ वर्ष कर दी गई।

स्त्री-मताधिकार के लिए भी स्त्रियां को आन्दोलन करने पड़े। भारत में सन १९२३ ई. तक विधान सभाओं की सदस्यता का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त नहीं था। सन १९३५ ई. में जब भारत का नया विधान बना उस समय भी उनकी इस मांग को तो न माना गया किन्तु विभिन्न प्रान्तीय सभाओं में इनके लिए ४१ सींटे सुरक्षित कर दी गई। सन १९४७ ई. के बाद स्वतंत्र भारत के संविधान ने महिलाओं को मतदान का अंधकार दे दिया। राजनीतिक अधिकारों से भी अधिक सामाजिक अधिकारों की स्त्रियों को आवश्यकता थी, जिसके आभाव में वे बाल-विवाह, वैधव्य, बहुपत्नीत्व आदि समस्याओं से ग्रस्त थी। फलतः उन्होंने बहुविवाह निषेध की मांग की। सन १९५५ में हिन्दू विवाह कानून बना, जिससे पुरुष के अनेक विवाहों पर पाबंदी लगा कर स्त्रियों को पारिवारिक घुटन से मुक्ति दिलाई। स्त्री को विवाह के नाम से आजीवन अयोग्य पति का बोझ ढोना पड़ता था। इसी कानुन से स्त्री क अयोग्य पति से तलाक द्वारा मुक्ति मिल सकती है।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम सन १८५६ ई. के अनुसार नारी को पत्नी के रूप में, माता के रूप में तथा स्त्री के रूप में सम्पत्ति में भी अधिकार प्राप्त हो गए हैं।

कानूनी तौर पर तो अब स्थति यह यही कि भारतीय नारी अब पूर्ण रूप से हर क्षेत्र में समाज में सामर्थ्यवान और समान है किन्तु नारी के प्रति गैर-कानूनी सामाजिक दृष्टिकोण कहां तक बदला है?

अब शिक्षा की बात करें। जहां तक उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग का प्रश्न है, उसमे काफी सुधार हुआ है। माता-पिता अधिकतर लड़के और लड़कियों में भेदभाव नहीं करते। वयवसायिक शिक्षा भी लड़कियों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार देने लगे हैं। किन्तु पढ़ी-लिखी शहरी लड़कियां को अपनी सामर्थ्य के अनुसार देने लगे हैं। व्यावसायिक शिक्षा भी लड़कियां भी जहां तक परम्पराओं का प्रश्न है वहां काफी सीमा तक अभी मध्यकाल में ही हैं।

लड़कियों के प्रति एक नया नजरिया भी प्रकाश में आया है। १९ फरवरी, १९८५ ई. को मुम्बई के एक पिता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि उसे अपनी सामर्थ्यवान डॉक्टर पुत्री से जीवन-निर्वाह का खर्च दिलाया जाए और कोर्ट ने पिता के पक्ष में फैसला सुनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि अब तक लड़की को पिता केवल देने का कर्त्तव्य समझता था, उससे पाने का अधिकार नहीं। किन्तु अब वह पुत्र के समान उससे लेने का अधिकार भी समझने लगा।

अब विधवाओं के प्रति समाज के दृष्टिकोण में अपेक्षाकृत सुधार अवश्य हुआ है। विधवा-विवाह पर कोई रोक नहीं। किन्तु फिर भी विधवा-विवाह अधिकतर प्रेम-विवाह ही होते हैं। अभी शिक्षित व्यक्तियों तक की ऐसी मानसिकता नहीं की अपने लड़के का विवाह किसी विधवा से करने को तैयार हो जाये। तमिलनाडु के सलेम गांव के विधवा-विवाह अभियान-समिति के अध्यक्ष मुत्थु स्वामी जैसे व्यक्तियों की, जिन्होंने अपने एकमात्र बेटे का विवाह एक विधवा से किया, संख्या एक दो ही है। लेकिन इससे आभास होता है कि विधवा के भविष्य में सुप्रभात के लिए वातावरण निर्मित हो रहा है। - डॉ. उषा माथुर