पञ्चमहाभूतों में ‘आकाश’ अन्तिम महाभूत है, परन्तु उत्पत्तिक्रम में इसका स्थान प्रथम कहा गया है- तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः।237
वैदिक कोश ‘निघण्टु’ में अन्तरिक्ष के 16नामों का उल्लेख है, जिनमें एक ‘आकाश’ भी है- अम्बरम्, वियत, व्योम, बर्हिः, धन्व, अन्तरिक्षम्, आकाशम्, आपः, पृथिवी, भूः, स्वयम्भूः, अध्वा, पुष्करम्, सगरः, समुद्रः, अध्वरम्।238
‘काशृ दीप्तो’239 इस धातु से ‘आकाश’ शब्द सिद्ध होता है- आ समन्तात् काशन्ते दीप्यन्ते सूर्यादयोऽत्र। जहाँ सूर्यादि चमकते हैं, वह आकाश है।
वैशेषिक दर्शन में आकाश का लक्षण यह किया गया है- निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम्।240
अर्थात् निकलना और प्रवेश करना ये दोनों आकाश के ज्ञापक हैं। वैशेषिक दर्शन में शब्द241 को आकाश का गुण कहा गया है। आचार्य यास्क भी इसकी पुष्टि करते हैं- आकाशगुणः शब्दः॥242
शब्द को ही ध्वनि तथा वाणी भी कहा जाता है। ध्वनि प्रदूषण वर्तमान में अपनी चरम सीमा पर है। सभी प्रकार के प्रदूषण की भयावहता को अलग-अलग स्तर पर मापा जाता है। साधारणतया लोग वायु प्रदूषण तथा जल प्रदूषण से ज्यादा भयभीत रहते हैं, लेकिन ध्वनि प्रदूषण की ओर ध्यान नहीं जाता, जबकि यह अदृश्य रहने वाला सबसे खतरनाक दानव है। व्यक्ति धीरे-धीरे इसकी चपेट में आता जाता है तथा इसका उसे पता भी नहीं लगता। ध्वनि प्रदूषण व्यक्ति को मानसिक तथा शारीरिक स्तर पर प्रभावित करता है।
प्राणी मात्र जब भी कोई कार्य करता है अथवा किसी भी प्रकार की कोई अभिव्यक्ति करता हैतो उससे वायुमण्डल पर दबाव पड़ता है और वायु तरंगे उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे आवाज आती है, इसे ही ध्वनि कहते हैं।243 ऐसा ही प्राकृतिक रूप से किसी प्रकार की हलचल, जैसे किसी वस्तु का गिरना-सरकना-ढलकना, बिजली की कड़क, नदी का पानी बहना, वायु वेग से उत्पन्न होने वाली आन्धी या तूफान या वर्षा आदि के कारण भी हो सकता है। मानव द्वारा बनाए गए अनेक कृत्रिम उपकरण भी जब कार्य करते हैं तो वह सभी आवाज करते हैं। अतः ध्वनि एक सामान्य प्रक्रिया है, जो मूलतः समस्या रहित है।
‘ध्वनि’ कम या अधिक हो सकती है। इसे ध्वनि की ‘तीव्रता’ कहते हैं। अधिक आवाज वाली ध्वनि जो सामान्यतया कानों को अप्रिय लगे, वह ‘शोर’ की सीमा में आ जाती है, जो ध्वनिप्रदूषण का कारण है।244 शोर की यदि परिभाषा दी जाए, तो यही कहा जा सकता है कि यह एक अनचाही ध्वनि है, जिससे मानव विचलित हो जाता है, बाधा अनुभव करता है तथा तिलमिलाकर तनाव में आ जाता है।245
ध्वनि के बिना इस संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ‘शोर’ विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का समुच्चय ही है। अतः ध्वनि और शोर के बीच बुनियादी अन्तर को समझने के लिए ध्वनि क्या है, इसे समझना आवश्यक है। हमारे कर्णपट से जो तरंगे टकराती हैं तथा टकराकर मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं, उन्हें ध्वनि कहा जाता है। जो ध्वनि कर्णप्रिय होती है उसे सुमधुर तथा जो ध्वनि कर्कश या कर्णकटु होती है उसे शोर कहते हैं। शोर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मत है कि सुमधुर ध्वनियों में कम्पन क्रमबद्ध होते हैं, इनमें सामयिकता, नियमितता या एक लय-ताल होती है। इसके विपरीत शोर या कोलाहलपूर्ण ध्वनि में क्रमबद्धहीनता, अनियमितता, असामयिकता तथा विच्छिन्न कम्पन्नता होती है तथा लय या सुर का अभाव होता है।246
शोर पर शोध करने में ही अपने जीवन के 36 साल खपाने वाले अमरीकी वैज्ञानिक वर्न-ओ-नडूसन की मान्यता है कि अत्यधिक शोर का मस्तिष्क व नाड़ीमण्डल पर इतना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण व्यक्ति या तो कई बीमारियों का शिकार हो जाता है या फिर वह पागल हो सकता है।247
शोर पर शोध करने वाले संसार के सब वैज्ञानिकों का एक ही निष्कर्ष है कि यह स्वास्थ्य का शत्रु है। शोर न केवल कानों पर ही दुष्प्रभाव डालता है, बल्कि इसका दुष्प्रभाव समग्र शरीर पर पड़ता है। परन्तु आज के इस युग में शोर से बच पाना सम्भव नहीं दिखता। कल-कारखानों का शोर, सड़कों पर वाहनों का कोलाहलपूर्ण शोर, बिजली न होने पर जनरेटरों का शोर, यन्त्रों-उपकरणों से उपजने वाला शोर तथा निरर्थक वार्तालाप, गाली-गलौच आदि से होने वाला शोर आज के युग की पहचान बन गया है।248
ध्वनि विज्ञान में ध्वनियों को दो रूपों में विभक्त किया गया है- श्रव्य तथा अश्रव्य। हम केवल उन्हीं ध्वनियों को सुन सकते हैं, जिनकी आवृत्ति 20 चक्र प्रति सेकण्ड से अधिक है तथा जो 20 हजार चक्र से कम हैं। इसलिए 20 चक्र प्रति सेकण्ड से कम तथा 20 हजार चक्र से अधिक आवृत्ति वाली ध्वनियाँ हमें सुनाई नहीं पड़ती हैं। 249 पर उनसे कम तथा अधिक आवृति वाली ध्वनि तरंगों का भी अस्तित्व है। श्रवेणन्द्रिय की मर्यादा अपनी सीमारेखा को चीर नहीं पाती। परिणामस्वरूप वे ध्वनियाँ सुनाई नहीं पड़ती। कान यदि सुक्ष्मातीत ध्वनि तरंगों को पकड़ने लगें तो मालूम होगा कि संसार में नीरवता कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बन्द व्यक्ति स्वयं को कोलाहल से दूर पाता है। पर सच्चाई यह है कि उसके चारों ओर कोलाहल का साम्राज्य है।249
कुत्ते, चमगादड़, मछलियों आदि की श्रवणशक्ति मनुष्य से बहुत अधिक है। जो ध्वनि मनुष्य नहीं सुन पाते हैं उनको सुनकर भी कुत्ते सजग होकर कान खड़े कर लेते हैं। कुत्तों के विषय में ऐसा प्रसिद्ध है कि आने वाले भूकम्प की सूचना उन्हें पूर्व में ही प्राप्त हो जाती है, जिसे जानकर वे विचित्र आवाजें निकालने का अद्भुत कार्य करने लगते हैं।
शब्द कभी समाप्त नहीं होता, इसलिए इसको ‘शब्द ब्रह्म’ कहा गया है। जो कुछ बोला अथवा सोचा जाता है, वह तुरन्त समाप्त नहीं हो जाता, अपितु सूक्ष्म रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहता है तथा तरंगित होता रहता है। सदियों पूर्व प्राचीन ऋषि-मुनियों ने क्या कहा होगा उसे प्रत्यक्ष सुना जा सके, ऐसा अनुसन्धन प्रयोगावधि में है। सम्भवतः इसी आधार पर श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता को अपने ही कानों से सुनना सम्भव हो सकेगा। इसीलिए वैज्ञानिकों ने कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर नामक स्थान पर जहाँ श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया बताते हैं, ऐसे यन्त्र लगा रखे हैं जो उन ध्वनितरंगों को पकड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
(क्रमशः)
सन्दर्भ सूची
237. तैतिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली।
238. निघण्टु 1.3
239. पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादि एवं दिवादिगण
240. वैशेषिक दर्शन 2.1.20
241. वैशेषिक दर्शन 2.1
242. निघण्टु 14.4
243. अपना पर्यावरण पृ. 227, डॉ. एम.के. गोयल
244. अपना पर्यावरण पृ. 227, डॉ. एम.के. गोयल
245. प्रदूषण : पृथ्वी का ग्रहण पृष्ठ 78, श्री प्रेमानन्द चन्देल
246. ’अणुव्रत’ पाक्षिक (दिल्ली) 16 सितम्बर 1998 के अंक में पृष्ठ 33 पर श्री विवेक शुक्ल का आलेख है ‘शोर है शत्रु आपके स्वास्थ्य का’
247. वही
248. भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, पृष्ठ 126 डॉ. कपिलदेव द्विवेदी
249. अखण्ड ज्योति (मथुरा) अगस्त 1997 में ‘शब्दो वै ब्रह्म’ शीर्षक से लेख पृष्ठ 47
भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, पृष्ठ 126 डॉ. कपिलदेव द्विवेदी
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