विशेष :

sadhnaओ3म् य एक इत् तमु ष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणिः।
पतिर्जज्ञे वृषक्रतुः॥
ऋग्वेद 6.45.16॥
ऋषिः बार्हस्पत्यः शंयुः॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः निचृद्गायत्री॥

विनय- हे मनुष्य ! तू किस-किसकी स्तुति करता फिरता है? संसार में तो एक ही स्तुति के योग्य है। संसार में हम मनुष्यों का एक ही पति, पालक और रक्षक है। हे मनुष्य ! तू न जाने किस-किसको अपना पालक समझता है और उस-उसकी स्तुति करने लगता है। कहीं तू रुपये-पैसे वाले व्यक्ति को अपना रक्षक समझता है। कहीं तू किसी लब्धप्रतिष्ठ रोबदाब वाले व्यक्ति को अपना स्वामी बनाकर रहता है। कहीं तू किसी दार्शनिक व कवि की प्रज्ञा तथा प्रतिभा के स्तुति-गीत गाने लगता है एवं उसके ज्ञान व कवित्व पर तू मोहित रहता है। संसार में ऐसे भी मनुष्य बहुत हैं, जो किन्हीं जीवित व जीवरहित आकृतियों के सौन्दर्य को देखकर ही ऐसे मोहित हो जाते हैं कि उनका मन उस सौन्दर्य की प्रशंसा करता नहीं थकता। परन्तु संसार में मनुष्य की स्तुति के पात्र बहुत नहीं हैं। एक ही है, केवल एक ही है और वह इन सब स्तुत्य वस्तुओं का एक स्रोत है। सैकड़ों की स्तुति न कर। इन शाखाओं की स्तुति करने से कल्याण नहीं होता, रक्षा नहीं होती। रूप, रस आदि ऐन्द्रियक विषयों की स्तुति तो मनुष्य का विनाश ही करती है, पालन कदापि नहीं। इनकी स्तुति तो अति-अज्ञानी पुरुष ही करते हैं। पर जो संसार में हमारे अन्य रक्षा करने वाले बल, ज्ञान और आनन्द हैं अथवा बली, ज्ञानी और सुखी लोग हैं, वे भी ‘विचर्षणि’, ‘वृषक्रतु’ नहीं हैं। उनमें ज्ञान और बल पर्याप्त नहीं है। संसार के ये सब बल, ज्ञान और आनन्द तो उस एक सच्चिदानन्द महासूर्य की क्षुद्र किरणें मात्र हैं। इन किरणों की स्तुति करने से अपने को बड़ा धोखा खाना पड़ेगा। हे मनुष्य ! ये संसार के क्षुद्र बल और ज्ञान मनुष्य का पालन न कर सकेंगे। ये बीच में ही छोड़ देंगे। इनमें पूरा ज्ञान और बल नहीं है। अतः इनमें आसक्त होकर इनकी स्तुति मत कर। स्तुति उस ‘मनुष्यों के एक पति’ की कर, जो ‘विचर्षणि’ और ‘वृषक्रतु’ होता हुआ पालक है। वह एक-एक मनुष्य को विशेषतया देख रहा है। प्रत्येक मनुष्य को और उसके सब संसार को वह इतनी अच्छी तरह देख रहा है कि प्रत्येक मनुष्य यही अनुभव करेगा कि उस मेरे प्रभु को मानो एकमात्र मेरी फिक्र है और उस पालक पति का एक-एक क्रतु, एक-एक समल्प, एक-एक कर्म ऐसा ‘वृष’ अर्थात् बलवान् है कि उसकी सफलता के लिया न मानें, पर वे तो हमें मारते हुए भी हमारी रक्षा कर रहे हैं। अहो देखो! उस प्रभु के उन्नति-मार्ग महान् हैं। उसकी रक्षा के प्रकार अनन्त हैं। जाननेवाला सब संसार उसकी स्तुतियाँ-ही-स्तुतियाँ गाता है।

शब्दार्थ - अस्य=इस परमेश्‍वर के प्रणीतयः=आगे ले-जाने के, उन्नत करने के मार्ग महीः=बड़े हैं उतः प्रशस्तयः पूर्वीः=और इसकी प्रशंसाएँ सनातन हैं अस्य ऊतयः न क्षीयन्ते=इसकी रक्षाएँ कभी क्षीण नहीं होती। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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