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राष्ट्रीय आस्था का सन्देहरहित होना आवश्यक

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6 दिसम्बर 2018 को मुस्लिम संगठनों द्वारा विदेशी आक्रान्ता बाबर द्वारा निर्मित बाबरी ढांचे को ढाए जाने की याद में काला दिवस मनाया जाता है जो इस बार भी मनाया गया। समय-समय पर इनके द्वारा कश्मीरी आतंकवादियों को सेना के द्वारा मारे जाने पर शोक सभाएं और रैलियां की जाती है तथा पत्थर बाजों को प्रोत्साहित किया जाता है। इन पत्थरबाजों के मानव-अधिकारों की बात भी की जाती है, जबकि ये मनुष्य तो हैं ही नहीं, मनुष्य रूप में राक्षस हैं। मानव अधिकार मनुष्यों के होते हैं, पत्थरबाज राक्षसों का स्थान तो सश्रम कारावास ही होना चाहिए, चाहे वे किसी भी उम्र के क्यों न हों।

देश में वर्तमान परिस्थिति में मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर प्रश्‍नचिन्ह लगने लगा है। सर्वविदित है कि दसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में मुस्लिम नाम का कोई समुदाय नहीं था। दसवीं से बीसवी शताब्दी तक विदेशी आक्रमणकारियों तथा उनके द्वारा धर्मान्तरित मुसलमानों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि देश का एक विशाल भूखण्ड काटकर उन्हें दे दिया गया। सन् 47 से आज तक हिन्दुओं के भाग में बचे भारत में उनकी जनसंख्या अब पच्चीस करोड़ से अधिक हो गई है और देश में सन् 47 से पूर्ववर्ती समस्याओं की पुनरावृत्ति प्रारम्भ हो गई है। कश्मीर का उदाहरण सबसे समक्ष है, जहाँ बहुसंख्यक मुस्लिम समाज ने अल्प हिन्दुओं को निर्मम यातनायें देकर कश्मीर से बाहर निकाल फेंका।

राष्ट्रीय कहलाने का अधिकारी वह व्यक्ति अथवा समुदाय होता है जो अपने राष्ट्र से हार्दिक प्रेम करता हो। जिस भूमि पर हमने जन्म लिया, जिसका अन्न जल खाकर हम बड़े हुए, उस धरती को सारा हिन्दू समाज भारत माता के रूप में पूजता हैं तथा वन्दे मातरम् का गीत गाता है। परन्तु दूसरी ओर कुछ मुस्लिम भारत माता को डायन कहने का दुःसाहस कहते हैं। फिर भी हमारे नेता उन्हें ही प्रसन्न करने के लिये वन्दे मातरम् कहने वाले हिन्दुओं को साम्प्रदायिक कहकर कोसते हैं। हिन्दु समाज का विचार है- भारत में यदि रहना है, तो वन्दे मातरम् कहना होगा। परन्तु दूसरी ओर मुस्लिम समाज ने भारत का राष्ट्र गीत वन्देमातरम् कभी भी स्वीकार नहीं किया। जबकि स्वतन्त्रता की लड़ाई में भारतीय क्रान्तिकारी यही वन्दे मातरम् गीत गाते हुए फांसी के फन्दे पर झूल जाया करते थे।

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इतिहास साक्षी है कि इस्लाम के नाम पर तलवार की नोक पर इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना की कामना से भारत पर आक्रमण करके देवालयों के गगन चुम्बी शिखरों को गिराया गया, मूर्तियों को तोड़ा गया और वैभव सम्पन्न मन्दिरों को लूटा गया।

बगदाद में होने वाली बमबारी से भारत का मुस्लिम समाज चिन्ता में डूब गया था कि कहीं वहाँ विद्यमान इस्लामिक कला नष्ट न हो जाए। परन्तु भारत में राष्ट्रीय कहलाने का अधिकार माँगने वाले भूल जाते हैं कि नालन्दा, तक्षशिला और विक्रमशिला के जगत प्रसिद्ध विश्‍वविद्यालयों ने उनका क्या बिगाड़ा था, जो उन्हें अग्नि की लपटों से स्वाहा कर दिया गया। हमारे संग्रहालयों में सुरक्षित खण्डित देव प्रतिमाएं भी इस्लाम के नृशंस अत्याचारों की कहानी सुनाती हैं।

इस्लाम के नाम पर भारत में की गई विनाशलीला पर गौरवान्वित होने वाले इन लोगों से प्रश्‍न है कि जिनका लक्ष्य ही देश को खण्ड-खण्ड करके नये-नये पाकिस्तान बना देना है, वे राष्ट्रीय कैसे कहला सकते हैं? यदि मुसलमान राष्ट्रीय होते तो पाकिस्तान न बनता। यदि मुसलमान राष्ट्रीय होते तो कश्मीर में देशद्रोही पाकिस्तानी अड्डों को कदापि न चलने दिया जाता। आज कश्मीर में मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाये जाते हैं, पाकिस्तान के अनुसार घड़ियों में समय मिलाया जाता हैं पाकिस्तानी झण्डा लहराया जाता है, वहीं का रेड़ियो सुना जाता है और वहीं का दूरदर्शन देखा जाता है। यदि कश्मीर से सेना हटा ली जाये तो क्या कश्मीर भारत का अंग रह जायेगा?

यह सारी स्थिति मुस्लिम समुदाय द्वारा उत्पन्न की गई है, तो फिर वे कैसे राष्ट्रीय कहला सकते हैं।

संसार में अनेक सभ्यतायें और संस्कृतियाँ नदियों के किनारे फूलीं-फलीं। जीवनोपयोगिता के कारण प्राचीन काल से नदियों की स्तुति की जाती रही है। अतः भारत में भी गंगा, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियों के गीत गाये जाते रहे हैं तथा उनके तटों पर तीर्थ स्थान बने हैं। हमारे देश में नदियों में स्नान को प्राचीन काल से महत्वपूर्ण माना गया है। देश की परम्परागत आस्थाओं के समान मुस्लिम समुदाय देश की नदियों में कोई आस्था नहीं रखता। उनकी आस्थायें अरब देशों सऊदी अरब व ईरान-इराक आदि से जुड़ी हैं। उनके लिये मक्का और मदीना तीर्थ हैं, वही उनकी श्रद्धा के केन्द्र हैं, जिनके लिए वे अपने प्राण भी न्यौछावर कर सकते हैं। जबकि मंगोलिया, साइबेरिया, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि अनेक देशों में आज तक भी वहाँ की श्रद्धालु जनता गंगा जल प्राप्त करने के लिए लालायित रहती है और भारत के तीर्थों को पवित्र मानती है। भारतीय संस्कृति के साथ-साथ गंगा का महात्म्य भी अनेक देशों में विद्यमान है। तो भारत में रहने वाले यहाँ के नागरिक गंगा से प्रेम न करें तो हास्यापद लगना स्वाभाविक ही है।

प्रत्येक देश को अपने देश के साहित्य और साहित्यकारों पर गर्व होता है। अंग्रेजों को शेक्सपीयर प्रिय हैं तो भारतीयों को वाल्मीकि, व्यास और कालिदास। प्रत्येक भारतीय को देश की साहित्यिक धरोहर वेद, पुराण, आरण्यक या उपनिषद, रामायण, गीता या महाभारत पर गर्व है। परन्तु मुस्लिम समुदाय न तो इन साहित्यिक कृतियों और न ही किसी भारतीय साहित्यकार के नाम से गौरव का अनुभव करता है। उनकी लेखनी कभी कालिदास, भवभूति, माघ या भारवि के काव्यों से प्रेरणा स्रोत नहीं ढूंढती, उनकी रचनायें भारतीय छन्दों या अलंकारों में नहीं रची जाती, न प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न हिमालय को देवतात्मा कहती, न प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का ही वर्णन करती, न भारत के अखण्ड स्वरूप के गीत गाती। अतः मुस्लिम साहित्यकार राष्ट्रीयता से ही वंचित रह जाता है।

विश्‍व भर में महापुरुषों के जीवन आदर्श माने जाते हैं। आने वाली पीढियों के समक्ष आदर्श एवं जीवन मूल्य निर्धारण हेतु चुन-चुन कर अंश निकाले जाते हैं। क्राईस्ट ईसाई जगत के लिए आदर्श बन गये, तो मोहम्मद इस्लाम जगत के लिए। जहाँ-जहाँ बौद्ध संस्कृति गयी, उस देश में भगवान बुद्ध का जीवन आदर्श और जीवन मूल्यों का आधार बन गया। एक आदर्श शासक-पुत्र-पति-भाई और पिता के दिव्य स्वरूप में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भारत के जन-जन के हृदय में राज करने लगे तथा भारतीयों की आस्था और श्रद्धा के केन्द्र बन गये। देश में राम राज्य की स्थापना एक स्वप्न बन गयी। संसार में यदि उनके समान व्यक्तित्व खोजने निकलें तो निराश और हताश होकर ही लौटना पड़ेगा।

अतः राम के जीवन का अनुकरण करना तथा उन्हें प्रेरणा का स्रोत मानना प्रत्येक भारतवासी का परम कर्त्तव्य बन जाता हैं। परन्तु देवतुल्य भगवान राम की पावन जन्मभूमि पर मन्दिर का विरोध करने वाले, देश की मर्यादा का हनन करने वाले, राम के अस्तित्व को नकारने वाले लोगों को देश की वास्तविक राष्ट्रीयता का विचार छू तक नहीं जाता।

राम राज्य की स्थापना का संकल्प लेने वाला हिन्दू समाज कहता है- बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का। वे बच्चे-बच्चे के हृदय में राम के आदर्शों की ज्योति जला देना चाहते हैं। चाहे चीन जितना विशाल देश हो, या रूस के समान अथवा जापान और इजराईल जितना छोटा। प्रत्येक देश की अपनी एक राष्ट्र भाषा होती है, जिसे वे पूरे मनोयोग से अपनाते हैं। भारत की सभी प्रान्तीय भाषाओं की जननी देववाणी संस्कृत का तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी का सम्मान प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य है। परन्तु मुसलमानों के हृदय पर तो अरबी और फारसी का साम्राज्य है। वे तन-मन-धन से उर्दू की सेवा को अपना कर्त्तव्य मानते हैं। वे अपने बच्चों की शिक्षा के लिए मदरसे खोलते हैं और इन्हीं मदरसों में पाक परस्ती पनपने लगती है। यहाँ तक कि भारत पाकिस्तान में होने वाले किसी मैच में यदि भारतीय खिलाड़ी जीत जाते हैं तो भारतीय मुसलमान क्रोध और दुःख का प्रदर्शन करते हैं, मारपीट और तोड़-फोड़ में जुट जाते हैं। दूसरी ओर पाकिस्तान की जीत उनकी अपनी विजय बन जाती है। उसे वे खुशियाँ मनाकर, पटाके चलाकर और मिठाईयाँ बांटकर मनाते हैं। वे भारत की विजय की कामना ही नहीं करते। हिन्दुओं के लिए भारत की विजय परमानन्द का विषय है, उनके लिए यह देश ही एक मन्दिर है, यह भूमि भारतमाता है। - आचार्य डॉ. संजय देव (दिव्ययुग - जनवरी 2019)