ओ3म् उत न सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥ ऋग्वेद 1.4.6
ऋषिः मधुच्छन्दा॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे पापों और बुराइयों का नाश करने वाले जगदीश्वर! तुम्हारी कृपा से मैं इतना उच्च हो जाऊँ कि मेरी अच्छाइयों का बखान मेरे शत्रु भी करें। मेरी ओर से तो मेरा कोई शत्रु नहीं होना चाहिए। पर जो मेरे प्रतिद्वन्द्वी हैं, जिनके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते, जो मेरे वायुमण्डल से बिलकुल उलटे वायुमण्डल में रहते हैं, उन मेरे विरोधी भाइयों के लिए यह स्वाभाविक होगा कि उनके कानों में सदा मेरे अवगुण ही पहुँचें और उनका दृष्टिकोण ही ऐसा होगा कि उन्हें मेरी बुराइयाँ ही सहज में दिखाई देवें। पर हे प्रभो! यदि मेरा जीवन बिलकुल पवित्र होगा, मेरे आचरण में सर्वथा सचाई और शुद्धता होगी तो मेरे जीवन का उस दूरस्थ (विचारों से मुझसे दूर रहने वाले) भाई पर भी असर क्यों न होगा? बस, हे प्रभो! मेरे अन्दर से सब बुराइयों का नाश करके मुझे ऐसा उच्च बना दो कि जो मुझसे इतनी विपरीत परिस्थिति में रहते हैं, उन पर भी मेरी अच्छाई की, उच्चता की छाप पड़े बिना न रहे। सामान्य मनुष्य तो मुझे अच्छा कहेंगे ही, मेरी स्तुति करेंगे ही, पर इन विरोधियों के अन्तःकरण भी मेरी विशुद्धता को पहचानें, यही इच्छा है। अपने सच्चे विरोधियों से जो यश मिलेगा वह खरा यश होगा। उसमें अत्युक्ति आदि का खोट न होगा। मित्रों और उदासीनों से तो यश मिला ही करता है, उसमें कुछ विशेषता नहीं, उसका कुछ मूल्य नहीं।
पर हे प्रभो! इस यश को पाकर मैं फूल नहीं जाऊँगा। तुम्हें भूल नहीं पाऊँगा। बल्कि इस यश को भूला रहकर सदा तुम्हारी ही याद में सुखी रहूँगा। यह यश मेरी विशुद्धता की पहचानमात्र होगा, यह मेरे सब सुख का कारण कभी नहीं होगा। मेरा सुख तो तुम्हारी शरण में है। बाहरी दुनिया चाहे मेरी घोर निन्दा करे, मुझे अपमानित करे, तो भी मैं तेरे प्रसाद से पाये सुख से वैसा ही सुखी रहूंगा, जैसा कि बाहरी यश पाने पर हूँ। मेरा सुख या दुःख बाहरी यश या अपयश पर अवलम्बित न होगा। हे प्रभो ! ऐसी कृपा करो कि तुझ परमेश्वर की प्रसन्नता से पाये हुए सुख में ही मैं सदा सुखी, आनन्दित और सन्तुष्ट रहूँ। बाहरी यश द्वारा सुख पाने की चाह मुझमें कभी उत्पन्न न हो। बाहरी यश मिलते रहने पर भी उस यश से सुख पाने की चाह मुझमें कभी उत्पन्न न हो। मैं तुम्हारे ही सुख में रहूँ।
शब्दार्थ- दस्म=हे पापनाशक इन्द्र! अरिः उत=शत्रु भी नः सुभगान् (वोचेयुः)=हमारी अच्छाइयों को, हमारे सौभाग्यों को कहें उ=और कृष्टयः वोचेयुः=सामान्य मनुष्य तो कहें ही। फिर भी हम इन्द्रस्य इत्=तुझ परमेश्वर के ही शर्मणि=सुख में स्याम=रहें, होवें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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