ओ3म् मा वां वृको मा वृकीरा दधर्षीन्मा परि वर्क्तमुत माति धक्तम्।
अयं वां भागो निहित इयं गीर्दस्त्राविमे वां निधयो मधूनाम्॥ (ऋग्वेद 1.183.4)
शब्दार्थ- हे स्त्री-पुरुषो! (वाम्) तुमको (मा) न तो (वृकः) भेड़िया के समान कुटिल, हिंसक अथवा चोर स्वभाववाला पुरुष (आदधर्षीत्) सताए और (मा) न (वृकीः) दुष्ट स्वभाववाली, हिंसक वृत्तियों वाली स्त्री सताए। तुम दोनों (मा परिवर्क्ततम्) कभी एक-दूसरे का परित्याग मत करो (उत) और (मा) न कभी (अतिधक्तम्) मर्यादा का उल्लंघन करके एक दूसरे के हृदय को दुखाओ। (वाम्) तुम दोनों के लिए (अयं भागः) यह सेवन करने योग्य निश्चित भाग है (इयं गीः) यह वेद की व्यवस्था है (दस्रौ) हे दर्शनीयो! एक-दूसरे के दुःख का नाश करने वालो (इमे) ये (मधूनाम्) मधुर अन्न, जल और फलों के (निधयः) कोश, खजाने (वाम्) तुम दोनों के लिए (निहितः) रक्खे गये हैं।
भावार्थ- मन्त्र में पति-पत्नी के कर्त्तव्यों का सुन्दर निर्देश है-
1. हिंसक और कुटिल पुरुष तुम्हें न सताएँ।
2. दुष्ट स्वभाव वाली स्त्रियाँ भी तुम्हें पीड़ा न दें।
3. पति-पत्नी कभी एक दूसरे का त्याग न करें।
4. दम्पती गृहस्थ की मर्यादाओं का उल्लंघन करके एक दूसरे के हृदय को जलाने वाले न बनें।
5. पति-पत्नी को ऐसा ही व्यवहार और बर्ताव करना चाहिए। यही वेद की व्यवस्था है।
6. घरों में अन्न, जल और फलों के ढेर तुम्हारे सेवन करने के लिए होने चाहिएं। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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