ओ3म् तमध्वरेष्वीळते देवं मर्ता अमर्त्यम्।
यजिष्ठं मानुषे जने॥ ऋग्वेद 5.14.2॥
ऋषिः आत्रेय सुतम्भरः॥ देवता अग्निः॥ छन्दः विराड्गायत्री॥
विनय- नाना प्रकार के यज्ञों में जो हम विविध कर्म करते हैं, असल में हम उन सब कर्मों द्वारा उस अमरदेव का ही पूजन करते हैं। हम मरणशील मनुष्यों को अमरदेव के ही यजन करने की जरूरत है। प्रत्येक यज्ञ-कर्म का प्रयोजन यही है कि हम उसके द्वारा मृत्यु से पार हो जाएँ, अमर हो जाएँ। यज्ञ मर्त्य को अमर बनाने के लिए ही है। पर हम यज्ञों द्वारा जिसे अमरदेव की पूजा करते हैं, वह अमरदेव कहाँ है? सुनो, वह अमरदेव प्रत्येक मानुष जन में है, प्रत्येक मनुष्य में ‘यजिष्ठ’ होकर विद्यमान है। हमें प्रत्येक मानुष में उसका यजन करना चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि यज्ञ सब मनुष्यों के हित के लिए होता है। यज्ञ का स्वरूप परोपकार है, एक-एक मनुष्य का हितसाधन है। मनुष्यों की सेवा करना ही यज्ञ करना है। जितना हम मनुष्यों की सेवा करते हैं, मनुष्य की पीड़ाओं और दुःखों को दूर करने के लिए निःस्वार्थ भाव से यत्न करते हैं, उतना ही हमारे ये कार्य यज्ञ होते हैं। अग्निहोत्र द्वारा किये जाने वाले पुराने ऋतु-यागादि भी आधिदैविक देवों की अनुकूलता प्राप्त करके मानव-समाज के हित के प्रयोजन से ही किये जाते थे। पर इतने से भी यज्ञ का तात्पर्य पूरा नहीं होता। मनुष्यों की जिस किसी प्रकार की सेवा करने से यज्ञ नहीं हो जाता। हमने तो प्रत्येक मनुष्य में उस अमरदेव का ही यजन करना है। जिस सेवा से मनुष्य के अमरदेव की सेवा नहीं होती, वह सेवा सेवा नहीं है, वह सेवा यज्ञ नहीं है। भोगविलास की सामग्री जुटाने से बेशक मनुष्यों की तृप्ति होती दीखती है, पर यह मनुष्यों की सच्ची सेवा नहीं है। ऐसा ‘परोपकार’ यज्ञ नहीं, अयज्ञ है। इसी प्रकार भूखों को इस तरह अन्न देना या रोगियों को इस तरह औषध देना भी जो उनकी सच्ची उन्नति में, उन्हें अमर बनाने में बाधक होवे, यह भी यज्ञ नहीं है। अर्थात् जनता की भौतिक उन्नति साधना तभी तक यज्ञ है, जब तक कि यह भौतिक उन्नति उनकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए ही हो। आध्यात्मिक उन्नति करना ही दूसरे शब्दों में मर्त्य से अमर बनना है। आओ, हम मर्त्य अमरदेव की पूजा करें, मनुष्य की ऐसी सेवा करने में अपने को खो देवें, जो सेवा उनके अमर बनने में सहायक हो।
शब्दार्थ- अध्वरेषु=सब यज्ञों में मर्त्ताः=हम मरणशील मनुष्य तं अमर्त्यं देवम्=उस अमर, कभी न मरने वाले देव की ही ईळते=पूजा करते हैं जो देव मानुषे जने=प्रत्येक मनुष्य के अन्दर यजिष्ठम्=यजनीय है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
Immortal is the Honorable of Mortal Men | Various Tasks | Beyond Death | Mortal is Immortal | Nature of Sacrifice | Serve Human Beings | Selfless Feeling | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Hinjilicut - Sironj - Mugma | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Hirapur - Sirsaganj - Muri | दिव्ययुग | दिव्य युग