ओ3म् आयुषायुः कृतां जीवायुष्मान् जीव मा मृथाः।
प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरुदगा वशम्॥ (अथर्ववेद 16.27.8)
शब्दार्थ- (आयुःकृताम्) हे मानव! तू अपने जीवन को बढ़ाने वाले, जीवन का निर्माण करने वाले, जीवनवानों के (आयुषा) जीवन से (आयुष्मान्) जीवनवान् होकर, उनके जीवनों से प्रेरणा लेकर (जीव) जीवन धारण कर। (मा मृथाः) मर मत (जीव) जीवन धारण कर। (आत्मन्वताम्) आत्मशक्ति से युक्त शूरवीर पुरुषों के समान (प्राणेन) प्राश शक्ति के साथ, दम-खम के साथ, ठाठ के साथ (जीव) प्राण धारण कर (मृत्योः वशम्) मौत के मुख में, मृत्यु के वश में (मा उद् अगाः) मत जा।
भावार्थ- इस छोटे से मन्त्र में कैसी उच्च, दिव्य और महान् प्रेरणा है! मन्त्र का एक-एक शब्द जीवन में ज्योति और शक्ति संचार करने वाला है। वेदमाता अपने अमृतपुत्रों को लोरियाँ देते हुए कहती है- हे जीव! तू जीवितों से, अपने जीवन को चमकानेवालों के जीवन से ज्योति लेकर, उनके जीवनों से प्रेरणा प्राप्त करके उनकी ही भाँति इस संसार में ठाठ से जी। यह जीवन बहुत अमूल्य है, अतः जीवन धारण कर, मर मत। आत्मवानों की भाँति प्राण शक्ति से युक्त होकर दम-खम के साथ ठाठ से जी। जीवन धारण कर। मौत के मुख में मत जा। एक बार तो मृत्यु को भी ठोकर लगा दे, मौत की बेड़ियों को भी काट डाल। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- मार्च 2013)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2