विशेष :

शुद्ध वायु अपने आप में रोगनाशक औषध है। श्‍वास द्वारा शुद्ध वायु को अन्दर लेने पर शक्ति प्राप्त होती है तता प्रश्‍वास द्वारा वायु को बाहर फेंकने पर यह अपने साथ रोगों को बहाकर ले जाती है। यदि परिस्थिति ऐसी बनाकर रखी जाए कि शुद्ध वायु मिलती रहे तो सब मनुष्य नीरोग रहें। इस प्रकार शुद्ध वायु को औषध रूप बताकर वैदिक ऋषियों ने स्वास्थ्य रक्षा के लिए एक बहुमूल्य सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया है।

वायु का सन्तुलन बिगड़ने से जीवन में समस्या उत्पन्न होती है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वायु में कई प्रकार की गैसों का मिश्रण होता है। वायु में सबसे अधिक मात्रा (लगभग 79 प्रतिशत) नाइट्रोजन की है। नाइट्रोजन के बाद ऑक्सीजन (20 प्रतिशत के लगभग) का स्थान है। शेष भाग कार्बन डाई आक्साईड, विरल गैसों, मिट्टी, धुंए के कणों आदि से निर्मित होता है।228

वायु को प्राणियों के जीवन का आधार माना जाता है। प्रकृति ने इसमें विभिन्न गैसों का समावेश इस प्रकार के अनुपात में रखा है कि वह प्राणियों के जीवन का आधार बने। लेकिन मनुष्य की अनुचित गतिविधियों के कारण यह अनुपात गड़बड़ा रहा है।उसने न केवल अपने लिए बल्कि वनस्पतियों तथा अन्य जीव जन्तुओं के लिए भी वायु को जहरीला बना डाला है। इस दूषित वातावरण में सांस लेना भी दूभर हो रहा है, जिससे विभिन्न बीमारियाँ हो रही हैं। इसका प्रभाव पृथ्वी पर बढ़ते तापमान तथा अम्लीय वर्षा के रूप में सामने आ रहा है। पृथ्वी का तापमान ग्रीन हाउस गैसों के कारण लगातार बढ़ रहा है।
यजुर्वेद में आकाश और वायु को उद्वेलित न करने की प्रेरणा की गई है- द्यां मा लेखीरन्तरिक्षं हिंसीः॥229

निम्न मन्त्र में उल्लेख है कि वायु, वर्षा आदि के द्वारा सुख प्रदान करने वाला है-
समुद्रोऽसि नभस्वानार्द्र्रदानुः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा।
मारुतोऽस्मि मरुतां गणः गणः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा।
अवस्यूरसि दुवस्वाञ्छम्भूर्मयोभूरसि मा वाहि स्वाहा।230

हे वायो! तुम सागर के समान गम्भीर तथा अगाध जलों से भरे हुए हो, आकाशमण्डल में रहने वाले, वर्षा द्वारा पृथ्वी को आर्द्र करने वाले, सुख प्राप्त कराने वाले और परम आनन्द के जनक हो,तुम ही अन्तरिक्षचारी वायु रूप हो एवं प्राणों के गण के समान सबके आश्रय स्थान, सबकी रक्षा करने वाले, अन्न के उत्पादक, कल्याणकारी और मोक्ष सुख के प्रदाता हो। इस कारण मुझे चारों ओर से प्राप्त होओ। यह आहुति भली प्रकार स्वीकार हो। काठक संहिता में भी वायु को जल का प्रदाता कहा गया है- वायुर्वै पयसः प्रदाता।231

शतपथ ब्राह्मण में वायु रूप मरुतों को वृष्टि का स्वामी कहा गया है- मरुतो वै वृष्ट्या ईशते॥232

जो वायु सब प्रकार से उपकार करती है, उसको शुद्ध रखना मानव का परम कर्त्तव्य है। यदि मानव स्वस्थ रहना चाहता है तो वायुमण्डल की शुद्धता आवश्यक है। तभी सुखी, दीर्घजीवी एवं नीरोग रहा जा सकता है। यजुर्वेद वाङ्मय में स्थान-स्थान पर शुद्ध वायु सेवन के संकेत दिए गए हैं।

वायु के प्रदूषण की समस्या आज उन समस्याओं में से है, जिनका समाधान अप्राकृतिक साधनों के माध्यम से होना असम्भव है। यह इस रूप में मनुष्य के सामने आ खड़ी हुई है कि यदि इसका शीघ्र ही कोई प्रतिकार नहीं निकाला जाएगा, तो मनुष्य को जीवन के साथ महान् हानि उठानी पड़ेगी। शुद्ध वायु जीवन देती है तथा मृत्यु तक ले जाने वाली बीमारियों से बचाती है। जिस वायु में किसी प्रकार की बीमारी के अंश नहीं होते तथा जो वायु औषधस्वरूप होता है, वह शुद्ध है तथा इससे विपरीत अशुद्ध।

इस प्रकार की वायु जो औषध रूप से हो, वह विश्‍व में स्वास्थ्य और प्रसन्नता को उत्पन्न करती है तथा प्रदूषण को कम कर देती है। इसके लिए आवश्यक है कि ऐसी परिस्थिति बनाकर रखी जाए, जिससे औषधियुक्त वायु बहे। प्राचीन ऋषियों ने शुद्ध वायु के संचार का साधन ‘यज्ञ’ को कहा है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी यज्ञ का मुख्य लाभ वायु की शुद्धि स्वीकार किया है।233 प्राचीन काल में अग्निहोत्र (वेदयज्ञ) को नित्य कर्मों234 में सम्मिलित किया गया था। इस कारण प्रातः-सायं दोनों समय अग्निहोत्र का अनुष्ठान किया जाता था तथा लोग सुखी, नीरोग एवं दीर्घजीवी होते थे और उनकी बुद्धि प्रखर होती थी।

निम्न मन्त्रों में वायु आदि की शुद्धि करने वाले यज्ञ का कभी भी त्याग न करने की प्रेरणा की गई है-
वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्‍वनो घर्मोऽसि विश्‍वधा असि। परमेण धाम्ना दृंहस्व माह्वार्मा ते यज्ञपतिर्ह्वाषीत्।235

हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो यह यज्ञ शुद्धि का हेतु है, जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु तथा सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला है, जो वायु के साथ देश-देशान्तरों में फैलने वाला है, जो वायु को शुद्ध करने वाला है और जो उत्तम स्थान से सुख को बढ़ाने वाला है, ऐसे यज्ञ का त्याग मत कर तथा तेरा यज्ञ की रक्षा करने वाला यजमान भी उसको न त्यागे।
अह्रुतमसि हविर्धानं दृंहस्व माह्वार्मा ते यज्ञपतिर्ह्वार्षीत्।
विष्णुस्त्वा क्रमतामुरू वातायापहतं रक्षो यच्छन्तां पञ्च॥236

हे ऋृत्विग् मनुष्यो! तुम कुटिलता रहित होकर होम के योग्य पदार्थों को बढ़ाओ, होम का कभी त्याग मत करो तथा तुम्हारा यजमान भी इस यज्ञ का कभी त्याग न करे। तुम्हारे द्वारा हवन किए हुए पदार्थ को व्यापनशील सूर्य, दुर्गन्धादि दोषों का नाश करते हुए वायु की शुद्धि तथा सुख की वृद्धि के लिए फैला देता है।

मनुष्य सबसे बुद्धिमान् प्राणी है, फिर भी वायु को सबसे अधिक यही प्रदूषित कर रहा है। शरीर की गन्दगी का विसर्जन, श्‍वास छोड़ते समय कार्बनडाईआक्साईड का बढ़ना, घरों में तेल तथा ईंधन का जलाना, अनेक प्रकार के प्रदूषित कचरे को जलाना, पैट्रोल एवं डीजल चालित गाड़ियों का उपयोग, कल कारखानों द्वारा होने वाला वायु प्रदूषण, पदार्थों के सड़ने-गलने आदि द्वारा वायु की अशुद्धि आदि अनेक प्रकारों से मनुष्य ही वायु को प्रदूषित करने में सबसे अधिक भागीदार है। अतः मनुष्य का ही कर्त्तव्य है कि उसने जितनी अशुद्धि वायु में मिलाई है, उसे प्रतिदिन अग्निहोत्र-यज्ञादि तथा अन्य उपायों द्वारा नष्ट करे तथा साथ ही वायु को अधिक सुगन्धित बनाने में प्रयत्नशील हो। वेदों में इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर ‘अग्निहोत्र’ का विधान किया गया है।

अग्नि के द्वारा पदार्थ सूक्ष्म में परिवर्तित होकर शक्तिशाली बन जाता है। यज्ञ द्वारा पदार्थ सूक्ष्म होकर वायु को अधिक शुद्ध एवं सुगन्धित बनाता है। सूर्य भी इस शुद्धिकार्य में सहायक बन जाता है तथा वायु की दुर्गन्धादि को दूर करता है। ऐसे यज्ञ का कभी भी त्याग न करने की प्रेरणा यजुर्वेद में दी गई है।

वायु शुद्धि की महत्ता को ध्यान में रखते हुए ही यजुर्वेद में घोड़ों, बैलों आदि पशुओं के पालन पर बहुत बल दिया गया है, ताकि वाहनादि के लिए इनका उपयोग किया जा सके। यद्यपि यजुर्वेद के 21वें अध्याय में यानादि विद्याओं का भी वर्णन है, परन्तु वायुमण्डल की शुद्धता बनाए रखने की दृष्टि से अश्‍वपालन पर ही विशेष बल दिया गया है। इस विषय पर जागतिक पर्यावरण में विशेष विचार किया गया है। औषधियों एवं वनस्पतियों का भी वायुशोधन में बहुत ज्यादा योगदान है। इस विषय पर भी ‘जागतिक पर्यावरण’ के ‘वानस्पतिक’ शीर्षक स्वतन्त्र प्रकरण में विचार किया गया है।

सन्दर्भ सूची
228. ‘अणुव्रत’ पाक्षिक (दिल्ली) 1 जून सन् 1993 के अंक में प्रो. अश्‍विनी केशरवानी का आलेख ‘वातावरण का जहर हमें निगल रहा है’ पृ. 17
229. यजुर्वेद संहिता 5.43
230. यजुर्वेद संहिता 18.45
231 काठक संहिता 35.17
232. शतपथ ब्राह्मण 9.12.5 
233. पञ्चमहायज्ञ विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती
234. संस्कार विधि गृहाश्रम प्रकरण, स्वामी दयानन्द सरस्वती
235. यजुर्वेद संहिता 1.2
236. यजुर्वेद संहिता 1.9
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