विशेष :

द्रोण-कलश

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ओ3म् इन्द्राय सोमम् ऋत्विजः सुनोता च धावत।
स्तोतुर्यो वचः शृणवद् हवं च मे॥ (अथर्ववेद 6.2.1)

यज्ञ-पूजा आदि में जल से भरे एक कलश की स्थापना की जाती है। इसे द्रोणकलश कहते हैं।

हमारे इस देह की कल्पना एक द्रोणकलश के रूप में की गई है। इसमें भरा हुआ सोम या तो परमात्मा से प्राप्त शुद्ध प्राण (आपः) हो सकते हैं या फिर दूषित प्राण हो सकता है। साधारण स्थिति यह है कि हमारे द्रोणकलश में भरा हुआ सोम दूषित हो गया है। देखना यह है कि प्रस्तुत मन्त्र इसे शुद्ध करने में किस प्रकार सहायता कर सकता है।

प्रतीक के रूप में जो बाहरी यज्ञ किया जाता है उसके सदस्यों को ‘ऋत्विज’ कहते हैं। ‘ऋत्विक’ का अर्थ है, वे जो यह जानते हैं कि किस समय क्या कार्य होना है या किया जाना चाहिए। हमारे इस स्थूल देह में हमारे अंग (जैसे यकृत्, आंत, हाथ-पैर आदि सब) ऋत्विज हैं। चौबीस घण्टों के दिन-रात में एक विशेष समय पर एक विशेष अंग सक्रिय होता है, जिसका विस्तार आजकल के डॉक्टरों ने पुनः खोज लिया है। श्‍वास का आना-जाना भी समय द्वारा नियन्त्रित होता है, जिसके लिए स्वर-विज्ञान नामक एक स्वतन्त्र योग की शाखा का विकास हुआ है।

तो वेद का यह मन्त्र विकास की उस सीढ़ी से आरम्भ होता है जहाँ शरीर के सब अंगों का समय से तादात्म्य स्थापित कर लिया गया हो। इस मन्त्र में कहा गया है कि हे ऋत्विजो! इन्द्र के लिए सोम का अर्क निकालो और उसे धोओ। सोम बहुत तरह का हो सकता है। जो अग्नि को शान्त करे उसे सोम कह सकते हैं। इस प्रकार हमारे पेट के अग्नि को शान्त करने वाला भोजन भी सोम कहलाएगा। इस सोम से पेट के अंग अर्क निकालते हैं। फिर वह आगे की प्रक्रिया में और अधिक स्वच्छ पदार्थ बनते हैं। जैसे मज्जा जो शरीर को वास्तविक पुष्टि देता है।

इन्द्रियों के स्वामी इन्द्र को भोजन से शक्ति मिलती है, तो जीवात्मा के स्वामी महेन्द्र को सोम के उच्चतर रूपों से। सोम की पुकार या स्तुति कौन करता है? शरीर का कण-कण सोम को पुकारता है। भूख लगने पर यह अनुभव होता है। ऐसे ही सोम के उच्चतर रूपों के लिए भी यह बात सत्य है।

मन्त्र में आगे कहा गया है कि हे ऋत्विजो! स्तोता की अभिव्यक्तियों (‘वचः’) को और मेरे आह्वान को सुनो। वस्तुस्थिति यह है कि हमारे शरीर के अंग सोम को पुकारते-पुकारते थक जाते हैं, बीमार पड़ जाते हैं, सड़-गल जाते हैं लेकिन सोम उन तक नहीं पहुँच पाता। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि किसी अंग में बीमारी उत्पन्न होने की स्थिति में केवल उस अंग द्वारा सोम की मांग ही पर्याप्त नहीं है, आत्मा की अभीप्सा भी उस मांग के साथ जुड़नी चाहिए। तभी सोम की प्राप्ति सम्भव है।

ओ3म् आ यं विशन्तीन्दवो वयो न वृक्षमन्धसः। विरप्शिन वि मृधो जहि रक्षस्विनीः॥ (अथर्ववेद 6.2.2)
यह सोम रूप जल काला (अन्धः) हो गया है। इसका क्या प्रमाण है कि यह काला हो गया है, श्‍वेत नहीं रहा? इसका प्रमाण यह है कि हमारी इन्द्रियाँ अलग-अलग घटक बनकर काम कर रही है। उनका स्वामी एक इन्द्र है, लेकिन उन्हें अपने स्वामी का पता नहीं है। जैसे यदि हम सुनते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि केवल कान प्रभावित हो रहे हैं। यदि हम सांस ले रहे हैं तो केवल श्‍वसनयन्त्र प्रभावित हो रहा है। सारा शरीर एक इकाई नहीं रह गया है। ‘अन्धः’ सोम की यही पहचान है। इस ‘अन्धः सोम’ का एक वृक्ष हमारे अन्दर खड़ा हो गया है जो बुढ़ापे ‘वयः’ को आमन्त्रण देता है। दूसरी ओर इन्द्र जो इन्द्रियों को क्रिया-शक्ति प्रदान करता है, सदा युवा है।

द्रोण-कलश में भरा जल कितना पवित्र है, इसकी पहचान यही है कि किसी एक इन्द्रिय का कार्य सारे शरीर को किस सीमा तक प्रभावित करता है। आजकल प्रचलित ‘वि-पश्यना’ ध्यान योग में श्‍वास के गमनागमन पर मन को केन्द्रित करना होता है। इस क्रिया की पराकाष्ठा यही है कि सारी इन्द्रियाँ श्‍वसन क्रिया में लीन हो जाएं, फिर बाहर चाहे बम भी फूटे तो उसका पता न चले। गौतम बुद्ध के जीवन की एक घटना है। आकाश से बिजली गिरी, आदमी मर गए, पशु मरे पर उन्हें पता न चला। ऐसी ही स्थिति भूख, निद्रा, सुनने, चखने आदि क्रियाओं की है। जीवन की प्रत्येक क्रिया को जागृत होकर देखो कि हमारे भीतर कौन सा पानी भरा है। ऐसा जल जो सारे शरीर को प्रभावित कर दे वह तो शुद्ध सोम ही हो सकता है, जिसे इन्द्र पीता है, जो ‘पुरुष्टुत’ है, जिसे सारी इन्द्रियाँ शक्ति पाने के लिए पुकार रही हैं। - डॉ. फतहसिंह (दिव्ययुग - मार्च 2013)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
मनुष्य बनने के साधन | introduction to vedas | Motivational Pravachan by Dr. Sanjay Dev