विशेष :

सहनशीलता और वीरता

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ओ3म् अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्।
अभीषाडस्मि विश्‍वाषाडाशामाशां विषासहिः॥ (अथर्ववेद 12.1.54)

शब्दार्थ- (अहम्) मैं (सहमानः) सहनशील (अस्मि) हूँ। अतः (भूम्याम्) पथिवी पर (उत्तरः) उत्कृष्टरूप से (नाम) प्रसिद्ध हूँ। (अभीशाट्) शत्रु सेना के सम्मुख आने पर भी मैं सहनशील बना रहता हूँ (विश्‍वाषाट्) मैं सबसे अधिक सहनशील (अस्मि) हूँ (आशाम्-आशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) मैं विशेष रूप से सहनशील प्रसिद्ध हूँ।

भावार्थ- सहनशील मनुष्य संसार में प्रसिद्ध हो जाता है। अपनी आलोचना सुनकर भी सहनशील ही रहना चाहिए। शत्रु के सम्मुख आ जाने पर भी सहनशीलता को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। हाँ, डटकर मुकाबला कर उसे परास्त कर देना चाहिए। परन्तु हमारी सहनशीलता में न्यूनता नहीं आनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सहनशील बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

पाठकों की ज्ञानवृद्धि हेतु इसी मन्त्र का एक अन्य अर्थ भी प्रस्तुत है-
(अहम्) मैं (भूम्याम्) पृथिवी पर (उत्तरः नाम अस्मि) सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्ध हूँ। क्योंकि मैं (सहमानः) अत्यन्त साहसी हूँ (अभीषाट् अस्मि) मैं शत्रुओं को पराजित करने वाला हूँ (विश्‍वषाट्) सर्वत्र विजयी हूँ। (आशाम्-आशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) अच्छी प्रकार विजयी हूँ।

प्रत्येक मनुष्य को साहसी और वीर बनना चाहिए। शत्रु जहाँ भी हों, वहाँ से खदेड़कर अपनी विजय सम्पादन करनी चाहिए। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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