ओ3म् विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
इन्द्रस्य युज्यः सखा॥ ऋग्वेद 1.22.19॥
अन्वय- (हे मनुष्याः! यूयम्) विष्णोः कर्माणि पश्यत। यतः व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।
अर्थ- हे लोगो! (विष्णोः) विष्णु के (कर्माणि) कर्मों को (पश्यत) देखो, (यतः) जिन (कर्मों को) देखकर मनुष्य अपने (व्रतानि) व्रतों को (पस्पशे) पालन करने में सफल होता है। विष्णु (इन्द्रस्य) इन्द्र का (युज्यः) सबसे योग्य (सखा) सखा या मित्र है।
व्याख्या- इस मन्त्र में परमेश्वर को ‘विष्णु’ शब्द से सम्बोधित किया है। महर्षि दयानन्द ने ‘विष्णु’ शब्द से ईश्वर के जिस गुण का भाव लिया है, वह उनकी दी हुई शब्द-व्युत्पत्ति से प्रकाशित होता है। ‘विष्लृ व्याप्तौ’ इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर विष्णु शब्द सिद्ध हुआ है। वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः। चर और अचर-रूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम विष्णु है।
आस्तिक्य की पहली भावना यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है। सृष्टि-कर्ता का अर्थ है उन सब छोटी-बड़ी क्रियाओं का कर्त्ता जिनके कारण सृष्टि सृष्टि कहलाती है। जब हम कहते हैं कि पृथिवी को ईश्वर ने बनाया तो इसका अर्थ यह होता है कि परमाणुओं की पहली हलचल से जिससे पृथिवी का बनाना आरम्भ हुआ, लेकर उस क्रिया तक जब पृथिवी पूर्णरूप में तैयार हो गई और उसके पश्चात् वे सब प्रगतियाँ जिनके आश्रय से पृथिवी बनी हुई है, इन सब क्रियाओं का कर्ता परमेश्वर है। इसलिए संसार के प्रायः सभी आस्तिक-सम्प्रदाय ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं। परन्तु मनुष्यकृत या प्राणिकृत क्रियाओं के साथ एक सीमित भावना है। कुम्हार को हम घड़े का बनाने वाला कहते हैं। कारीगर को मकान का बनाने वाला कहते हैं।
जुलाहे को कपड़े का बनाने वाला कहते हैं। चित्रकार चित्र को बनाने वाला कहलाता है। यहाँ कर्तृत्त्व केवल एक अन्तिम क्रिया का है, शेष का नहीं। एक सीमा तक बनी हुई मिट्टी को अन्तिम रूप दे देने का नाम ही घड़े को बनाना है। घड़े को बनाने से पहले मिट्टी किन-किन क्रियाओं का परिणाम थी अथवा घड़ा बनाने के पीछे घड़े को घड़े के रूप में स्थित रखने के लिए किन रासायनिक क्रियाओं का नैरन्तय रहता है उससे कुम्हार का कोई सम्बन्ध नहीं। अतः कुम्हार का घड़े के साथ क्षणिक सम्पन्ध ही रहता है। इस उपमा के आधार पर कतिपय विचारकों ने यह धारणा बनाई है कि ईश्वर सृष्टि को बनाता है, उसके भीतर रहता नहीं। सृष्टि में तो तुच्छ से तुच्छ और गन्दी से गन्दी चीजें शामिल हैं। क्या ईश्वर उन सबमें चिपटा हुआ है? इसी आधार पर लोगों ने एक विशेष देवधाम की कल्पना की है।
उसी का नाम बहिश्त, हैविन, स्वर्ग, गोलोक आदि रखा है। वहीं से बैठा-बैठा ईश्वर इस मर्त्यलोक की भी देखभाल करता है। बहिश्त पर विश्वास रखने वाले लोग यह तो नहीं मानते कि जहन्नुम या नरक में भी ईश्वर उसी प्रकार व्याप्त है जैसे बहिश्त या स्वर्ग में। विष्णु शब्द में जो भावना निहित है वह इस सीमित भावना का खण्डन करती है। ईश्वर को प्रत्येक क्रिया में समाविष्ट होना चाहिए। वेदान्तदर्शन में ब्रह्म को ‘जन्माद्यस्य यतः’ लक्षणवाला लक्षित किया गया है अर्थात् ईश्वर वह है जिससे सृष्टि का सर्जन, पोषण और संहार होता है। सर्जन कोई अलग क्रिया नहीं है जो पोषण से अलग और भिन्न हो। सर्जन, पोषण और संहार के बीच में कोई भेदक भित्ति नहीं है। यह नहीं कह सकते कि सर्जन समाप्त हुआ अब पोषण आरम्भ होगा या पोषण समाप्त हुआ अब संहार प्रारम्भ होगा। वस्तुतः यह सब अनन्त क्रियाओं का एक सदा चलने वाला प्रवाह है। मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि की कल्पना से अपनी ओर से सीमाएँ निर्धारित कर लेता है। जो क्रियाएँ दिन बनाती हैं वही रात बनाने का भी कारण हैं। सूर्य और पृथिवी तो निरन्तर चलते ही रहते हैं, कभी ठहरते नहीं।
हम अपनी सीमित भाषा में कुछ को दिन और कुछ को रात कहते हैं। यदि हम पृथिवीलोक से बाहर देखें तो हम यह न कह सकेंगे कि अब दिन समाप्त हो गया, रात हो गई या रात समाप्त हो गई, दिन का आरम्भ है। इसी प्रकार जगत् की किस क्रिया को कहेंगे कि इसमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं है? वैदिक आस्तिकता की यह भावना बड़ी महत्वपूर्ण है। अणु-अणु और परमाणु-परमाणुओं में हर समय व्यापक होने के कारण ही हम ईश्वर को विष्णु कहते हैं। कोई विशेष विष्णुलोक नहीं। कण-कण और पत्ता-पत्ता विष्णुलोक है। चींटी का हृदय विष्णुलोक है। मच्छर का शरीर विष्णुलोक है। हाथी का शरीर विष्णुलोक है और मेरा तथा आपका मन भी विष्णुलोक है।
कुछ ब्रह्मवादियों ने ब्रह्म के कर्तृत्व का निषेध किया है। वे कहते हैं कि कर्तृत्व तो क्षुद्र प्राणियों की क्षुद्र इच्छाओं का परिणाम है। महान् ईश्वर तो क्रियाशून्य है। वह कर्म के बन्धन में नहीं आता। वह द्रष्टामात्र है, कर्त्ता नहीं। कर्त्ता और भोक्ता तो जीव हैं, ईश्वर नहीं।
यदि विचार से देखें तो यह युक्ति न केवल अवैदिक है अपितु सारहीन और हेत्वाभास भी। चेतन और जड़ में भेद ही यह है कि चेतन क्रियाशील होता है और जड़ क्रिया शून्य। यदि ईश्वर भी क्रिया शून्य हो तो वह जड़ हो जाए! यदि जड़ हो तो कर्त्ता न रहे और यदि कर्त्ता न रहे तो ईश्वर न रहे अर्थात् जिस आधार पर हमारे मन में ईश्वर की भावना का प्रादुर्भाव हुआ था, वह आधार ही न रहा तो र्ईश्वर की भावना भी नही रही। इसको आप दूसरे ढंग से सोचिए। आपने घड़ी देखी। सोचा कि घड़ी बनी हुई वस्तु है। उसका कोई बनाने वाला अवश्य होगा। आपके ध्यान में आया कि इसका जो कोई बनाने वाला होगा उसको हम ‘घड़ीसाज’ कहेंगे। इस भावना के आधार पर आपने घड़ीसाज के सम्बन्ध में अनेक कल्पनाएँ कीं। इसका नाम आपने रखा ‘घड़ीसाजी का साहित्य’। यदि अन्त में यह सिद्ध हो जाए कि जिसको हम घड़ीसाज कहते हैं उसका अस्तित्व तो अवश्य है परन्तु वह घड़ी का कर्त्ता नहीं हो सकता केवल द्रष्टामात्र है, तो उसके विचारों को कितना आघात पहुंचेगा? ‘घड़ीसाजी’ का समस्त साहित्य अस्त-व्यस्त हो जाएगा। जिस बुनियाद पर हमने आस्तिक्य भावना या ईश्वरवाद का भवन बनाया था वही धड़ाम से आ गिरता है। इसीलिए स्वामी दयानन्द ने ईश्वर के अनेक गुण-कर्म और स्वभावों का परिगणन करते हुए अन्त में लिखा कि ‘ईश्वर सृष्टिकर्त्ता’ है। वेदान्त या उपनिषदों के लिए ईश्वर का कर्तृत्व अपरिचित भावना नहीं है। उपनिषद कहती है-
यदा पश्यः पश्यति रुक्मवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति॥
जो लोग ईश्वर को कर्त्ता न मानकर द्रष्टामात्र हैं वे ‘दर्शन’ के अर्थों को नहीं समझते। द्रष्टा का दृश्य पदार्थ से यदि केवल ‘दर्शन’ मात्र का ही सम्बन्ध हो तो दृश्य की अपेक्षा से द्रष्टा की आवश्यकता नहीं रहती। यदि मैं दृश्य ही हूँ तो लाखों मेरे देखने वाले क्यों न हों मुझे क्या? बिल्ली राजा को देखती है। यहाँ बिल्ली ‘द्रष्टा’ है। राजा ‘दृश्य’। राजा पर बिल्ली का क्या प्रभाव है? अन्धा किसी को नहीं देखता। किसी का क्या बनता-बिगड़ता है? इसलिए केवल एक कल्पित सिद्धान्त की पुष्टि के लिए ईश्वर को ‘द्रष्टा’ मात्र मान बैठना ठीक नहीं है। वेद में ‘विष्णोः कर्माणि’ कहकर परमात्मा के कर्तृत्व को स्पष्ट कर दिया।
अब ‘पश्यत’ शब्द पर विचार कीजिए। यह ‘दृश्’ ‘लोट्’ धातु का मध्यम-पुरुष बहुवचन है। ‘पश्यत’= देखो। यहाँ ’पश्यत’ का अर्थ केवल चक्षु-इन्द्रिय से देखने मात्र का अर्थ नहीं है। ‘दर्शन’ का अर्थ है सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति। जब हम किसी को देखते हैं तो इस देखने के दो प्रकार हैं- एक स्थूल अर्थात् घटना मात्र को देखना, दूसरा उस नियम का ज्ञान प्राप्त करना जिसके अन्तर्गत वह घटना घटित हुई। इसको समझने के लिए एक साधारण घटना पर विचार कीजिए। कल्पना कीजिए कि आप अपने घर के भीतर हैं। किसी ने आपके द्वार पर दस्तक दी। आपने नौकर को आदेश दिया, ‘‘देखो कौन है?’’ यदि नौकर मूर्ख है तो जाएगा, देखेगा और आकर उत्तर देगा ‘‘एक आदमी है।’’ उत्तर ठीक है। आपने कहा ‘‘देखो।’’ वह देख आया। परन्तु आप सन्तुष्ट नहीं हैं। बुद्धिमान नौकर का उत्तर भिन्न होगा- ‘‘अमुक महाशय आये हैं। वह अमुक विषय पर आपसे बात करना चाहते हैं।’’ वस्तुतः आपने जब ‘देखो’ कहा तो आपका तात्पर्य इस पिछले दर्शन से था। इसी प्रकार जब वेद का मुख्य आदेश है कि विष्णु के कर्मों को देखो तो वहाँ ’देखो’ से तात्पर्य है सम्यक् ज्ञान प्राप्त करो।
सेब वृक्ष से गिरता है। लाखों ऐसी घटना को देखते हैं। परन्तु न्यूटन का देखना देखना था। कौन ऐसा है जो विष्णु के कर्मों नहीं देखता? कुत्ते, बिल्ली, भेड़-बकरी जिसके आँख है वह देखता है। साधारण मनुष्य की आँख के समक्ष विष्णु के बहुत से काम आते हैं। सूर्य निकलता है, नदी बहती है, वृक्ष उगते हैं, बिजली कड़कती है। परन्तु ये तो घटनाएँ हैं। घटनाओं के देखने मात्र का नाम ज्ञान नहीं है और न इनसे आस्तिक्य की भावना उत्पन्न होती है। घड़ी के देखने मात्र से तो घड़ीसाज का ज्ञान नहीं होता और न उसे देखने से कोई लाभ है। यदि आँख का काम केवल देखना मात्र ही होता तो उस आँख से कोई लाभ न था। जो चौकीदार चोर को देखता-मात्र है और देखने के पश्चात् क्या काम करना चाहिए उसका ज्ञान नहीं रखता, उस चौकीदार से क्या लाभ? देखने का पूरा अर्थ समझाने के लिए ही मन्त्र का अगला भाग है- यतः व्रतानि पस्पशे। ‘यतः’ जिनसे, जिनकी सहायता से। ‘किनकी?’ उन कर्मों की अर्थात् विष्णु के उन कर्मों के सम्यक् ज्ञान की सहायता से। व्रतानि पस्पशे। मनुष्य अपने व्रतों का अनुष्ठान कर सके। मेरा विष्णु के कर्मों का देखना निरर्थक नहीं। इसमें मेरा ही स्वार्थ है। मैं अपने व्रतों का अनुष्ठान करना चाहता हूँ। इस अनुष्ठान के लिए विष्णु के कर्मों को देखना है।
‘व्रत’ का अर्थ है ‘वर्तन, बर्ताव या कर्त्तव्यपालन। चेतन जीव होने के नाते मैं कुछ न कुछ तो करता ही रहता हूँ। ‘कर्तुं, अकर्तुं, अन्यथा कर्तुम’-करना, न करना, उलटा करना ये तीन लक्षण हैं चेतन के। अकर्तुं भी एक क्रिया है। क्योंकि क्रिया के प्रवाह को रोकना पड़ता है। बहते हुए जल की धारा को रोकने के लिए बान्ध बाँधना भी तो क्रिया ही है। क्या कोई ऐसा चेतन भी है जो कभी कोई काम न करे? वह कोई न कोई काम अवश्य करेगा ओर उसका यह काम कर्तुं, अकर्तुं और अन्यथाकर्तुं की कोटियों के अन्तर्गत ही होगा। परन्तु प्रत्येक क्रिया कर्त्तव्यता नहीं है। ‘कृ’ धातु में ‘तव्य’ या ‘तव्यत्’ प्रत्यय लगाने का एक विशेष हेतु है।
‘कर्त्तव्य’ वही है जिससे उद्देश्य की पूर्ति हो। कर्त्तव्य की पूर्ति तो विष्णु के कर्मों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने से ही होगी। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अनुकरण करे अर्थात् जैसा काम किसी को करते देखे वैसा ही स्वयं भी करे। परन्तु अनुकरण और निर्वचन में भेद है। जो क्रिया केवल अनुकरण के रूप में की जाती है वह कर्त्तव्य नहीं है, व्रत भी नहीं है। जब मैं बहुत से कर्मों में से जिनका करना मेरे लिए सम्भव है या जिनके करने की मेरी प्रवृत्ति है, किसी एक कर्म का निर्वचन (छाँट करके) करके उसको करता हूँ तो वह व्रत कहलाता है। मेरे सामने टेढे-सीधे अनेक मार्ग हैं। मुझे अधिकार है कि मैं उन मार्गों में से किसी एक पर चल पडूँ, परिणाम भला हो या बुरा। यह अनुकरण तो है, निर्वचन का अंश न होने से यह व्रत नहीं है। व्रत वह होगा जिसको मैं केवल इसलिए न करूँगा कि दूसरे करते हैं, अपितु इसलिए कि कई मार्गों में से एक मार्ग ऐसा है जिससे मेरे उद्देश्य की पूर्ति होगी। उपनिषद् में कहा है- नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। परमपद की प्राप्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं। अतः विष्णु के सहस्रों कर्मों को देखकर उनका अनुकरण मात्र करना नहीं, अपितु परिस्थिति को देखते हुए और अपनी मंजिल पर निगाह रखते हुए यह निर्वचन करना है कि मुझे यह मार्ग ठीक पड़ेगा। यही व्रत है। जो लोग केवल नेचर या कुदरत का अनुकरण करते हैं, वे भूल-भूलय्यों में पड़ जाते हैं। मनुष्य को अपने व्रतों का निश्चय करना है और विष्णु के कर्मों को देखकर उनसे शिक्षा लेनी है।
संसार के वैज्ञानिक लोग विष्णु के कर्मों अर्थात् कुदरत की घटनाओं का निरीक्षण करते और उनका अनुकरण करते हैं। मछली को तैरते देखकर उसी के शरीर के अनुकरण रूग में नौकाएं बनाते हैं। पक्षियों को उड़ते देखकर उन्हीं के अनुकरण रूप में विमानों का निर्माण करते हैं। यह सब अनुकरण पक्षी के उद्देश्यों और मानव जाति के उद्देश्यों में भेद नौका या और अनुकरण साइंस का आधारभूत है। परन्तु साइंस का मुख्य प्रयोजन तब सिद्ध होता है जब मनुष्य मछली या पक्षी के उद्देश्यों और मानव-जाति के उद्देश्यों में भेद करके नौका या विमानों का अपने लाभ के लिए प्रयोग करता है। वेदमन्त्र यह नहीं कहता कि विज्ञान नास्तिकता है या नास्तिकता का पोषक है। बहुत से मतमतान्तर हैं जो प्राकृतिक नियमों के निरीक्षण या परीक्षण मात्र को अनीश्वरवाद कहते हैं। अल्लाह के कामों में दखल मत दो। उसके भेदों को जानने की इच्छा मत करो। अल्लाह के भेद कौन जान सकता है। ‘‘खुदा की बातें खुदा ही जानें।’’ कुदरत के पर्दे को फाड़कर उसके भीतर झाँकना ईश्वर को कुपित करना है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों और ईश्वर के भक्तों में बहुत दिनों से युद्ध आजकल भी है और पहले भी था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुदरत के निरीक्षक और परीक्षक जो वैज्ञानिक हैं उनका एक अलग जत्था है और ईश्वर के मानने वाले, उसकी स्तुति करने वाले और उसकी पूजा करने वाले जो धार्मिक लोग हैं उनका अलग जत्था है।
वेदमन्त्र की भावना इसके विपरीत है। वेदमन्त्र का उपदेश है कि विष्णु के कर्मों का देखो, स्थूलकर्मों को, सूक्ष्मकर्मों को, बाह्यकर्मों को और आन्तरिक कर्मों को। छोटे कर्मों को और बड़े कर्मों को आँखें खोलकर देखो, परिश्रम करके देखो और बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखो। उस समय पता चलेगा कि सृष्टि के मौलिक नियम वही हैं जो धर्म के हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि भौतिक जगत् के भी उसी प्रकार नियामक हैं जैसे आध्यात्मिक जगत् के। कुदरत का विरोध करके कोई ईश्वर भक्त नहीं बन सकता। जैसे किसी राजा या शासक के कानून को भंग करके कोई उस शासक का भक्त नहीं बन सकता।
आप ईश्वर के कर्मों को क्यों देखें और क्यों उनका अनुकरण करें? इसका उत्तर मन्त्र के अन्तिम चरण में दिया है- इन्द्रस्य युज्यः सखा। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा या मित्र है। ‘इन्द्र’ नाम है जीव का। ‘इन्द्र’ को जीव कहने में कुछ संकोच होता है। क्योंकि ‘इन्द्र’ शब्द का उच्चारण करते ही हमको पौराणिक इन्द्र या शची का ध्यान आ जाता है। बहुत दिनों से सुनते-सुनते हमारे संस्कार ऐसे ही हो गये हैं। परन्तु ‘इन्द्रिय’ शब्द का प्रयोग तो बहुत पुराना है। आँख, कान, नाक आदि को ’इन्द्रिय’ कहने में आप इतना संकोच नहीं करते। तथ्य यह है कि ‘इन्द्रिय’ शब्द ही ‘इन्द्र’ से बना है। ‘इन्द्रिय’ का अर्थ है इन्द्र वाली। पाणिनि महर्षि को भी इस भावना को दर्शाने के लिए एक सूत्र बनाने की आवश्यकता प्रतीत हुई ‘इन्द्रियमिन्द्रलिंगम्’ इत्यादि (अष्टाध्यायी 5.2.93)। काशिका इस सूत्र गर टिप्पणी देती है-
रूढिरेषा चक्षुरादीनां करणानाम्। तथा च व्युत्पत्तेरनियमं दर्शयति इन्द्रशब्दात् षष्ठी समर्थाल्लिंगमिन्द्रियम्। इन्द्र आत्मा स चक्षुरादिना करणेनानुमीयते नाकतृकं करणमस्ति।
इससे स्पष्ट है कि काशिकाकार ने भी ‘इन्द्र’ का अर्थ जीवात्मा किया है। इन्द्र जिन करणों का प्रयोग करता है उन्हीं को इन्द्रिय कहा जाता है।
विष्णु इन्द्र का सखा है। परमेश्वर जीव का मित्र है। ‘युज्यः’ अत्यन्त योग्य। ऐसा मित्र कोई दूसरा नहीं। विष्णु से अधिक निःस्वार्थ मित्र कौन होगा? उसकी हितैषिता तो प्रत्येक कर्म से प्रकट होती है। हम आँख का उपभोग और प्रयोग करते हैं। आँख हमारा करण है। परन्तु आँख बनाने वाला तो विष्णु ही है। उसने आँख हमारे हित के लिए ही बनाई है और आँख की सहायता के लिए सूर्य भी विष्णु महाराज की ही मित्रता का फल है। इसी प्रकार जहाँ तक आप विचार करेंगे संसार की प्रत्येक वस्तु से विष्णु भगवान् की मित्रता का प्रमाण मिलेगा। उससे अधिक मित्र कौन मिलेगा जिसके कर्मों को देखकर हम अपने व्रतों का ठीक-ठीक अनुष्ठान कर सकें। - गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- फरवरी 2013)