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खाद्य पर्यावरण (3)

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यजुर्वेद वाङ्मय में गायादि पशुओं की रक्षा के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। शतपथ ब्राह्मण में एक लघु आख्यान में उल्लेख है कि दीक्षा लेने वाले को गाय तथा बैल का मांस नहीं खाना चाहिए। गाय तथा बैल ने धरती को धारण कर रखा है। देवताओं ने कहा कि वस्तुतः ये संसार को धारण करते हैं अतः अन्य प्राणियों की शक्ति भी हम इन्हीं में स्थापित कर दें। इसलिए जो पराक्रम अन्य प्राणियों में था, उसे उन्होंने गाय और बैलों में रख दिया। इसलिए गाय और बैल खाते बहुत हैं। यदि गाय या बैल का मांस खाया जाएगा तो सब कुछ ही खा लिया जाएगा तथा अन्त में सबका नाश हो जाएगा। वह दूसरे जन्म में अद्भुत योनि को प्राप्त होगा। कहा जाएगा कि इसने पत्नी के गर्भ का नाश कर दिया। उसकी कीर्ति पापयुक्त होगी। इसलिए गाय और बैल का मांस न खावे।

स धन्वै चानडुहश्‍च नाश्‍नीयाद्धेन्वनडुहौ। वाऽइद सर्वं बिभृतस्ते देवा अब्रुवन्धेन्वनडुहौ वाऽइदंसर्वं बिभृतो हन्त यदन्येषां वयसां वीर्यं तद्धेन्वनडुहयोर्दधामेति स यदन्येषां वयसां वीर्यमासीत्तद्धेन्वनडुहयोरदधुस्तस्माद्धेनुश्‍चैवाड्वांश्‍च भूयिष्ठं भुङक्तस्तद्धेतत्सर्वाश्यमिव यो धेन्वनडुहयोरश्‍नीयादन्तगतिरिव तं हाद्भुतमभिजनितोर्जायः यै गर्भं निरबधीदिति पापकमदिति पापी कीर्तिस्तस्माद् धेन्वेन्डुहयोर्नाश्‍नीश्याद्॥85

पारस्कर गृह्यसूत्र में स्नातक के कर्त्तव्यों को गरिगणित करते हुए कहा गया है कि वह मांस न खाए- अमांस्याशी।86

इस प्रकार न तो हिंसा को और न ही मांस भक्षण को वेदविहित माना गया है। इन दोनों से विकृतियों की उत्पत्ति सम्भव है। ये विकृतियाँ वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रदूषण को बढ़ाती हैं, साथ ही पर्यावरण की सुरक्षा में बाधा पैदा कर देती हैं। भोजन की शुद्धता से ही मानसिक पवित्रता होगी। अस्तु मांसभक्षण का विरोध किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में सोम की प्रशंसा की गई है तथा सुरा की निन्दा की गई है। शतपथ में सोम को सत्य, ऐश्‍वर्य तथा प्रकाश कहा गया है, जबकि सुरा को झूठ, अपराध और अन्धकार कहा गया है-
सत्यं श्रीर्ज्योतिः सोमोऽनृतं पाप्मा तमः सुरा॥87

ब्राह्मण के लिए शराब पीने का निषेध किया गया है-
अभक्षो यत्सुरा ब्राह्मणस्य॥88

शराब पीने से मनुष्य क्रोधी बन जाता है-
सुरां पीत्वा रौद्रमना॥89

वैदिक काल में भोजन की शुद्धता की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। भोजन में किसी प्रकार का दूषित तत्व नहीं रहने दिया जाता था। पारस्कर गृह्यसूत्र में रात्रि के समय प्रकाश करके भोजन करने का उल्लेख है-
अवज्योत्य रात्रौ भोजनम्॥90

रात्रि के अन्धेरे में भोजन में कीट-पतंग आदि जन्तुओं, धूल आदि तथा अन्य विषैले पदार्थों के गिरने की सम्भावना रहती है। इसलिए प्रकाश करके भोजन करने को कहा गया है।

विवाह संस्कार के समय जब वधू, वर का स्वागत मधुपर्क द्वारा करती है, उस समय वर द्वारा मधुपर्क को तीन बार उंगली से मिलाया जाता है, ताकि यदि उसमें कोई अशुद्ध अंश हो तो निकाला जा सके- नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त आविद्धं तत्ते निष्क-न्तामि॥91

(श्‍वावास्याय) श्याव अर्थात् मिश्रित है आस्य अर्थात् मुख जिसका, ऐसे मधुपर्क के लिए नमस्कार हो। अन्न की तरह भोजन होता है जिसका ऐसे हे मधुपर्क! तेरे में जो मिलावट है, उसे काटकर फेक रहा हूँ अथवा जो दूषित द्रव्य संश्‍लिष्ट हो गया है, उसे निकालता हूँ।

इससे भी भोज्यान्न की शुद्धता और पवित्रता की ग्राह्यता का उल्लेख मिलता है।

शतपथ ब्र्राह्मण में ऊखल तथा मूसल को ही अन्न कहा गया है, क्योंकि इन्हीं से अन्न को कूटकर शुद्ध किया जाता है तथा तभी खाया जाता है-
तदेत्सर्वमन्नं यदुलूखलमुसलेऽउलूखलमुसलाभ्यां हि एवान्नं क्रियतऽउलूखलमुसलाभ्यामद्यते॥92

बर्तनों तथा थालियों को मांजकर साफ करने का भी उल्लेख प्राप्त होता है-
अथ द्वे पिशीले वा पात्र्यौ वा निर्णेनिजति॥93

पात्रों को साफ करके ही भोजन परोसने का भी उल्लेख मिलता है-
अथ पात्राणि निर्णेनिजति, तैर्निर्णिज्य परिवेविषते॥94

विश्‍व में प्रतिदिन अनेकों लोग भोजन की विषाक्तता से बीमार होते हैं। भोजन एवं उसके निर्माण के प्रति लापरवाही तथा असावधानी से ही ऐसा होता है। इसके लिए आवश्यक है कि पाकशाला एवं उससे सम्बन्धित सभी बर्तनों, वस्त्रों, पदार्थों आदि को स्वच्छ रखा जाए।

भोजन को विषाक्तता एवं कीटाणुओं से बचाने के लिए स्वयं की शारीरिक सफाई भी अत्यन्त आवश्यक है। भोजन छूने से पहले हाथ एवं नाखून साबुन आदि से भली भांति धो लेने चाहिएं। प्राचीन परम्परा के लोग अब भी सफाई का बहुत ध्यान रखते हैं तथा जूते आदि पहनकर पाकशाला के अन्दर नहीं जाते। सफाई विषयक प्राचीन ऋषियों का सन्देश जन-जन तक पहुँचना आवश्यक है। न केवल शुद्ध एवं सात्विक भोजन की अपितु उसके निर्माण और उपलब्धता विधि की शुचिता का भी निर्देश यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है। शारीरिक एवं मानसिक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आहार की शुचिता और संयम का महत्व सर्वोपरि है। वैदिक उल्लेेखों में उसी का प्रतिपादन किया गया है।

सन्दर्भ सूची
85. शतपथ ब्राह्मण 3.1.2.21
86. पारस्कर गृह्यसूत्र 2.8.3
87. शतपथ ब्राह्मण 5.1.2.10
88. शतपथ ब्राह्मण 12.8.1.5
89. शतपथ ब्राह्मण 12.7.3.20
90. पारस्कर गृह्यसूत्र 2.8.7 (क्रमशः) - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग - मार्च 2013देवी अहिल्या विश्‍वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध

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