ओ3म् हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥ (ऋग्वेद 8.2.12)
शब्दार्थ- (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम् पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भाँति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।
भावार्थ-
मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियाँ बताई गई हैं-
1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं ।
मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और ‘बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’ (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है।
‘शराब’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है ।
मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-
गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में॥ - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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